वृषभानुतनया ख्यातः पुरा यो व्रजमण्डले।
अधुना पुण्डरीकाक्षो विद्यानिधि महाशयः॥
स्वकीय भावमास्वाद्य- राधा विरह कातरः।
चैतन्यः पुण्डरीकाक्षमये तातावदत् स्वयम्॥
प्रेमनिधितया ख्यातिं गौरो यस्मै ददौ सुखी।
माधवेन्द्रस्य शिष्यत्वात् गौरवञ्च सदाकरोत्॥
तत्प्रकाशविशेषोऽपिमिश्रः श्रीमाधवो मतः।
रत्नावतीतु तत्पत्नी कीर्त्तिदा कीर्त्तिता बुधैः॥
(गौ. ग. दी. 54-57)
अर्थात् पहले जो व्रजमण्डल में वृषभानु रूप से विख्यात थे, वही महाशय इस समय श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की लीला में पुण्डरीक विद्यानिधि के नाम से विख्यात हुये। स्वयं श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने स्वकीय भाव को अवलम्बन करते हुये राधा जी के विरह में कातर होकर पुण्डरीक जी को पिता कह कर सम्बोधित किया था। गौरचन्द्र जी ने ही प्रसन्न होकर इन्हें प्रेमनिधि की उपाधि दी थी और माधवेन्द्र जी का शिष्य होने के कारण श्रीमन् महाप्रभु जी इनका सम्मान करते थे। श्रीमाधव मिश्र इनका ही प्रकाश माने जाते हैं। इनकी पत्नी का नाम रत्नावती था। पण्डित व्यक्ति इनकी पत्नी को वृषभानु पत्नी कीर्तिदा कहते थे।
पिता वाणेश्वर और माता गंगादेवी को अवलम्बन कर पण्डरीक प्रभु चट्टग्राम चक्रशाला में माघ मास की बसन्त पन्चमी (शुक्ला पन्चमी) तिथि को आविर्भूत हुये थे। चट्टग्राम के छः कोस उत्तर की तरफ हाटहाजारि थाना है। उक्त थाने से एक कोस पूर्व में मेखला नामक ग्राम में पुण्डरीक विद्यानिधि का जन्म स्थान है।
विद्यानिधि जी के पिता बाघिया ग्राम, जिला ढाका के निवासी वारेन्द्र श्रेणी के विप्र थे तथा पुण्डरीक विद्यानिधि चट्टग्राम चक्रशाला ग्राम के प्रसिद्ध धनाढ्य जमींदार थे।
चट्टग्रामेर चक्रशाला ग्रामे जमिदार।
अति धनी हय –अतिशुद्धाचार॥
वारेन्द्र ब्राह्मण हय कुलांशे उत्त्म।
पुण्डरीक विद्यानिधि हय तार नाम॥
कखन चाटिग्रामे करये वसति।
नवद्वीपे आसि कखन करेन स्थिति॥
धवेन्द्र पुरीर शिष्य एइ महाशय।
(प्रेम विलास-22)
श्रील विद्यानिधि प्रभु गंगा के तट पर वास करने के लिए चक्रशाला चट्टग्राम से श्रीनवद्वीप धाम में पहुँचेंगे, अन्तर्यामी श्रीमहाप्रभु ने पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु के नवद्वीप आने की इस इच्छा को पहले ही जान लिया और उनके आने से पहले ही अर्थात् उनके नवद्वीप में पहुँचने से पहले ही ‘पुण्डरीक,अरे मेरे बाप रे, बन्धु रे’ कह कर अकस्मात् क्रन्दन करने लगे। भक्तों द्वारा इसका कारण पूछने पर उन्होंने पुण्डरीक विद्यानिधि का परिचय इस प्रकार दिया था—” पुण्डरीक विद्यानिधि का चरित्र अति अदभुत है। इनका नाम श्रवण करने से संसार पवित्र हो जाता है; किन्तु वे विषयी भोगियों की तरह वस्र पहनते हैं व विलासी द्रव्यों के साथ रहते हैं। कोई भी उन्हें वैष्णव रूप से नहीं पहचान पाता। वे