अनंग-मंजरी यासीत् साद्य गोपाल भट्टक:।
भट्ट गोस्वामिन: केचित आहु: श्रीगुण मंजरीम्॥
(गौर गणोद्येश दीपिका)
श्रीकृष्ण लीला के समय जो अनंग मंजरी हैं (कुछ लोगों के मतानुसार जो गुण मंजरी हैं) वे ही गौर लीला की पुष्टि के लिये श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी के रूप में अवतरित हुई हैं। श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी सम्वत् 1425 में (सन् 1503 ई॰ में) दक्षिण भारत के श्रीरंग क्षेत्र में, श्रीवैंकट भट्ट के पुत्र के रूप में आविर्भूत हुये थे। श्रीरंगम के निकट, कावेरी नदी के किनारे, वेलगुण्डीग्राम में उनका निवास था। श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी जी ने श्रीमन्महाप्रभु जी की कृपा से, स्वप्न में श्रीमन्महाप्रभु जी की सम्पूर्ण नवद्वीप लीला के दर्शन किये थे। इसका हमें भक्ति रत्नाकर के प्रथम तरंग में श्रीगोपाल भट्ट के चरित्रवर्णन से पता चलता है।
कृष्ण लीला के पार्षद होकर भी वे गौर लीला की पुष्टि के लिये, दूर दक्षिण भारत में आविर्भूत हुए। इतनी दूर प्रकट होकर भी, वे यह जान गये थे कि नन्दनन्दन श्रीकृष्ण ने, शचीनन्दन गौरहरि के रूप में अवतरित होकर, संन्यास ग्रहण कर लिया है। श्रीमन्महाप्रभु जी का संन्यासी वेष, गोपाल भट्ट जी को अच्छा नहीं लगा और वे बड़े खेद के साथ निर्जन में इसी चिन्तन में एकान्त में रोते रहते। उनके निर्जन स्थान में रोते रहने पर श्रीमन्महाप्रभु जी ने स्वप्न में उन्हें सम्पूर्ण नदिया लीला के दर्शन करवाये और प्रेम विभोर होकर उनको (गोपाल भट्ट को) गोदी में लेकर, आँसुओं से भिगो डाला –
एत कहि गोपालेर करि प्रभु कोले।
गोपालेर अंगसिक्त कैल नेत्र जले॥
कहिल ए सब कथा, राखिह गोपने।
हइल परमानन्द गोपालेर मने॥
(भक्तिरत्नाकर 1/123-24)
[अर्थात् इतना कहकर श्रीमन्महाप्रभु जी ने गोपाल भट्ट गोस्वामी जी को गोद में लिया और अपने नेत्रों के जल से गोपाल भट्ट गोस्वामी जी का शरीर सींच डाला और कहा कि यह सब किसी से मत कहना – ये सब देखकर व सुनकर गोपाल भट्ट जी परमानन्द में विभोर हो गये।]
शक संवत् 1433 में, श्रीमन्महाप्रभु जी के रंग क्षेत्र में शुभागमन के समय, रामानुजीय वैष्णव श्रीवैंकट भट्ट ने उनसे अपने घर में रहने के लिये प्रार्थना की। उनको एक निष्ठावान वैष्णव जानकर, श्रीमन्महाप्रभु जी ने भी उनका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। वास्तव में श्रीमन्महाप्रभु जी ने अपने पार्षद श्रीगोपाल भट्ट के आविर्भाव की बात जानकर ही तथा उनके सम्बन्ध से ही उनके सम्बन्धियों पर कृपा करने के लिये ही श्रीरंगम में शुभागमन की लीला की थी तथा साथ ही वैंकट भट्ट के घर में ठहरने की लीला भी की थी।
