गौर गणोद्देश दीपिका के 195-वें श्लोक में इस प्रकार वर्णन है कि श्रीकृष्ण लीला में जो विलास मंजरी हैं, वे ही गौर लीला की उपशाखा रूप से श्रील जीव गोस्वामी रूप से आविर्भूत हुई हैं। इसी ग्रन्थ के 203-वें श्लोक में लिखा है —
“सुशील: पण्डित: श्रीमान् जीव: श्रीबल्लभात्मज:।”
श्रीगौड़ीय वैष्णव अभिधानानुसार श्रीजीव गोस्वामी जी 1433 से 1518 शकाब्द तक 85 वर्ष इस जगत् में प्रकट रहे। लेकिन कोई-कोई इनका प्रकटकाल 1455 से 1540 शकाब्द तक बताते हैं। श्रील जीव गोस्वामी रामकेलि ग्राम (मालदह) में आविर्भूत हुए थे। इनके प्रकट के समय इनके पिता अनुपम मल्लिक किसी राज-कार्य से विदेश गए हुए थे। यद्यपि श्रीनरहरि चक्रवर्ती ठाकुर (घनश्याम दास) जी द्वारा रचित ‘श्रीभक्ति रत्नाकर’ ग्रन्थ (1/540-568) में श्रील जीव गोस्वामी जी की सात पीढ़ियों का परिचय जाना जा सकता है तथापि इनकी माता के सम्बन्ध में किसी भी ग्रन्थ में उल्लेख नहीं मिलता। श्रील भक्ति सिद्धान्त ठाकुर जी ने ‘श्रीचैतन्य-चरितामृत’ ग्रन्थ के अनुभाष्य लिखते समय इनके वंश-परिचय के सम्बन्ध में जो लिखा है वह श्रीरूप गोस्वामी जी के चरित्र में वर्णित है। वैसे जीव गोस्वामी के पिता का नाम श्री बल्लभ था लेकिन महाप्रभु जी ने उनको नाम दिया था ‘अनुपम’। श्रीअनुपम मल्लिक का नाम था — श्रीबल्लभ। ये श्रीरूप गोस्वामी जी के छोटे भाई थे व परम वैष्णव थे। श्रीमन् महाप्रभु जी जब रामकेलि ग्राम गए थे, उसी समय इनकी महाप्रभु जी से प्रथम भेंट हुई थी ।
श्रीमन्महाप्रभु जी की इच्छा से जब रूप गोस्वामी जी और सनातन गोस्वामी जी ने समस्त विषयों के धन्धे छोड़-छाड़कर करुणामय श्रीमन् चैतन्य महाप्रभु जी से मिलने के लिए वृन्दावनकी ओर प्रस्थान किया था, उसी समय से ही जीव गोस्वामी जी के हृदय में भी तीव्र वैराग्य उत्पन्न हो गया था। इनके वैराग्य के सम्बन्ध में भक्ति रत्नाकर ग्रन्थ में इस प्रकार लिखा है —
“ये हइते गोस्वामी गेलेन वृन्दावने ।
सेइ हइते श्रीजीवेर किवा हैल मने ॥
नाना रत्नभूषा परिधेय सूक्ष्मवास ।
अपूर्व शयन शय्याभोजन विलास ॥
ए सब छाड़िल किछु नाहि भाय चिते ।
राज्यादि विषय वार्ता ना पारे शुनिते ॥”
अर्थात् जब से रूप गोस्वामी जी तथा श्री सनातन गोस्वामी जी श्रीवृन्दावन गए तभी से श्रीजीव गोस्वामी जी के हृदय में भी न जाने क्या हो गया, सांसारिक सुख की कोई भी वस्तु इन्हें अच्छी न लगती। नाना रत्नों से जड़ित सुखमय सुन्दर वस्त्र, आरामदायक बिस्तर, नाना प्रकार की भोजन सामग्री इत्यादि, कुछ भी अच्छा न लगता और राज्य आदि की चर्चा तो इनसे बिल्कुल सुनी ही नहीं जाती थी।