सर्वदा कृष्ण-भक्ति रूपी समुद्र में निमज्जित रहते हैं। गंगा का अपने पैरों से स्पर्श न हो, इसलिए वे कभी भी गंगा स्नान नहीं करते, रात्रि को दूर से ही गंगा का दर्शन कर लेते हैं। दिन के समय लोग गंगा में कुल्ला, दन्तधावन और केश संवारना जैसे अनाचार करते हैं, इससे दुखी होकर वे दिन में कभी भी गंगा जी के दर्शन नहीं करते थे परन्तु वे गंगाजल पान किये बिना कभी भी विष्णु पूजा नहीं करते थे। चट्टग्राम और नवद्वीप दोनों स्थानों पर ही उनका घर है। शीघ्र ही वे नवद्वीप आ पहुँचेंगे, विषयी व्यक्तियों जैसा व्यवहार देखकर तुम एकदम उनको पहचान नहीं पाओगे। उनके दर्शन न कर पाने के कारण मैं अपने आप को अशान्त अनुभव कर रहा हूँ।”
नवद्वीपे करिलेन ईश्वर प्रकाश।
विद्यानिधि ना देखिया छाड़े घनश्वास।
नित्य करि’ उठिया बसिया गौर-राय।
‘पुण्डरीक बाप’ बलि’ कान्दे उभराय।
पुण्डरीक आरे मोर बापरे बन्धुरे।
कबे तोमा देखिब आरे रे बापरे।1
(चै. भा. म. 7/11-13)
अनुमान है जिस समय श्रीअद्वैताचार्य जी श्रील माधवेन्द्र पूरीपाद जी से दीक्षित हुये थे, उसी समय पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु ने भी माधवेन्द्र पूरीपाद को गुरु रूप से वरण किया था। श्रीमाधवेन्द्र पूरीपाद के शिष्य होने के कारण श्रीमहाप्रभुजी अपने गुरुदेव के गुरु-भाई समझकर पुण्डरीक विद्यानिधि को मर्यादा प्रदान करते थे। श्रीचैतन्य चरितामृत में भी श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी जी ने लिखा है: –
पुण्डरीक विद्यानिधि-बड़शाखा जानि।
याँर नाम लैञा प्रभु कान्दिला आपनि 2
(चै. च. आ. 10/14)
श्रील गदाधर पण्डित गोस्वामी, श्रीमुकुन्द दत्त व श्रीवासुदेव दत्त चट्टग्राम के निवासी होने के कारण श्रीपुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु से परिचित थे। श्रीगदाधर पण्डित गोस्वामी के पिता श्रीमाधव मिश्र के साथ पुण्डरीक विद्यानिधि जी की विशेष घनिष्ठता थी। श्रीमुकुन्द दत्त, पुण्डरीक विद्यानिधि जी के अलौकिक चरित्र और वैष्णवता से परिचित थे परन्तु श्रीगदाधर पण्डित गोस्वामी जी ने चट्टग्राम के निवासी होते हुये भी पुण्डरीक विद्यानिधि जी के स्वरूप को न जानने की लीला का अभिनय किया।
जिस समय पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु नवद्वीप में आकर रह रहे थे। उसी समय मुकुन्द दत्त एक दिन गदाधर पण्डित जी को अपूर्व वैष्णव के दर्शन करवाने के लिए पुण्डरीक विद्यानिधि जी के पास ले आये। श्रीगदाधर पण्डित गोस्वामी बाल ब्रह्मचारी, अत्यन्त विषय-विरक्त और वैराग्यपरायण थे। विद्यानिधि जी के दर्शन करके व उनकी दूध की झाग के समान बढ़िया सफेद और कोमल शैय्या, अत्यन्त मूल्यवान वस्रों में इत्र की गन्ध और हाथों में लम्बी नाल वाला हुक्का इत्यादि भोग विलास के द्रव्य देखकर गदाधर जी को उनमें कोई भी वैष्णवता का लक्षण न दिखाई दिया और उनको वैष्णव न समझ पाने के कारण हृदय में उनके प्रति अश्रद्धा हो गई। श्रीमुकुन्द दत्त को गदाधर पण्डित के सन्देहयुक्त विरूप मनोभावों का पता लग गया तो उनके भ्रम को दूर करने के लिये मुकुन्द दत्त जी ने कृष्णलीला-महिमा उद्दीपक निम्नलिखित दो श्लोक उच्चारण कर पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु को सुनाये—