जिस समय श्रीमन्महाप्रभु जी ने श्रीवैंकट भट्ट के घर में निवास किया था, उस समय गोपाल भट्ट जी छोटी आयु के बालक थे। श्रीमन्महाप्रभु जी के चरण-कमलों की साक्षात सेवा का उन्हें सौभाग्य प्राप्त हुआ था। श्रीमन्महाप्रभु जी ने वैंकट भट्ट और उनके परिजनों की सेवा से सन्तुष्ट होने पर भी यह जान लिया था कि श्रीवैंकट भट्ट के मन में कुछ अभिमान है। वैंकट भट्ट के मनोगत भाव इस प्रकार थे –
श्रीनारायण ही सर्वोत्तम आराध्य हैं। श्रीनारायण अवतारी हैं और श्रीकृष्ण, राम और नरसिंह आदि उनके अवतार हैं क्योंकि नारायण का जन्म नहीं होता। नारायण अनादि (जन्म रहित) हैं, जबकि कृष्ण और राम आदि का जन्म होता है। इसलिये श्रीचैतन्य महाप्रभु जी नारायण के अवतार श्रीकृष्ण की आराधना करते हैं, जबकि वेस्वयं अवतारी श्रीनारायण की आराधना करते हैं। दर्पहारी भगवान मधुसूदन सबके दम्भ का नाश कर देते हैं। अत: श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने, श्रीवैंकट भट्ट जी का दर्प हरण करने के लिये, एक दिन मज़ाक-मज़ाक में ही उनसे कहा – “देखो भाई वैंकट! तुम्हारे आराध्य श्रीनारायण के समान ऐश्वर्य किसी अन्य का नहीं है। तुम्हारी आराध्या लक्ष्मी देवी के ऐश्वर्य की भी कोई तुलना नहीं है। इसके विप्रीत मेरे आराध्य श्रीकृष्ण का कोई ऐश्वर्य नहीं, वे तो जंगल के फूलों की माला और मोर का पंख आदि धारण किये रहते हैं। वे नन्द ग्वाले के पुत्र हैं, ग्वाल-बालकों के साथ जंगल में बछड़े चराते हैं। मेरी आराध्या गोपियों का भी कोई ऐश्वर्य नहीं है, वे तो दरिद्र ग्वालिनें हैं। आपसे मेरा यही प्रश्न है कि तुम्हारी आराध्या लक्ष्मी देवी ने श्रीकृष्ण के संग की लालसा से, कृष्ण की रास लीला में प्रवेश का अधिकार प्राप्त करने के लिए वृन्दावन (श्रीवन) में तपस्या क्यों की थी?”
वैंकट भट्ट जी ने साथ-साथ उसके उत्तर में कहा, “इसमें क्या दोष था, जो लक्ष्मीपति नारायण हैं, वे ही राधापति कृष्ण हैं –
सिद्धान्तस्त्व भेदेअपि श्रीश-कृष्ण-रूपयो:।
रसेनोत् कृष्यते कृष्णरूप मेषा रस स्थिति:।”
श्रीकृष्ण में अधिक रस होने के कारण ही लक्ष्मी देवी जी ने श्रीकृष्ण का संग प्राप्त करने की लालसा से तपस्या की थी।”
श्रीमन्महाप्रभु जी ने कहा, “मैं दोष की बात नहीं करता। श्रीकृष्ण और श्रीनारायण के तत्व में कोई भेद नहीं। एक ही तत्व में केवल रस का भेद है। माधुर्य लीला में जो श्रीकृष्ण हैं, ऐश्वर्यलीला में वे ही श्रीनारायण हैं। श्रीकृष्णलीला में जो श्रीराधिका हैं, वे ही श्रीनारायण लीला में लक्ष्मी जी हैं ।” इसलिये श्रीकृष्ण के संग की लालसा से तपस्या करने पर भी लक्ष्मी देवी जी के सतीत्व की हानि नहीं हुई। फिर भी श्रीकृष्ण संग की लालसा से उन्होंने वृन्दावन में तपस्या की थी।
आप से मेरा यह दूसरा प्रश्न है – “श्रीलक्ष्मी देवी जी ने तपस्या करने पर भी श्रीकृष्ण की रास लीला में प्रवेश का अधिकार क्यों नहीं पाया?”