श्रीभक्तिरत्नाकर में ही एक अन्य स्थान पर इस प्रकार लिखा है कि श्रीजीव गोस्वामी जी ने स्वप्न में संकीर्तन के मध्य नृत्य अवस्था में श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के दर्शन किए थे। श्रीमन् महाप्रभु जी को अपने भक्तों के साथ, अपने ही प्रेम (कृष्ण-प्रेम) में मस्त होकर नृत्य करते देख कर श्रीजीव गोस्वामी जी भी प्रेम में व्याकुल हो उठे थे। बस,फिर क्या था; श्रीजीव गोस्वामी जी ने एक आदमी को अपने साथ लिया और चल पड़े महाप्रभु जी के दर्शनों के लिए। कुछ दिनों बाद इन्होंने अपने संगी को भी फतेहाबाद से विदा कर दिया और प्रेम में उन्मत्त होकर अकेले ही श्रीवास-अंगन में पहुँच गए। वहाँ इन्हें नित्यानन्द प्रभु जी के दर्शन हुए व वहीं इन्होंने उनकी कृपा प्राप्त की तथा उसी समय श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु जी ने इन्हें तत्काल व्रज में जाने का निर्देश दिया —
नित्यानन्द प्रभु महावात्सल्य विह्वल ।
धरिल श्रीजीव-माथे चरणे-युगल ।।
श्रीजीवेर अनुग्रह सीमा प्रकाशिला ।
भूमि हैते तुलि’दृढ़आलिंगन कैला ।।
प्रभु प्रेमावेशे कहे—तोमार निमित्ते ।
आइलाम शीघ्र एथा खड़दह हैते ।।
ऐछे कत कहि श्रीजीवेर स्थिर कैला ।
श्रीवासादि भक्तेर अनुग्रह कराइला ।।
निकटे राखिया अति आनन्द हियाय ।
श्रीजीवे पश्चिम देशे करये विदाय ।।
प्रभु कहे—शीघ्र व्रजे करह प्रयाण ।
तोमार वंशे प्रभु दियाछेन सेइ स्थान ।।
(श्रीभक्ति रत्नाकर 1/765-769,772)
जब इन्होंने भक्त-वात्सल्य में विह्वल भक्तों के प्राण प्रिय श्रीनित्यानन्द प्रभु के दर्शन किए तो नित्यानन्द जी ने अपने पावन चरण-कमलों को इनके माथे पर रखा। श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु ने इन्हें उठाया और दृढ़ आलिंगन प्रदान करते हुए अतिशय कृपा की और कहा—“देखो मैं तुम्हारे लिए ही खड़दह से अतिशीघ्र यहाँ पहुँचा हूँ।” इस प्रकार की कई बातें कह कर नित्यानन्द प्रभु जी ने जीव गोस्वामी जी को सान्त्वना दी तथा श्रीवासादि भक्तों का भी आशीर्वाद दिलाया। अपने पास तुम्हें रखने से यद्यपि हृदय में आनन्द होता लेकिन अभी तुम्हें जाना होगा, ऐसा कहकर नित्यानन्द जी ने इन्हें पश्चिम देश (ब्रज) की ओर जाने के लिए विदा किया ………….. नित्यानन्द प्रभु जी कहते हैं –श्रीमन् महाप्रभु जी ने तुम्हारे वंश को ब्रज में स्थान दिया है। इसलिए तुम शीघ्र ही ब्रज के लिए रवाना होओ।
श्रीमन् महाप्रभु जी के साथ श्रीजीव गोस्वामी जी के साक्षात् मिलन की बात स्पष्ट रूप से नहीं देखी जाती। तब भी ‘श्रीभक्ति रत्नाकर ग्रन्थ’ में इनके मिलन के बारे में हल्का सा एक इशारा किया गया है कि जब श्रीमन् महाप्रभु जी इनके जन्म स्थान रामकेलि ग्राम में आए थे तब श्रीमन्महाप्रभु जी ने श्रीजीव गोस्वामी जी को अत्यन्त शिशु अवस्था में देखा था।
“श्रीजीव बालक काले बालकेर सने ।
श्रीकृष्ण सम्बन्ध बिना खेला नाहि जाने ॥
