श्रीईश्वर पुरीपाद राढ़ीय ब्राह्मण वंश में कुमार हट्ट नामक स्थान पर ज्येष्ठ पूर्णिमा तिथि को आविर्भूत हुये थे। कुमार हट्ट, ज़िला 24 परगना के अन्तर्गत वर्तमान हालि शहर स्टेशन से एक कोस पश्चिम की ओर है। स्थानीय व्यक्ति उनका आविर्भाव मुखोपाध्याय पाड़ा, कुमार हट्ट,कोलकाता में बताते हैं। श्रीमन् महाप्रभु जी ने जब संन्यास ले लिया तो श्रीवास पण्डित नवद्वीप में सभी जगह उनके स्मृति चिन्हों के दर्शन करके व्याकुल हो उठे और उनका विरह सहन न कर पाने के कारण अपने भाईयों के साथ नवद्वीप को परित्याग करके कुमार हट्ट में आकर बस गये थे। कुमार हट्ट में श्रीईश्वर पुरीपाद जी के स्थान को ” श्रीचैतन्य डोबा” कहा जाता है। श्रीचैतन्य डोबा के निकट जो दीवार है, उसे ही श्रीवास का भिटा (पैतृक वस्तु) कह कर निर्देश किया जाता है। श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने कुमार हट्ट में पहुँच कर श्रीईश्वर पुरीपाद जी के स्थान की मिट्टी अपने बहिर्वास वस्र में बाँधी थी। उसे देखकर व सुनकर आगन्तुक भक्त लोग वहाँ से मिट्टी लेते हैं तथा मिट्टी लेते-लेते आज वहाँ एक डोबा (खड्ढा) बन गया है। जिसे ‘चैतन्य डोबा’ कहा जाता है। इस स्थान की विशेष प्रसिद्धि है।
इनका संन्यास का नाम श्रीईश्वर पुरी है। इससे पहले पूर्वाश्रम में उनका क्या नाम था मालूम न हो सका। इनके पितृदेव थे श्रीश्याम सुन्दर आचार्य। प्रेमभक्ति रसमय श्रील माधवेन्द्र पुरी पाद जी से श्रीईश्वर पुरीपाद जी ने दीक्षा ग्रहण की थी। श्रीईश्वर पुरीपाद की निष्कपट, स्निग्ध व प्रेमपूर्ण सेवा से वशीभूत व सुप्रसन्न होकर श्रील माधवेन्द्र पुरी पाद जी ने अपने स्नेहाशीर्वाद के द्वारा अभिषिक्त करते हुए इन्हें कृष्ण-प्रेम-सागर में निमज्जित कर दिया। गुरुदेव के प्रसन्न होने से शिष्य का आन्तरिक मंगल व सर्वार्थ सिद्धि होती है तथा गुरुदेव जी के अप्रसन्न होने से शिष्य का अमंगल होता है—श्रील माधवेन्द्र पुरीपाद जी की लीला में हम ये स्पष्ट रूप से देख सकते हैं।श्रीरामचन्द्र पुरी भी श्रील माधवेन्द्र पुरीपाद जी के दीक्षित शिष्य थे किन्तु दाम्भिकता के कारण गुरुदेव जी की कृपा से वंचित रह गये। श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी जी ने श्रीचैतन्य चरितामृत (चै.च.अ. 8/16-30) में इसका बडे़ सुंदर ढंग से वर्णन किया है: –
पूर्वे जबे माधवेन्द्रपुरी करेन अन्तर्द्धान।
रामचन्द्रपुरी तबे आइला ताँर स्थान॥
पुरी गोसाञि करेन कृष्णनाम सङ्कीर्तन।
‘मधुरा ना पाइनु’ बलि’ करेन क्रन्दन॥