वैंकट भट्ट इसका कोई उत्तर न दे पाये और उत्तर न दे सकने पर बहुत दु:खी हुये।
श्रीमन्महाप्रभु जी वैंकट भट्ट का दु:ख दूर करने के लिये तसल्ली देते हुये बोले- “अरे, तुमने खुद ही तो पहले कहा था कि सिद्धान्तत: श्रीलक्ष्मी पति नारायण और श्रीराधापति श्रीकृष्ण में कोई भेद नहीं है। तब भी श्रीकृष्ण में रसोत्कर्षता अधिक है। नारायण में ढाई रसों की अभिव्यक्ति है नन्दनन्दन श्रीकृष्ण में पाँच मुख्य तथा सात गौण रसों –अर्थात् बारह के बारह रसों की परिपूर्ण अभिव्यक्ति है। ऐश्वर्य लीलामय विग्रह श्रीमन्नारायण जी की लीला पुष्टि के लिये हैं, ऐश्वर्यमयी आश्रयविग्रह लक्ष्मी देवी। वे लक्ष्मी देवी जी ही आश्रय विग्रह पुष्टि के लिये श्रीमती राधिका जी हैं। श्रीराधिका जी और उनके विस्तार गोपियों (कृष्ण के आश्रय-विग्रह) के आनुगत्य के बिना विषय-विग्रह श्रीकृष्ण के माधुर्य का आस्वादन नहीं हो सकता। लक्ष्मी देवी जी ने गोपियों का आनुगत्य नहीं किया और ऐश्वर्य भाव लेकर तपस्या की, इसीलिये बार-बार उन्हें भगवान नारायण का ही संग मिला, श्रीकृष्ण संग प्राप्त न हो सका। इसके विपरीत श्रुतियों ने गोपियों का आनुगत्य करके, राग मार्ग से भगवान कृष्ण की सेवा प्राप्त की थी। ईश्वर बुद्धि होने तक रागानुग व्रज-भजन करना सम्भव नहीं है” –
प्रभु कहे कृष्णेर एक सजीव लक्षण।
स्वमाधुर्ये सर्वचित्त करे आकर्षण॥
व्रज लोकेर भावे पाइये तांहार चरण।
तांरे ईश्वर करि नाहि जाने व्रजजन॥
केह तांरे पुत्रज्ञाने उदूखले बान्धे।
केह सखाज्ञाने जिनि चड़े तांर कान्धे॥
व्रजेन्द्रनंदन बलि तांरे जाने व्रजजन।
ऐश्वर्य ज्ञाने नाहि कोन सम्बन्ध मानन॥
व्रजलोकेर भावे येइ करये भजन।
सेइ व्रजे पाय शुद्ध व्रजेन्द्र नन्दन॥
(चै.च.म. 9/127-131)
[अर्थात् महाप्रभु जी कहते हैं कि श्रीकृष्ण का एक सजीव लक्षण यह है कि वह अपने माधुर्य से सभी जीवों के चित्तों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। व्रजवासियों के भावानुसार श्रीकृष्ण के चरणों की प्राप्ति होती है। कारण, व्रजवासी श्रीकृष्ण को ईश्वर के रूप में नहीं मानते। कोई-कोई उनको पुत्र मानकर ऊखल से बान्धते हैं तो कोई उनको अपना सखा समझकर उनके कन्धे पर चढ़ते हैं। ऐश्वर्य ज्ञान से वे उनके साथ कोई सम्बन्ध नहीं जोड़ते। जो व्रजवासियों के भाव के अनुसार उनका भजन करेगा, वह ही व्रज में वास्तविक रूप से व्रजेन्द्रनन्दन को प्राप्त करेगा।]
रासलीला के दौरान,श्रीकृष्ण के अन्तर्ध्यान होने पर, मेरी आराध्या गोपियों ने व्याकुल भाव से श्रीकृष्ण के लिये विलाप किया था, जिस पर श्रीकृष्ण उनके सामने चतुर्भुज नारायण रूप में प्रकट हुये। गोपियाँ, नारायण का संग करने की बात तो अलग, वहाँ ठहरी भी नहीं, उनको प्रणाम करके चली गईं। किन्तु राधा रानी जी के वहाँ उपस्थित होने से श्रीकृष्ण की दो भुजाएँ उनके श्रीअंग में प्रविष्ट हो गयीं और वे चतुर्भुज से द्विभुज मुरलीधर के रूप में प्रकट हुये। उस स्थान को इसी कारण पौसधाम बोलते हैं। वह गोवर्धन के निकट है। नन्दनन्दन श्रीकृष्ण ही अवतारी हैं तथा नारायण, राम, नृसिंह आदि उनके अवतार हैं –
यांर भगवत्ता हइते अन्येर भगवत्ता।
स्वयं भगवान बलिते ताहातेइ सत्ता॥
“एते चांश कला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान स्वयं।
इन्द्रारि व्याकुलं लोकं मृड़यन्ति युगे युगे॥”
(भा. 1/3/28)