श्रीकृष्ण-बलराम मूर्ति निर्माण करिया ।
करितेन पूजा पुष्प चन्दनादि दिया ॥
विविध भूषण वस्त्रे शोभा अतिशय ।
अनिमेष नेत्रे देखि’ उल्लास हृदय ॥
कनक पुत्तलि-प्राय पड़ि क्षितितले ।
करिते प्रणाम सिक्त हैला नेत्रजले ॥
विविध मिष्ठान्न अति यत्ने भोग दिया ।
भुन्जितेन प्रसाद बालक-गणे लइया ॥”
(भक्ति रत्नाकर 1/719-723)
अर्थात् श्रीजीव गोस्वामी जीबाल्यकाल से ही बालकों के साथ खेल भी करते तो श्रीकृष्ण से सम्बन्धित खेल खेलते, इसके इलावा वे कुछ भी नहीं जानते थे।
श्रीजीव का बाल्यकाल से ही भगवद अनुराग देखा जाता है। ये बचपन में अपने साथी दोस्तों के साथ कृष्ण पूजा सम्बन्धित खेल छोड़कर और कोई खेल ही नहीं खेलते थे। स्वयं कृष्ण-बलराम जी की मूर्ति बना कर उनकी चन्दन,पुष्प इत्यादि से पूजा करते, उन्हें रत्न-जड़ित सुन्दर-सुन्दर वस्त्र, अलंकार पहनाते तथा अत्यन्त उल्लासपूर्ण हृदय से बिना पलक झपकाये दर्शन करते तथा जब साष्टांग प्रणाम करते तो इस प्रकार लगता मानो सोने की मूर्ति धूलि में पड़ी हो। इसके इलावा बहुत प्रकार की मिठाईयाँ कृष्ण-बलराम को भोग लगाते तथा सभी बालकों के साथ प्रेमानन्द में प्रसाद पाते।
श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु की कृपा से इन्होंने नवद्वीप धाम का दर्शन किया और नवद्वीप परिक्रमा करने के बाद ये काशी चले गए, जहाँ इन्होंने श्रीमधुसूदन वाचस्पति जी से सभी शास्त्रों का अध्ययन किया। इसके बाद वृन्दावन जाकर श्रीरूप गोस्वामी जी व सनातन गोस्वामी जी का चरणाश्रयग्रहण किया।
श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ‘प्रभुपाद’ जी श्रीजीव गोस्वामी जी के सम्बन्ध में लिखते हैं कि श्रीरूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी जी के अप्रकट के बाद श्रीजीव गोस्वामी जी को सोत्कल गौड़ मथुरा मण्डल के गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के सर्वश्रेष्ठ आचार्य पद पर अधिष्ठित (नियुक्त) किया गया। आचार्य पद पर रहते हुए ये सभी को गौरसुन्दर की प्रचारित शुद्ध-भक्ति की बात समझाते व सभी से हरि भजन कराते। बीच-बीच में आप श्रीब्रजधाम की परिक्रमा करते व मथुरा में श्रीविट्ठल देव जी के दर्शन करने को जाते। श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी जी ने इनके प्रकटकाल में ही ‘श्रीचैतन्य चरितामृत’ की रचना की थी। ‘श्रीचैतन्य चरितामृत’ की रचना के बाद ही श्रील जीव गोस्वामी पाद ने गौड़ देश से आए श्रीनिवास, नरोत्तम तथा दु:खी कृष्णदास को प्रचारक के उपयुक्त देख कर, इन तीनों को यथाक्रम आचार्य, ठाकुर तथा श्यामानन्दआदि नाम (उपाधियाँ) देकर स्वरचित व गोस्वामियों के ग्रन्थों के साथ नाम-प्रेम के प्रचार के लिए गौड़ देश में भेजा था। पहले