अहो बकी यं स्तनकालकूटं जिघांसयापाययदप्य साध्वी।
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं कं वा दयालुं शरणं व्रजेम॥
(भा. 3/2/23)
पूतना लोकबालघ्नी राक्षसी रूधिराशना।
जिघांसयापि हरये स्तनं दत्त्वाप सद्गतिम्॥4
(भा. 10/6/35)
मुकुन्द दत्त के मुख से श्रीकृष्ण महिमात्मक श्लोकों को सुनते ही पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु ‘हा कृष्ण’ पुकारते हुये मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े और लोट-पोट होने लगे। पाँव की ठोकर से हुक्का व विलास की सामग्री छिन्न –भिन्न हो गई। पुण्डरीक विद्यानिधि जी के श्रीअंगों पर इस प्रकार के आलौकिक अष्टसात्तविक विकारों को देखकर गदाधर पण्डित अत्यन्त विस्मित अपने द्वारा किये गये अपराध के लिये अनुतप्त हो उठे। पुण्डरीक विद्यानिधि जी से दीक्षा ग्रहण करके उक्त अपराध से मुक्ति का उपाय जानकर गदाधर जी ने यह प्रस्ताव मुकुन्द के समक्ष रखा। श्रीमुकुन्द ने जब गदाधर पण्डित का अभिप्राय विद्यानिधि जी के समक्ष प्रकट किया तो विद्यानिधि प्रभु ने आनन्द के साथ दीक्षा प्रदान का शुभ दिन निर्दिष्ट कर दिया। श्रीमन्महाप्रभु जी द्वारा भी सम्मति प्रदान करने पर श्रीगदाधर पण्डित गोस्वामी जी ने पुण्डरीक विद्यानिधि जी से मन्त्र-दीक्षा ग्रहण की।
कृष्णलीला में पुण्डरीक विद्यानिधि वृषभानुराज और गदाधर पण्डित श्रीराधिका थीं। इसीलिये श्रीराधिका के पिता वृषभानुराज होने के कारण ही श्रीराधाभाव में विभावित महाप्रभु जी ने ‘पुण्डरीक रे’ ‘बाप रे’ पुकार कर क्रन्दन किया था।
श्रीकृष्ण के दोनों पार्षदों अर्थात् विद्यानिधि प्रभु और गदाधर पण्डित जी का दीक्षा के बाद फिर वही पहले की लीला वाला गाढ़ प्रीति पूर्व सम्बन्ध प्रदर्शित होने लगा। वैष्णव कब कौन सी लीला प्रकट करते हैं, इसे उनकी कृपा के बिना कोई भी समझने में समर्थ नहीं है।
वैष्णव चिनिते नारे देवेर शकति।
मुइ कोन छार शिशु अल्पमति॥
[अर्थात् वैष्णव की पहचान करने की शक्ति देवताओं में भी नहीं है। फिर मैं मूर्ख, शिशु तथा अल्प बुद्धि वाला व्यक्ति उनकी क्या पहचान करूँगा।]
पुण्डरीक विद्यानिधि जी परम वैष्णव होने पर भी अपनी वैष्णवता को छिपा कर विषयी भोगी के समान रहते थे। सांसारिक ज्ञान से अथवा अपनी चेष्टा से भगवान् को व वैष्णवों को पहचाना नहीं जा सकता।