[ जिनकी भगवत्ता से दूसरों की भगवत्ता होती है, उनको ही स्वयं भगवान कहते हैं क्योंकि उनसे ही सबकी सत्ता है। ]
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जी की कृपा से और उनके संग के प्रभाव से श्रीवैंकट भट्ट, उनके भाई प्रबोधानन्द सरस्वती, वैंकट के पुत्र श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी तथा अन्य परिवार के सदस्य श्रीलक्ष्मीनारायण जी की उपासना छोड़कर सम्पूर्ण रूप से श्रीराधाकृष्ण जी की उपासना में लग गये और राधा कृष्ण जी के एकान्तिक भक्त हो गये।
श्रील गोपालभट्ट जी ने अपने चाचा त्रिदण्डि यति श्रीमद प्रबोधानन्द सरस्वती पाद जी से दीक्षा ग्रहण की थी। श्री हरि भक्ति विलास ग्रन्थ में इस विषय में प्रमाण मिलता है –
भक्ते विलासांश्चिनुते प्रबोधानन्दस्य शिष्यो भगवत प्रियस्य।
गोपाल भट्टो रघुनाथ दासं संतोषयन रूप-सनातनौ च॥
गोपालेर माता-पिता महाभाग्यवान।
श्रीचैतन्य पदे ये संपिल मन: प्राण॥
वृन्दावने याइते पुत्रे आज्ञा दिया।
दुंहे संगोपन हइला प्रभु संगरिया॥
कत दिने गोपाल गेलेन वृन्दावन।
रूप-सनातन संगे हइले मिलन॥
(भक्ति रत्नाकर प्रथम तरंग)
[ श्रीगोपाल भट्ट जी के माता-पिता महाभाग्यवान हैं जिन्होंने श्रीचैतन्य जी के चरणों में अपने मन तथा प्राण समर्पित कर दिये हैं। यही नहीं, उन्होंने अपने पुत्र को वृन्दावन जाने की भी आज्ञा दी। जब गोपाल भट्ट जी के माता-पिता महाप्रभु जी का चिन्तन करते हुये अप्रकट हो गये उसके कुछ दिनों बाद ही वे वृन्दावन चले गये, जहाँ जाकर वे श्रीरूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी जी से मिले। ]
श्रीरूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी जी द्वारा, श्रीमन्महाप्रभु जी को नीलाचल धाम में, श्रीगोपाल भट्ट जी के वृन्दावन पहुँचने का समाचार पत्र द्वारा भेजने पर, श्रीमन्महाप्रभु जी ने उस पत्र के उत्तर में परमानन्द व्यक्त किया और रूप सनातन को, श्रीगोपाल भट्ट जी से अपने भाई की भान्ति प्रेम करने के लिये लिखा। श्रीसनातन गोस्वामी जी ने श्रीगोपाल भट्ट जी के नाम से “हरि भक्ति विलास” नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया। श्रीरूप गोस्वामी जी ने भी श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी जी को अपने प्राणों के समान प्रिय मानकर उन्हें श्रीराधारमण जी की सेवा में नियुक्त कर दिया और इस प्रकार श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी जी, छ: गोस्वामियों में से एक बन गये। श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी जी अपने को बहुत ही दीन हीन मानते थे। उन्होंने श्रील कविराज गोस्वामी जी को श्रीचैतन्य चरितामृत में अपने विषय में लिखने के लिये मना किया था। इसी कारण कविराज गोस्वामीजी ने उनकी आज्ञा का उल्लंघन न करते हुए, केवल उनके नाम का ही उल्लेख किया है। श्रील जीव गोस्वामी ने भी षड़ सन्दर्भ में यह उल्लेख किया है कि गोपाल भट्ट गोस्वामी जी द्वारा लिखे ग्रन्थों की सहायता से ही उन्होंने ‘षड़-सन्दर्भ’ लिखा है। गोपाल भट्ट गोस्वामी जी “सत्क्रिया सारदीपिका” नामक ग्रन्थ के रचयिता, तथा ‘हरिभक्ति विलास’ नामक ग्रन्थ के सम्पादक और षड़-सन्दर्भों के पूर्व लेखक हैं। इन्होंने बिल्वमंगल के श्रीकृष्ण कर्णामृत नामक ग्रन्थ की टिप्पणी लिखकर वैष्णवों के आनन्द को बढ़ाया है। श्रीनिवास आचार्य जी और श्रीगोपीनाथ पुजारी इनके शिष्य थे। श्रीगोपी नाथ पुजारी के श्रीगोपाल भट्ट जी के शिष्य होने के सम्बन्ध में भी एक वृत्तान्त सुनने में आता है –
