कलकत्ता बागबाजार स्थित श्रीगौड़ीय मठ प्रकाशित होने पर कलकत्ता निवासी श्रीयुक्त जगबन्धु दत्त महाशय कुछ दिनों से गौड़ीय मठ में आते रहे थे। प्रथम उन्होंने अभिज्ञ विषयी के दृष्टि से मठ के विभिन्न कार्य आदि का दर्शन करते थे। एक दिन श्रीपाद अनन्त वासुदेव प्रभु से कहा- जीवन में बहुत स्थानों पर वैष्णव का बहुत प्रकार की व्यभिचार एवं धर्म का व्यवसाय देखकर मैंने वैष्णव धर्म के प्रति सम्पूर्ण रूप से श्रद्धा खो बैठा था। गौड़ीय मठ भी उसी प्रकार है कि नहीं वह सठीक रूप से देखने के लिए मठ में तीन साल तक मैं आता था। किन्तु गौड़ीय मठ के भक्तों के आचार-विचार, निष्ठा, एकान्त गुरु भक्ति, निर्मल चरित्र, हरिकथा प्रचार में अदम्य उत्साह एवं प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा विशेष रूप से लक्षय किया। अब मेरी समझ में आया कि गौड़ीय मठ के आचार्य का चरणाश्रय न करने से असंख्य साधारण भ्रम में पतित एवं धर्म के विपरीत विचार से अभिभूत जीव का परम मंगल प्राप्त करने का कोई भी उपाय नहीं है। आप सब वास्तविक रूप में आचारवान, आदर्शवान, श्रीभगवद चरण में उत्सर्गीकृत निष्कपट भजनशील शुद्ध वैष्णव हैं।
उसके बाद शीघ्र ही श्रीजगबन्धु दत्त महाशय ने काय-मन-वाक्य से सम्पूर्ण शरणागति के द्वारा श्रील प्रभुपाद के चरणों का आश्रय लेकर हरिनाम एवं दीक्षा ग्रहण की एवं धीरे-धीरे श्रील प्रभुपाद के प्रचार के वैशिष्टय को विशेष रूप से समझ पाये। उन्होंने श्रील गुरुदेव की चरण सेवा में आत्म समर्पण कर प्राणैरर्थैर्धियाबाचा इस शास्त्र वाणी के अनुसार समस्त श्रम, चेष्टा, बुद्धि एवं बहुत अर्थ व्यय करके कलकत्ता बागबाजार स्थित गंगा के किनारे गौड़ीय मठ के श्रीमन्दिर एवं सेवक खण्ड और नाट्य मन्दिर का निर्माण करके श्रील प्रभुपाद एवं समस्त गुरुभ्राता वैष्णवों के परम श्रद्धा के पात्र हुये। उनकी गुरु-वैष्णव-भगवान् की सेवा में विशेष रूप से अनुराग एवं प्रीति देख अत्यन्त सन्तुष्ट होकर विश्व वैष्णव राज सभा में श्रील प्रभुपाद भक्तिरंजन उपाधि से उनको विभूषित किये। उन्होंने विश्ववैष्णव राजसभा एवं श्रील प्रभुपाद के मनोभीष्ट प्रचार के एक प्रधान स्तम्भ के रूप में सबके श्रद्धाभाजन हुये।
१३३२ बंगाब्द १० कार्तिक श्रीमद् भक्तिरंजन प्रभु के विशेष आग्रह और अत्यन्त भक्ति पूर्वक विनीत निवेदन से श्रीमद् कुंजबिहारी विद्याभूषण प्रभु,श्रीमद् सुन्दरानन्द विद्याविनोद प्रभु,श्रीमद् अनन्त वासुदेव प्रभु,श्रीमद्भक्तिविवेक भारती महाराज एवं अन्यान्य के साथ श्रील प्रभुपाद ने उनके वास भवन में शुभागमन किया। श्रीलप्रभुपाद के आने पर श्रीमद्भक्ति रंजन प्रभु ने परम आनन्दित होकर एक विशेष भागवत सभा का आयोजन किया। उनके भवन में श्रील प्रभुपाद ने श्रीचैतन्य की दया के सम्बन्ध में हरिकथा कीर्तन प्रसंग के द्वारा श्रीमन्महाप्रभु के गृहस्थ लीला एवं संन्यास लीलाभिनय की तात्पर्य व्याख्या की।