श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर जी ने श्रीचैतन्य भागवत के गौड़ीय भाष्य में इस प्रकार लिखा है: –
कृष्ण की लीला के विषय सांसारिक ज्ञान से समझ में आने वाले नहीं हैं। किसी-किसी समय भक्त भी विषयी लोगों का सा आचरण करते हुए जगत् के जीवो की वन्चना करते हैं।
साधारण भोग दृष्टि वाले मूढ़ विचारक कृष्ण को दुनियावी असत् नायक समझकर उनके प्रति श्रद्धाहीन हो बैठते हैं तथा कोई-कोई उन्हें जन्मने-मरने वाला ऐतिहासिक पुरुष समझकर उनके वास्तविक स्वरूप से अपरिचित रहते हैं। कई बार तो कृष्ण के भक्त भी अयोग्य व्यक्तियों के आगे अपने वास्तविक स्वरूप को प्रदर्शित करने में संकोच कर विषयी व्यक्तियों जैसा अभिनय करते हैं।
जो बाहर का वेश देखकर भ्रमित हो जाते हैं उनके लिये प्रच्छन्न गौरवतार में श्रीपुण्डरीक विद्यानिधि जी ने अपने आपको विषयियों के आसन पर आसीन किया था।
एक दिन पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु, महाप्रभु जी के दर्शनों की उत्कण्ठा से घोर रात्रि में महाप्रभु जी के पास पहुँचे और महाप्रभु के दर्शन करने मात्र से प्रेमविह्वल होकर मूर्च्छित से हो गये, यहाँ तक कि वे उनको दण्डवत् प्रणाम भी नहीं कर सके। महाप्रभुजी भी अपने प्रियतम् भक्त विद्यानिधि प्रभु के दर्शनों के लिये व्याकुल थे। सो, उन्होंने भी उसी समय विद्यानिधि को अपने वक्षस्थल से लगाकर उनके कलेवर को प्रेमाश्रुओं से अभिषिक्त कर दिया। महाप्रभु जी द्वारा पुण्डरीक, बाप, प्रेमनिधि इत्यादि शब्दों द्वारा बुलाने एवं क्रन्दन करने से भक्त समझ गये कि विद्यानिधि जी महाप्रभु जी के प्रियतम है। विद्यानिधि प्रभु भक्तों में आचार्यनिधि के नाम से प्रसिद्ध थे—
‘पुण्डरीक बाप’ बलि कान्देन ईश्वर।
बाप देखिलाम आजि नयन गोचर॥
निद्रा हैते आजि उठिलाम शुभक्षणे।
देखिलाम ‘प्रेमनिधि’ साक्षात् नयने॥
(चै.भा.म. 7 /131,143)
[महाप्रभु जी पुण्डरीक बाप कहकर रोने लगे और साथ ही कहने लगे कि आज हीं मैंने अपने नयनों से अपने पिता जी को देखा। आज मैं शुभ घड़ी में निद्रा से उठा तभी तो अपने प्रेमनिधि को साक्षात् इन नयनों से देखा।]
श्रीमन्महाप्रभु जी ने जिस समय अपने पार्षदों के साथ श्रीवास आंगन में संकीर्तन विलास किया था उस समय उनके पार्षदों में पुण्डरीक विद्यानिधि भी थे।
महाप्रभु जी के आदेश से प्रत्येक घर में जाकर कृष्ण नाम वितरण के द्वारा जीवो का उद्धार करते समय श्रीमन्नित्यानन्द प्रभु और हरिदास ठाकुर ने जगाई-मधाई का उद्धार किया था। जगाई-मधाई के उद्धार के पश्चात् महाप्रभु द्वारा जगाई-मधाई को लेकर भक्तों के बीच बैठने पर जगाई-मधाई में बहुत से प्रेम विकार प्रकटित हुये थे। उस समय वहाँ पर उपस्थित पुण्डरीक विद्यानिधि उन्हें देखकर प्रेम में विभोर हो उठे थे। श्रीमन्महाप्रभुजी की आज्ञा के अनुसार श्रीजगन्नाथ जी की रथ यात्रा के दर्शनों के लिये श्रीअद्वैताचार्य जी के साथ गौड़देश के भक्त चातुर्मास के समय प्रतिवर्ष नीलाचल जाते थे। नीलाचल की ओर यात्रा करने वाले गौरंग महाप्रभु जी के पार्षदों में से एक मुख्य पार्षद थे—पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु—