ग्रन्थों की चोरी व बाद में उपलब्धि संवाद भी इन्हें मिला था। श्री जीव गोस्वामी जी ने श्रीनिवास आचार्य जी के शिष्य श्रील रामचन्द्र सेन को तथा उनके छोटे भाई गोविन्द जी को भी कविराज नाम प्रदान किया था। इनके प्रकट काल में ही श्रील जाह्नवा देवी (श्रीनित्यानन्द प्रभु की शक्ति) अपने भक्तों के साथ वृन्दावन में आई थीं। गौड़ देश से भक्त लोगों के आने पर श्रील जीव गोस्वामी ही उनके लिए प्रसाद सेवा व रहने की व्यवस्था करते थे ।
भक्ति रत्नाकर ग्रन्थ में जीव गोस्वामी जी के 25 ग्रन्थों का उल्लेख हुआ है —
1॰ हरिनामामृत व्याकरण
2॰ सूत्रमालिका
3॰धातु-संग्रह
4॰ कृष्णार्च्चन दीपिका
5॰गोपाल विरुदावली
6॰ रसामृत शेष
7॰श्रीमाधव-महोत्सव
8॰श्रीसंकल्प कल्पवृक्ष
9॰ भावार्थ सूचक चम्पू
10॰गोपाल तापनी टीका
11॰ब्रह्म संहिता की टीका
12॰रसामृत टीका
13॰ उज्ज्वल टीका
14॰ योग सार स्तव की टीका
15॰ अग्नि पुराणस्थ श्रीगायत्री भाष्य
16॰ श्रीराधिका कर पदस्थित चिन्ह
17॰ गोपाल चम्पू पूर्व व उतरविभाग
18॰ क्रम सन्दर्भ
19॰ तत्त्व सन्दर्भ
20॰ अग्नि पुराण के अन्तर्गत श्रीगायत्री भाष्य
21॰ भगवत् सन्दर्भ
22॰ परमात्म सन्दर्भ
23॰ कृष्ण सन्दर्भ
24॰ भक्ति सन्दर्भ
25॰ प्रीति सन्दर्भ।
श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद जी ने — अनभिज्ञ सहजिया सम्प्रदाय के लोग वैष्णव-अपराध जनित कार्य करके कहीं कृष्ण-प्रेम से वन्चित रह कर अमंगल को न वरण करें — इस विचार से उन्हें सावधान करने के लिए श्रीचैतन्य चरितामृत के अनुभाष्य में इस प्रकार लिखा है कि अनभिज्ञ प्राकृत सहजिया सम्प्रदाय में श्रीजीव गोस्वामी प्रभु के विरुद्ध तीन अपवाद प्रचलित हैं जिससे उनका निरन्तर हरि-गुरु वैष्णवों के चरणों में अपराध ही होता है —
1॰ दुनियावी सम्मान चाहने वाला एक दिग्विजयी पण्डित, निष्किंचन भक्त श्रीरूप गोस्वामी व सनातन गोस्वामी जी से जयपत्र लिखवाकर उनकी (गुरु वर्ग श्रीरूप-सनातन की) निन्दा करता हुआ श्री जीव गोस्वामी के पास आया और उन्हें भी जयपत्र लिखने के लिए कहने लगा। दिग्विजयी की बात सुन कर श्रीजीव प्रभु ने उस दिग्विजयी पण्डित को पराजित करके उनके गुरुदेव के सम्बन्ध में बकवास करने वाले की जिह्वा को चुप करवा दिया तथा ऐसा करके उन्होंने गुरुदेव की पद-नख शोभा की मर्यादा का प्रदर्शन करते हुए वास्तविक “गुरुदेवतात्मा” शिष्य के आदर्श का प्रदर्शन किया।