रामचन्द्रपुरी तबे उपदेशे ताँरे।
शिष्य हञा गुरुके कहे, भय नाहि करे॥
तुमि-पूर्ण ब्रह्मानन्द, करह स्मरण।
ब्रह्मविद हञा केने करह रोदन??॥
शुनि’ माधवेन्द्र-मने क्रोध उपजिल।
“दूर, दूर पापिष्ठ” बलि’ भर्त्सना करिल॥
“कृष्ण-कृपा”ना पाइनु, ना पइनु ‘मथुरा’।
आपन दुःखे मरों, एइ दिते आइल ज्वाला॥
मोरे मुख ना देखाबि तुइ, जाउ यथि-तिथि।
तोरे देखि’ मैले, मोर हबे असदगति॥
कृष्ण ना पाइनु, मरों आपनार दुःखे।
मोरे ‘ब्रह्म’ उपदेशे एइ छार मूर्खे॥
एइ ये श्रीमाधवेन्द्रपाद उपेक्षा करिल।
सेइ अपराधे इँहार ‘वासना’ जन्मिल॥
शुष्क ब्रह्मज्ञानी, नाहि कृष्णेर’ सम्बन्ध।
सर्वलोकेर निन्दा करे निन्दाते निर्बन्ध॥
ईश्वरपुरी करेन श्रीपाद सेवन।
स्वहस्ते करेन मल-मूत्रादि मार्जन॥
निरन्तर कृष्णनाम कराय स्मरण।
कृष्णनाम, कृष्णलीला शुनाय अनुक्षण॥
तुष्ट-हञा पुरी ताँरे कैला आलिङ्गन।
वर दिला कृष्णे तोमार हउक प्रेमधन॥
सेइ हैते ईश्वरपुरी—‘प्रेमेर सागर’।
रामचन्द्र पुरी हैल सर्वनिन्दाकर॥
महदनुग्रह-निग्रहेर ‘साक्षी’ दुइजने।
एइ दुइद्वारे शिखाइला जगजने॥1
(चै.च.अ.8/16-30)
इस प्रसंग के अनुभाष्य में श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद जी ने लिखा है—”रामचन्द्र पुरी ने अपने गुरु श्रीमाधवेन्द्र पुरी जी को श्रीकृष्ण विरह कातर अवस्था में देखा परन्तु वे उनकी अप्राकृत विप्रलम्भ स्फूर्ति को न समझ सके तथा उन्हें लौकिक विचारानुसार किसी प्राकृत अभाव से शोक-कातर समझ कर उन्हें निर्विशेष ब्रह्म की अनुभूति कराने लगे। श्रीमाधवेन्द्र पुरीपाद शिष्य की मूर्खता व गुरु-अवज्ञा देख कर उसकी मंगलाकांक्षा से विरत हो गये तथा उसका त्याग करके उसे भगा दिया।”
यद्यपि श्रीमन् महाप्रभु स्वयं भगवान् हैं, तब भी सद्गुरु के चरणाश्रय की अत्यावश्यकता की शिक्षा देने के लिये उन्होंने गया जाकर श्रीईश्वर पुरीपाद जी से दीक्षा ग्रहण करने की लीला की। इसके द्वारा श्रीईश्वर पुरीपाद जी का गुरुत्व व श्रेष्ठत्त्व संदेहातीत रूप से प्रदर्शित हुआ है।
तबे त’ करिला प्रभु गयाते गमन। ईश्वरपुरीर सङ्गे तथाइ मिलन।
दीक्षा अनन्तरे हैल प्रेमेर प्रकाश। देशे आगमन पुनः प्रेमेर विलास॥2
(चै.च.आ.17/8-9)
“दोँहाकार विग्रह दोँहाकार प्रेम-जले।
सिंचित हइला प्रेमानन्द कुतूहले॥
प्रभु बले,-“गया-यात्रा सफल आमार।
यतक्षणे देखिलाङ चरण तोमार॥
तीर्थे पिण्ड दिले से निस्तरे पितृगण।
सेह,-यारे पिण्ड देय, तरे’ सेइजन॥
तोमा’ देखिलेइ मात्र कोटि-पितृगण।
सेइक्षणे सर्वबन्ध पाय विमोचन॥
अतएव तीर्थ नहे तोमार समान।