अद्वैत, नित्यानन्द, मुकुन्द, श्रीवास।
विद्यानिधि, वासुदेव, मुरारि-यत दास॥
प्रतिवर्षे आइसे संगे, रहे चारिमास।
ताँ-सभा लैञा प्रभुर विविध विलास॥
(चै.च.म. 1/255-256)
(अर्थात श्रीअद्वैताचार्य, श्रीनित्यानन्द, श्रीमुकुन्द, श्रीवास, श्रीपुण्डरीक विद्यानिधि, श्रीवासुदेव, श्रीमुरारी तथा अन्य अनेक भक्त प्रतिवर्ष इकट्ठे होकर आते और पुरी धाम में चार महीने रहते। इन सब को साथ लेकर महाप्रभु जी अनेक प्रकार की लीलायें करते थे।)
पुरुषोत्तम धाम में श्रीजगन्नाथ देव जी की चन्दन यात्रा के समय श्रीनरेन्द्र सरोवर व चन्दन सरोवर के जल में श्रीमन्महाप्रभु जी की भक्तों के साथ जो जलक्रीड़ा की लीला होती थी उसमें पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु भी साथ रहते थे। स्वरूप दामोदर जी के साथ अति गाढ़ सख्य भाव होने के कारण सरोवर में एक दूसरे के ऊपर जल फैंक कर दोनों आनन्दित होते थे।
दुइ सखा –विद्यानिधि, स्वरुपदामोदर।
हासिया आनन्दे जल देन परस्पर॥
(चै. भा.अ. 8/124)
[दोनों मित्र अर्थात् विद्यानिधि तथा स्वरूप दामोदर हँसते हुए आनन्द के साथ एक दूसरे के ऊपर जल फैंकते थे।]
पुरी में श्रीगुण्डिचा मार्जन लीला में भी पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु ने श्रीमन्महाप्रभु जी के साथ गुण्डिचा मन्दिर मार्जन सेवा एवं भक्तों के साथ महाप्रसाद सेवन किया था।
एक दिन श्रीगदाधर पण्डित गोस्वामी जी ने श्रीमन्महाप्रभु से पुनः दीक्षा ग्रहण का प्रस्ताव रखते हुए कहा—
इष्टमन्त्र आमि ये कहिलुँ कारो प्रति।
सेइ हैते आमार ना स्फुरे भाल मति॥
सेइ मन्त्र तुमि मोरे कह पुनर्वार।
तबे मन-प्रसन्नता हइबे आमार॥
(चै. भा. अ. 10/23-24)
[अर्थात् अपना जो ईष्ट मन्त्र मैंने किसी को सुना दिया, उसी कारण से मेरी मन्त्र स्फूर्ति ठीक प्रकार से नहीं हो रही है अतः वही मन्त्र आप मुझे फिर से सुनाओ जिससे मेरा मन प्रसन्न हो जाये।]
श्रीगदाधर पण्डित गोस्वामी जी की इस बात को सुनकर श्रीमन्महाप्रभु जी ने कहा—
प्रभु बोले,-तोमार ये उपदेष्टा आछे।
सावधान-तथा अपराधी हओ पाछे॥
मन्त्रेर कि दाय, प्राणो आमार तोमार।
उपदेष्टा थाकिते ना हय व्यवहार॥
(चै. भा. अ. 10/25-26)
[प्रभु बोले—आपके गुरु तो है। सावधान, ऐसा करने से फिर तो मुझे अपराधी होना पड़ेगा। मन्त्र की क्या बात, मेरे प्राण भी तुम्हारे ही हैं परन्तु तुम्हारे उपदेष्टा रहते हुये ऐसा व्यवहार ठीक नहीं है।]
यह सुनकर गदाधर जी ने कहा—
तिँहो न आछने एथा। ता’ न परिवर्त्ते तुमि कराह सर्वदा।
(अर्थात् वे तो यहाँ है नहीं इसलिये उनके बदले सारा कार्य आप ही करो।)