“हरिद्वार के नज़दीकी शहर सहारनपुर में श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी जी के पधारने पर एक सरल भक्तिमान ब्राह्मण ने निष्कपट भाव से गोपाल भट्ट गोस्वामी जी के चरणों की बहुत सेवा की। वे ब्राह्मण पुत्रहीन थे। श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी जी ने उनके हृदय के भावों को जानकर, हरिभक्ति परायण पुत्र प्राप्त होने के लिये उनको आशीर्वाद दिया। ब्राह्मण ने तब यह वादा किया कि वे अपने पहले पुत्र को श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी की सेवा में समर्पित कर देंगे। उस ब्राह्मण को श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी जी की कृपा से सुन्दर पुत्र की प्राप्ति हुई। उस ब्राह्मण के वह पुत्र ही श्रीगोपीनाथ पुजारी थे।”
कहा जाता है कि श्रीमन्महाप्रभु जी ने, श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी जी के प्रति स्नेह से भरकर उनको अपनी डोर, कौपीन और काली लकड़ी का आसन भेजा था। वृन्दावन में श्रीराधारमण मन्दिर में महाप्रभु जी के उस डोर, कौपीन और आसान की आज भी पूजा होती है।
श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी जी जब उत्तर भारत में तीर्थ भ्रमण पर थे, तब उन्हें गण्डकी नदी के तट पर एक शालग्राम शिला मिली और वे हमेशा उस शिला की व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण के रूप में पूजा करते थे। श्रीविग्रह के बायीं ओर श्रीमती राधा जी के प्रतिभू के रूप में एक चाँदी का मुकुट रखा है।
यह भी कहा जाता है कि श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी जी बारह शालग्रामों की सेवा प्रतिदिन करते थे। एक बार उनके मन में यह इच्छा हुई कि यदि श्रीशालग्राम श्रीविग्रह के रूप में प्रकट होते तो वे और अच्छी प्रकार उनकी सेवा कर सकते थे। अंतर्यामी भगवान ने उनके हृदय के भावों को जानकर, एक सेठ के माध्यम से अनेक उपकरण और वस्त्र अलंकार उनके पास भिजवाये। श्रीगोपाल भट्ट यह सोचने लगे कि अगर शालग्राम जी श्रीविग्रह के रूप में प्रकट न हों तो वे वस्त्राभूषणों से उन्हें कैसे सजा सकते हैं? रात को उन्होंने शालग्रामों को सुलाया परन्तु दूसरे दिन सुबह उठकर देखा तो बारह शालग्रामों के बीच, एक शालग्राम श्रीराधारमण के विग्रह के रूप में प्रकट हो गये जिनकी श्रीवृन्दावन के श्रीराधारमण मन्दिर में नित्यप्रति सेवा-पूजा होती है। श्रीकृष्ण के अद्भुत प्राकट्य और करुणा की बात सुनकर श्रीरूप गोस्वामी जी और श्रीसनातन गोस्वामी जी आदि वैष्णव भी श्रीराधारमण जी के श्रीविग्रह के दर्शन के लिये आए और उनके दर्शन करके प्रेम में डूब गये। वैशाखी पूर्णिमा के दिन श्रीराधारमण के अभिषेक का काम सम्पन्न हुआ। वृन्दावन में श्रीराधारमण मन्दिर की विशेष प्रसिद्धि है।
शक संवत् 1507 की आषाढ़ी कृष्ण-पंचमी (अन्य मतानुसार शुक्ल-पंचमी, एक और मतानुसार शक संवत् 1500, सन् 1531 ई॰ की श्रावण कृष्ण षष्ठी) को श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी जी ने जागतिक लीला संवरण की। श्रीराधारमण जी के मन्दिर के पीछे उनका समाधि मन्दिर है। श्रीनिवासआचार्य जी द्वारा रचित “षड़गोस्वाम्याष्टक” के पाठ से हम अपने गोस्वामियों की महिमा भली-भान्ति समझ सकते हैं।