तीर्थेरो परम तुमि मङ्गाल प्रधान॥
संसार-समुद्र हैते उद्धारह मोरे।
एइ आमि देह समर्पिलाङ तोमारे॥
‘कृष्णपादपद्मेर अमृतरस पान।
आमारे कराओ तुमि’-एइ चाहि दान॥” 3
(चै.भ.आ.17/49-55)
श्रीमन् महाप्रभु जी ने लौकिक रीतियों के अनुसार गया के तमाम तीर्थ व श्राद्ध आदि के लीलाभिनय के पश्चात् अपने घर आकर अपने हाथों से रसोई का कार्य किया। श्रीईश्वर पुरीपाद जी ने जब नवद्वीप में शुभ पर्दापण किया तो श्रीमन् महाप्रभु जी ने अपने हाथों से रसोई बना कर व अपने हाथों से ही परिवेषण करके श्रीईश्वर पुरीपाद जी को तृप्ति के साथ भोजन करवा कर गुरु सेवा का सर्वोत्तम आदर्श स्थापन किया।
ये ठीक है कि गया में दशाक्षर मन्त्र लेने से पहले भी महाप्रभु जी ईश्वर पुरीपाद जी से मिल चुके थे। इससे पहले श्रील माधवेन्द्र पुरीपाद जी से दीक्षा लेने की लीला का अभिनय करने वाले श्रीअद्वैताचार्य जी के साथ भी श्रीईश्वर पुरीपाद जी की भेट हो चुकी थी। श्रीवृन्दावन दास जी ने श्रीचैतन्य भागवत् में इसका वर्णन किया है। निमाई जब नवद्वीप नगर में विद्या विलास की लीला कर रहे थे, तो उसी समय दैवयोग से श्रीईश्वर पुरीपाद जी का अचानक निमाई के साथ साक्षात्कार हुआ था। निमाई की इस प्रकार अपूर्व कान्ति दर्शन करके श्रीईश्वर पुरीपाद उनकी ओर आकृष्ट हुये थे तथा निमाई ने अपने घर में भिक्षा (भोजन) के लिये श्रीईश्वर पुरीपाद जी को निमन्त्रण दिया था और स्वयं शची माता से श्रीकृष्ण जी के लिए नैवेद्य तैयार करवा कर श्रीईश्वर पुरीपाद जी को भोजन करवाया था। उसी समय निमाई के साथ श्रीईश्वर पुरीपाद जी की कृष्ण सम्बन्धित चर्चा हुई थी। नवद्वीप में गोपीनाथ आचार्य के घर कुछेक महीने श्रीईश्वर पुरीपाद जी रहे थे। परम विरक्त श्रीगदाधर पण्डित जी का सुद्ध प्रेम दर्शन कर व उनके सुद्ध प्रेम से सन्तुष्ट होकर श्रीईश्वर पुरीपाद जी स्वरचित “श्रीकृष्णलीलामृत ” ग्रन्थ अत्यन्त प्रीति के साथ उन्हें पढाने लगे। निमाई भी प्रति दिन उन्हें वहाँ प्रणाम करने जाते थे। एक दिन श्रीईश्वर पुरीपाद जी ने निमाई को अपने ग्रन्थ की भूल-चूक देखने की प्रार्थना की तो निमाई ने उसके उत्तर में कहा—
प्रभु बोले,-“भक्त-वाक्य कृष्णेर वर्णन।
इहाते ये दोष देखे, सेइ पापीजन॥
भक्तेर कवित्त्व ये-ते मते केने नय।
सर्वथा कृष्णेर प्रीति ताहाते निश्चिय॥
मूर्ख बोले-‘विष्णाय’, विष्णवे’ बोले धीर।
दुइ वाक्य परिग्रह को कृष्ण वीर॥
इहाते ये दोष देखे, ताहार से दोष।
भक्तेर वर्णनमात्र कृष्णेर सन्तोष॥
अतएव तोमार से प्रेमेर वर्णन।
इहाते दूषिवेक कोन् साहसिक जन?