इस पर महाप्रभु जी ने कहा—
तोमार ये गुरु विद्यानिधि।
अनायासे तोमारे मिलिया देवे विधि॥
(चै. भा. अ. 10/28)
(अर्थात्-महाप्रभु जी कहते हैं कि तुम्हारे जो गुरु विद्यानिधि जी है, विधि का विधान ही कुछ ऐसा होगा कि जल्दी ही तुम अपने गुरु जी से मिलोगे।)
सर्वज्ञ चूड़ामणि महाप्रभु सब जानते हैं। अतः उन्होंने कहा कि दस दिन के भीतर ही विद्यानिधि जी मुझे मिलने यहाँ (उत्कल में) आयेंगे और ऐसा ही हुआ। विद्यानिधि जी बिना सूचना के ही वहाँ आ गये। उनके आते ही महाप्रभुजी बाप आ गया, बोलते-बोलते प्रेमानन्द में विह्वल हो गये। इधर श्रीगदाधर पण्डित गोस्वामी जी ने भी उनसे पुनः इष्ट मन्त्र श्रवण किया—
गदाधर देवो इष्टमन्त्र पुनर्वार।
प्रेमनिधिस्थाने प्रेमे कैलेन स्वीकार।
आर कि कहिब प्रेमनिधिर महिमा।
याँ’र शिष्य गदाधर एइ प्रेम सीमा
(चै. भा. अ. 10 /79 -80)
परमाराध्य प्रभुपाद जी ने चै.भा.अ. 10/24 संख्यक पयार की विवृति में लिखा है कि भोगमयी चिन्ता को छोड़ने के लिये जिस शब्द-ब्रह्म की प्राप्ति होती है, वह ही मन्त्र है। अश्रद्धालु व्यक्ति को ऐसे मन्त्र का उपदेश करने से उपदेशक के हृदय में मलिनता प्रवेश करती है। संगदोष से दिव्य ज्ञान नष्ट होने पर दिव्य ज्ञान को पुनः लेना आवश्यक है, इसी उद्देश्य से श्रीगदाधर पण्डित गोस्वामी जी ने श्रीगौर सुन्दर जी से उनको पुनः दीक्षा देने का अनुरोध किया था। किन्तु महाप्रभु जी ने उनको पूर्व गुरु (विद्यानिधि) से ही पुनः मन्त्रोपदेश सुनने को कहा।
यहाँ पर शिक्षणीय विषय यह है कि श्रीगदाधर पण्डित गोस्वामी श्रीमन्महाप्रभु जी के नित्यसिद्ध पार्षद हैं। उनमें किसी साधक की तरह अनर्थ के उत्पन्न होने की सम्भावना नहीं हो सकती। उनको केवल निमित्त बनकर महाप्रभु जी ने शिक्षा दी कि अपात्र को मन्त्र का उपदेश करने से मन्त्र की ताकत क्षय होती है और मन्त्र, साधक के ह्रदय में पहले की तरह आनन्द के साथ स्फुरित नहीं होता। ऐसी अवस्था में दीक्षा गुरु से फिर वही मन्त्र दुबारा सुनने पड़ते हैं, अन्य किसी से श्रवण करना विधि सम्मत नहीं है। कारण, सद्गुरु कभी भी परिवर्तनीय नहीं है और जहाँ तक बात रही गदाधर जी के यह कहने की कि मुझे मन्त्र ठीक से स्फूरित नहीं हो पा रहे हैं—ये दीनता की बात केवल मात्र लोकशिक्षा के लिये ही है।
उड़न षष्ठी यात्रा5 के उपलक्ष्य में जगन्नाथ जी के सेवकों द्वारा जगन्नाथ-बलराम जी को माँडयुक्त (मावे वाले) वस्र पहनाया देख, पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु, जो कि शुद्ध सदाचारी वैष्णव थे, को बिल्कुल अच्छा न लगा। जगन्नाथ देव के सेवकों का इस प्रकार आचरण अच्छा न लगने पर उन्होंने अपने सखा स्वरूप दामोदर से कहा—
मण्डुया वसन ईश्वरे रे देन केने॥
ए देशे त’ श्रुति स्मृति-सकल प्रचुरे।
तबे केने बिना धौते मण्डवस्र परे?