(श्रीरूप गोस्वामी जी तथा श्रीसनातन गोस्वामी जी ने उसे जयपत्र इसलिए दिया था कि उन्होंने सोचा कि कौन इसके साथ तर्क-वितर्क करके अपना कृष्ण-स्मरण का अमूल्य समय बर्बाद करेगा । लेकिन श्रीजीव गोस्वामी ने देखा कि मूर्ख लोग मेरे गुरुदेव के उच्च भाव को नहीं समझ पाएँगे एवं अमंगल का आवाहन करेंगे । इसलिए अपने गुरुदेव की मर्यादा रखने हेतु अपवादकारियों को पराजित कर श्रीजीव गोस्वामी जी ने गुरु-निष्ठ शिष्य का आदर्श स्थापित किया।) लेकिन इन सहजिया लोगों का कहना है कि श्रीरूप गोस्वामी जी ने श्रीजीव को तीव्र भर्त्सना देकर परित्याग कर दिया था तथा पुन: श्री सनातन गोस्वामी जी के इंगितानुसार श्रीजीव गोस्वामी प्रभु जी को श्रीरूप गोस्वामी जी ने ग्रहण किया।
ये गुरु-वैष्णव विरोधी लोग श्रीकृष्ण की कृपा से जिस दिन अपने आपको गुरु-वैष्णवों का नित्यदास समझेंगे, उसी दिन श्रीजीव गोस्वामी प्रभु की कृपा प्राप्त करे हुए वास्तविक ‘तृणादपि सुनीच’ एवं ‘मानद’ इत्यादि कीर्तन करने की योग्यता प्राप्त करके हरिनाम-संकीर्तन के अधिकारी होंगे।
2॰ उनमें से ही कोई-कोई अनभिज्ञ कहते हैं कि श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी द्वारा रचित “श्रीचैतन्य चरितामृत” नामक ग्रन्थ की अद्भुत महिमा व कविराज जी द्वारा चरितामृत का रचना सौष्ठव और अप्राकृत रस-माहात्म्यइत्यादि देखकर श्रीजीव गोस्वामी ईर्ष्या से जल उठे तथा कहीं उनकी प्रतिष्ठा कम न हो जाए, इसलिए उन्होंने कविराज जी द्वारा रचित श्रीचैतन्य चरितामृत नामक ग्रथ की मूल लिपि को एक कुएँ में फेंक दिया। श्रील कविराज गोस्वामी जी ने जब ये बात सुनी तो उन्होंने प्राण त्याग दिए। सौभाग्यवश उनके मुकुन्द नामक एक शिष्य ने उस ग्रन्थ को नकल करके अपने पास रखा था। इसलिए “श्रीचैतन्य चरितामृत” ग्रन्थ दोबारा प्रकाशित हुआ, अन्यथा श्रीचैतन्य चरितामृत जैसा अद्वितीय ग्रन्थ इस जगत् से लुप्त हो जाता।
इस प्रकार की घृणित व वैष्णव-विद्वेषमूलक कल्पना नितान्त झूठी और असम्भव है।
कोई-कोई इन्द्रिय तर्पण तत्पर व्यभिचारी कहते हैं कि श्रीजीव गोस्वामी प्रभु ने श्रीरूप गोस्वामी जी के मतानुयायी ब्रज गोपीगणों का ‘पारकीय रस’ स्वीकार नहीं किया। उन्होंने सिर्फ स्वकीय रस का ही अनुमोदन किया, इसलिए उनका आदर्श ग्रहणीय नहीं है।
3॰ श्रीजीव गोस्वामी जी ने अपने प्रकटकाल में देखा कि उनके कुछ अनुगत भक्त जिनका सर्वोत्तम ‘पारकीय रस’ में अधिकार नहीं है परन्तु वे स्वकीय रस में रुचि विशिष्ट हैं। ये भी वे जानते थे कि भविष्य में अनाधिकारी लोग परम-चमत्कारमय ‘पारकीय रस’ की महिमा व सौन्दर्य को समझ नहीं पाएँगे और स्वयं उस प्रकार का अनुष्ठान करके व्याभिचारी बनेंगे। इसलिए वैष्णव-आचार्य – श्रीजीव गोस्वामी जी ने अबोध लोगों के मंगल के लिए ही स्वकीयवाद को स्वीकार किया। परन्तु इसका मतलब ये नहीं कि वे पारकीय रस के विरोधी थे, क्योंकि श्रीजीव गोस्वामी प्रभु स्वयं श्रीरूपानुगवर – साक्षात् श्रील कविराज गोस्वामी जी के शिक्षा-गुरुओं में से एक थे।