(चै.भा. आ. 11/105-110)
भक्ति रत्नाकर में इस प्रकार वर्णन है—
“एइ देख गोपीनाथ आचार्येर घर।
मध्ये-मध्ये एथा आइसेन विश्वाम्भर॥
श्रीईश्वर पुरी किछु दिन एथा छिला।
“कृष्ण लीलामृत ग्रन्थ” एथाइ रचिला॥
गदाधर पण्डिते परम स्नेह करे।
तार प्रेम चेष्टा देखि पढ़ाइल ताँरे॥
अर्थात् भहाप्रभु जी कहते हैं एक तो भक्त वाक्य फिर उसमें श्रीकृष्ण का वर्णन, इसमें जो दोष देखेगा वह पापी ही होगा।भक्त का कवित्त्व जैसा-तैसा भी क्यों न हो वह निश्चित रूप से कृष्ण का प्रीतिकर होता है। मूर्ख लोग ‘विष्णाय’ कहते हैं जब कि बुद्धिमान् ‘विष्णवे’ कहते हैं—श्रीकृष्ण दोनों प्रकार के वाक्यों में शब्दों को नहीं देखते वे तो भाव को देखते हैं। अर्थात् भक्त के लेख में जो दोष देखता है वह दोष स्वयं देखने वाले में होता है। भक्त के वर्णन मात्र से ही कृष्ण का सन्तोष होता है। अतएव आपका जो ये प्रेम-वर्णन है, कौन ऐसा दुःसाहसिक होगा जो इसमें दोष देखेगा|
श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु पश्चिम भारत के तीर्थ भ्रमण के समय जब दैवयोग से श्रील माधवेन्द्र पुरीपाद जी को मिले तो दोनों एक दूसरे को देख कर मूर्च्छित हो गये।नित्यानन्द प्रभु प्रेमाविष्ट होकर माधवेन्द्र पुरीपाद जी की महिमा वर्णन करने लगे। श्रील माधवेन्द्र पुरीपाद जी ने नित्यानन्द प्रभु को आलिंगन करते हुये उन्हें प्रेमजल से भिगो दिया। नित्यानन्द प्रभु गुरुदेव जी के अत्यन्त प्रिय हैं, ऐसा समझ कर श्रीईश्वर पुरीपाद आदि सभी शिष्य वर्ग नित्यानन्द प्रभु के प्रति अनुराग युक्त हो उठे तथा श्रीईश्वर पुरीपाद गाढ़ प्रेमाविष्ट हो उठे—
जय श्रीमाधवपुरी कृष्णप्रेमपुर।
भक्तिकल्पतरु तेंहो प्रथम अंकुर॥
श्रीईश्वरपुरी-रुपे अंकुर पुष्ट हैल।
आपने चैतन्य माली स्कन्ध उपजिल॥
(चै.च.आ. 9/10-11)
श्रील ईश्वर पुरीपाद जी ने अपने अप्रकट से पूर्व अपने दो शिष्यों -काशीश्वर और गोविन्द को श्रीमन् महाप्रभु की सेवा के लिये निर्देश किया। वे दोनों यद्यपि महाप्रभु जी के गुरु भाई थे, “गुरु जी की आज्ञा अवश्य पालनीय है”—इस विचार से श्रीमन् महाप्रभु जी ने उन्हें सेवक के रूप में ग्रहण किया।
1पूर्व काल में जब माधवेन्द्र पूरीपाद जी अन्तर्धान लीला कर रहे थे तभी रामचंद्र पूरी भी वहाँ आ गए। अन्तिम समय में माधवेन्द्र जी कृष्ण-नाम-संकीर्तन कर रहे थे तथा प्रेम विरह होकर” हा कृष्ण! मुझे मथुरा की प्राप्ति ना हो सकी”—ऐसे पुकार रहे थे और रो रहे थे। रामचन्द्र पूरी तब उन्हें उपदेश देने लगे (शिष्य होकर गुरु को उपदेश देने में ज़रा सा भी भय का भान नहीं)। रामचन्द्र पूरी कहने लगे-आप पूर्ण ब्रह्मानन्द का स्मरण करो, आप तो चिद् ब्रह्म हो,चिद् ब्रह्म होकर रो क्यों रहे हो?