(चै. भा. अ. 10/104)
(अर्थात्-ये लोग माँडयुक्त वस्र जगन्नाथ जी को क्यों पहनाते हैं? अरे, यहाँ तो श्रुति स्मृति की मान्यता है, फिर श्रुति स्मृति को मानते हुये भी ये क्यों माँड वाले कपड़े पहनाते हैं?)
इसके उत्तर में स्वरूप दामोदर जी बोले कि ईश्वर का आचरण लौकिक स्मृति के शासन से अतीत और दोष रहित है। उक्त विचार विद्यानिधि प्रभु के ह्रदय को प्रसन्न करने वाला न होने के कारण वे प्रत्युत्तर में बोले- भगवान के सम्बन्ध में यह ठीक होने पर भी भगवद्-दासों के लिए शुद्धाचार से रहना ही संगत है। श्रीविग्रह निर्गुण होने के कारण वहाँ पर यह विचार ठीक हो सकते है किन्तु सेवक तो निर्गुण ब्रह्म नहीं है, उन्हें तो गुण दोष का विचार करना आवश्यक है। विद्यानिधि प्रभु यद्यपी भगवान् के परम भक्त है परन्तु परमभक्त होने पर भी महाप्रभु जी ने अपने प्रियजन के माध्यम् से जगद्वासियों को यह शिक्षा दी कि जगन्नाथ जी के भक्तों के आचरण में दोष दर्शन करना ठीक नहीं है। अतः रात्रि को स्वप्न में भगवान् जगन्नाथ व बलराम जी विद्यानिधि के निकट उपस्थित हुये। स्वप्न में जगन्नाथ जी की क्रोधमूर्ति को देखकर विद्यानिधि भयभीत हो गये। उन्होंने स्वप्न में देखा की जगन्नाथ और बलराम जी दोनों ही उनकी दोनों गालों पर थप्पड़ मार रहे हैं। विद्यानिधि प्रभु द्वारा भयभीत और आर्त स्वर से कृष्ण, रक्षा करो, रक्षा करो, अपराध क्षमा करो, चिल्लाने और क्रन्दन करने पर जगन्नाथ जी ने कहा—
तोर अपराधेर अन्त नाञि।
मोर जाति मोर सेवकेर जाति नाञि।
सकल जानिला तुमि रहि’ एइ ठाञि॥
तबे केन रहियाछे, जाति नाशा-स्थाने।
जाति राखि’ चल तुमि आपन-भवने॥
(चै. भा. अ. 10/131-133)
[अर्थात् जगन्नाथ जी पुण्डरीक विद्यानिधि जी को कहते हैं कि तेरे अपराधों का अन्त नहीं है। मेरी और मेरे सेवकों की जाति नहीं होती। यहाँ रहकर जब तुम्हें सब पता चल गया है तो तब इस जाति नाश के स्थान पर क्यों रहते हो, अपने घर जाओ और अपनी जाति को बचाओ।]
विद्यानिधि प्रभु प्रताः स्वप्न टूटने पर जब उठे तो उनके गालों पर थप्पड़ों के आघात के निशान थे और उनकी गालें फूली हुई थी। विद्यानिधि जी की गालें फूली हुई देखकर भक्त हँसने लगे। विद्यानिधि जी जगन्नाथ जी के कितने प्रिय है, यह घटना ही इसका साक्षात् प्रमाण है कि भगवान् ने स्वयं आकर उन्हें थप्पड़ मारे। आराध्य देव अत्याधिक स्नेहावश ही प्रियजनों पर शासन करते हैं: –
सेइ रात्र्ये जगन्नाथ-बलाइ आसिया।
दुइ भाइ चड़ान ताँरे हासिया हालिया॥
गाल फुलिल आचार्य अन्तरे उल्लास।
विस्तारि’ वर्णियाछेन वृन्दावन दास॥
(चै. च. अ. 16/80 -81)