श्रीभक्ति रत्नाकर ग्रन्थ की पंचम तरंग में श्रीजीव गोस्वामी के प्रति श्रीरूप गोस्वामी के शासन और कृपा का इस प्रकार वर्णन है –
गर्मियों का समय था, श्रीरूप गोस्वामी वृन्दावन में ही किसी एकान्त स्थान पर बैठकर ग्रन्थ लिख रहे थे। श्रीरूप गोस्वामी जी का शरीर पसीने से लथपथ देख श्रीजीव गोस्वामी उन्हें पंखे से हवा करने लगे। उसी समय श्रीवल्लभ भट्ट वहाँ पहुँच गए और कहने लगे – “मैं तुम्हारे भक्ति रसामृत ग्रन्थ के मंगलाचरण का संशोधन कर दूँगा” – ऐसा कह कर वे यमुना में स्नान करने चले गए । श्रीजीव गोस्वामी जी, वल्लभ भट्ट जी की इस प्रकार गर्वपूर्ण बात सहन न कर सके और पानी लेने के बहाने वे भी यमुना के किनारे पहुँच गए, जहाँ वल्लभ भट्ट जी पहले ही उपस्थित थे। मौका देखकर श्रीजीव गोस्वामी जी ने श्रीवल्लभ भट्ट जी को पूछा कि तुमने श्रीरूप गोस्वामी जी के लिखे ग्रन्थ भक्ति रसामृत के मंगलाचरण में गलती कहाँ देखी ?
श्रीजीव गोस्वामी के पूछने पर श्रीवल्लभ ने उन्हें गलती बताई लेकिन श्रीजीव ने उनके मत का, उनकी युक्तियों का ज़ोरदार खण्डन किया और रूप गोस्वामी जी की लिखी बातों को ही भलीभान्ति स्थापित कर दिखाया। श्रीवल्लभ-श्रीजीव गोस्वामी का अद्भुत पाण्डित्य देखकर आश्चर्यचकित रह गएएवं उन्होंने उत्सुकतावश सारी घटना श्रीरूप गोस्वामी प्रभु को सुनाई। घटना सुनकर श्रीरूप गोस्वामी जी ने जीव गोस्वामी जी को स्नेह से डाँटते हुए कहा कि तुम शीघ्र ही पूर्व देश चले जाओ। जब तुम्हारा चंचल मन स्थिर हो जाए, तब वृन्दावन आना।
श्रीरूप गोस्वामी जी के निर्देशानुसार श्रीजीव गोस्वामी जी नन्द घाट पर आकर अपने गुरु जी की कृपा प्राप्त करने के लिए कभी भूखे, कभी दिन में थोड़ा सा खाकर तीव्र भजन करते हुए रहने लगे। कुछ दिन में ही इनका शरीर अत्यन्त कमज़ोर हो गया। संयोगवश एक दिन श्रील सनातन गोस्वामी उसी राह से गुज़र रहे थे तो ब्रजवासियों ने उन्हें श्रीजीव गोस्वामी के सम्बन्ध में बताया एवं इनसे भेंट कराई। श्रीजीव की इस प्रकार अवस्था देख कर श्रीसनातन गोस्वामी जी की आँखों में वात्सल्य के आँसु भर आए और उन्होंने श्रीजीव को समझा-बुझाकर श्रीरूप गोस्वामी के चरणों में पहुँचा दिया। इस प्रकार श्रीजीव गोस्वामी जी ने रूप गोस्वामी जी का स्नेह और उनकी कृपा प्राप्त की ।
श्रील जीव गोस्वामी जी भाद्र शुक्ला-द्वादशी तिथि को अवलम्बन कर के आविर्भूत हुए थे तथा पौष मास की शुक्ल-तृतीया तिथि को आपने तिरोधान लीला की। श्री श्रीराधा दामोदर जी के विग्रह, जिनकी श्रीजीव गोस्वामी सेवा किया करते थे, आज भी वृन्दावन में श्रीराधा-दामोदर जी के मन्दिर में विराजमान हैं। मन्दिर के पीछे श्रील जीव गोस्वामी जी का समाधि-स्थान है। इसके इलावा श्रीराधा-कुण्ड के किनारे तथा श्रीललिता-कुण्ड के पास इनकी भजन कुटी आज भी विद्यमान है।