रामचन्द्र पूरी के वचन सुनकर माधवेन्द्र पुरीपाद जी को क्रोध आ गया। वे उसका तिरस्कार करते हुए कहने लगे—ओ पापिष्ट! दूर हो जा, दूर हो जा यहाँ से, मुझे श्रीकृष्ण की प्राप्ति ना हो सकी, न ही मथुरा मुझे मिला—मैं तो अपने ही दुःख में मर रहा हूँ, इस पर से मुझे और जलाने आया। जहाँ मर्जी चला जा, मुझे मुँह मत दिखाना, तुझे देख कर मरने से मेरी असद्-गति होगी। कृष्ण की प्राप्ति नहीं हुई—अपने इस दुःख से मर रहा हूँ और ये निरा मूर्ख मुझे ब्रह्म का उपदेश देने आया है।
माधवेन्द्र पुरीपाद जी ने रामचन्द्र पूरीपाद जी का जब से तिरस्कार कर दिया तभी से वे कृष्ण सम्बन्धहीन शुष्क ज्ञानी बन गए तथा उनके अन्दर दुर्वासना उत्पन्न हो उठी और हर समय वे सब की निन्दा करने लगे। जबकि दूसरी ओर ईश्वर पूरीपाद जी अपने गुरु जी की प्राणपन से सेवा कर रहे थे। यहाँ तक कि वे अपने हाथों से गुरुजी का मल-मूत्र तक साफ करते थे तथा माधवेन्द्र पुरीपाद जी को कृष्णनाम व कृष्णलीला सुनाकर निरन्तर कृष्ण स्मरण करवाते थे, जिससे सन्तुष्ट होकर उन्होंने ईश्वर पूरीपाद जी को आलिंगन किया और उन्हें आशीर्वाद दिया कि कृष्ण ही तुम्हारे प्रेमधन है। तभी से ईश्वर पूरीपाद जी प्रेम के सागर बन गए जबकि रामचन्द्र पूरी बने सर्वनिन्दाकर(निन्दक)। अनुग्रह और निग्रह के यह दो उदाहरण है ,इन दोनों के माध्यम से ही माधवेन्द्र पुरीपाद जी ने अनुग्रह और निग्रह की सारे जगत को शिक्षा दी।
2 महाप्रभु जी ने गया के लिये प्रस्थान किया तथा वहीं पर उनकी भेंट श्रीईश्वर पुरीपाद जो से हुई। दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् श्रीमन् महाप्रभु जी का श्रीकृष्ण प्रेम प्रकाशित हुआ और जब आप नवव्दीप में लौट आये तब आपने प्रेमावेश में अनेक लीलाएँ की।
3 दोनों के शरीर एक-दूसरे के नेत्रों के प्रेमाश्रुओं से अभिषिक्त हो गये और प्रेमानन्द छा गया। महाप्रभु जी ने कहा—”जब आपके चरणों के दर्शन हो गये तो मेरी गया यात्रा सफल हो गयी”तीर्थ में पिण्ड देने से उन पितर का उद्धार होता है जिसका पिण्ड दिया जाता है परन्तु आपके दर्शन मात्र से करोड़ो पितृगण उसी समय तमाम बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं।अतएव आपके समान कोइ भी तीर्थ नहीं है। आप तो तीर्थो का भी परम मंगल करने वाले हो। मैं अपने शरीर को आपको समर्पण करता हूँ, संसार समुद्र से आप मेरा उध्दार किजिये।मैं तो आप से सिर्फ यही दान चाहता हूँ कि आप मुझे श्रीकृष्ण के चरण कमलों का मकरन्दी पान कराइये।