[उसी रात को जगरनाथ तथा बलराम दोनों भाई आकर हँसते-हँसते पुण्डरीक विद्यानिधि के गालों पर थप्पड़ मारने लगे। यद्यपी गाल फूले हुए थे, तब भी पुण्डरीक जी के हृदय में उल्लास था। श्रीवृन्दावन दास जी ने इस घटना का विस्तृत रूप से वर्णन किया है।]
ए भक्तेर नाम लैञा गौरांग ईश्वर।
‘पुण्डरीक बाप’ बलि’ कान्देन विस्तर॥
पुण्डरीकविद्यानिधि चरित्र शुनिले।
अवश्य ताँहारे कृष्णपादपद्म मिले॥
(चै. भा. अ. 10/180-181)
[श्रीगौरांग महाप्रभु इस भक्त का नाम अर्थात् ‘पुण्डरीक बाप’ पुकार कर बहुत रोते थे। पुण्डरीक विद्यानिधि का चरित्र श्रवण करने से अवश्य ही श्रीकृष्ण के चरणों की प्राप्ति होती है।] भक्ति रत्नाकर ग्रन्थ में इस प्रकार उल्लिखित हुआ है कि श्रीमन्महाप्रभु जी ने श्रीराधिका जी का जन्मोत्सव <पुण्डरीक विद्यानिधि जी के घर पर ही किया था।
(भक्ति रत्नाकर 12/3177)
श्रील वृन्दावन दास ठाकुर जी ने पुण्डरीक विद्यानिधि जी की महिमा कीर्तन करते हुये ही श्रीचैतन्य भागवत का उपसंहार किया हैं।
1 नवद्वीप में भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु जी का आविर्भाव हो गया है और वे विद्यानिधि को न देखकर विरह में लम्बे श्वास लेते हैं। एक दिन गौरांग प्रभु नृत्य करते-करते अचानक बैठ गये और रो-रो कर पुण्डरीक बाप पुकारने लगे। और हे पुण्डरीक, हे मेरे बन्धु! हे मेरे बाप रे ! मैं कब तुम्हारा दर्शन करूँगा? इस प्रकार कहने लगे।
2 पुण्डरीक विद्यानिधि की शाखा बड़ी समझनी चाहिये, जिन का नाम लेकर महाप्रभु रोते थे।
3 अहो क्या आश्चर्य है! बकासुर की बहन दुष्टा पूतना ने प्राणों के विनाश की इच्छा से प्रेरित होकर जिनको कालकूट मिश्रित स्तन पान कराने पर भी धात्रि (कृष्ण को अपने बालक की भान्ति दूध पिलाने वाली गोलोकवासिनी अम्बिका-किलिम्बिका की तरह) गति प्राप्त की थी, उन परम दयालु श्रीकृष्ण के बिना मैं और किसके शरणापन्न होऊँ?
4 खून पीने वाली व लोगों के बच्चों को मारने वाली राक्षसी पूतना ने श्रीकृष्ण को मारने की इछा से स्तन-पान करवाने पर भी गोलोक की गति प्राप्त की थी।
5 उड़न षष्ठी-शीतकाल के आगमन की प्रथम षष्ठी (छठी)तिथि को उड़न षष्ठी कहते हैं।इसी दिन श्रीजगन्नाथ देव जी के अंगों पर शीत के वस्र अर्पित किये जाते हैं। यह शीत वस्र माँडुया वसन अर्थात जुलाहे के माँडयुक्त(मावे वाले)बिना धोये वस्र होते हैं। देवता को मांड वाले वस्र देने के कारण पुण्डरीक विद्यानिधि ने थोड़ी त्रुटि दिखाकर उत्कल भक्तों के प्रति थोड़ी सी घृणा प्रकाशित की और उसका उपयुक्त फल भी प्राप्त किया।
-श्रील भक्तिविनोद ठाकुर
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