Gaudiya Acharyas

श्रीविष्णु प्रिय देवी

श्रीसनातनमिश्रोऽयं पुरा सत्राजितो नृपः।
विष्णुप्रिया जगन्माता यत् कन्या भू-स्वरूपिणी॥

(गौ.ग.दी. 47)

पूर्वकाल में जो राजा सत्राजित थे, वही दूसरे जन्म में श्रीसनातन मिश्रा नाम से पैदा हुए हैं। जगन्माता भूस्वरूपिणी-विष्णु प्रिय जी, उन्हीं की कन्या हैं।

यदुवंश के राजा सत्राजित की कन्या सत्यभामा से श्रीकृष्ण ने विवाह किया था। गौरलीला में राजा सत्राजित श्रीसनातन मिश्र और सत्यभामा जी ही विष्णुप्रिया हुईं। श्रीविष्णु तत्व मात्र की ही श्री, भू, लीला—तीन शक्तियाँ होती हैं। श्रीगौरनारायण की श्री-शक्ति स्वरूपिणी—श्रीलक्ष्मी प्रिया देवी, भू-शक्ति स्वरूपिणी अर्थात् भक्ति-शक्ति स्वरूपिणी श्रीविष्णुप्रिया देवी एवं लीला-शक्ति श्रीधाम थीं। श्रीगौरकृष्ण की शक्ति श्रीगदाधर पण्डित गोस्वामी जी थे।

विद्या दो प्रकार की होती है—परा और अपरा। परा विद्या स्वरूपिणी श्रीविष्णु प्रिया जी की आविर्भाव तिथि श्रीपंचमी को (माघ मास की शुक्ला पंचमी को) है। इसी दिन शुद्ध भक्तों ने उनकी पूजा का विधान किया है। सांसारिक व्यक्ति दुनियाँ के जड़ीय विद्या में बढ़ोतरी के लिए उक्त तिथि को अपरा विद्या की अधिष्ठातृ देवी सरस्वती की पूजा करते हैं।

श्रीविष्णु प्रिया देवी के पितामह श्रीदुर्गादास मिश्र थे। एक अन्य मत के अनुसार दुर्गादास मिश्र उनके पिता थे। प्रेमविलास के मत में, दुर्गादास मिश्र की परम्परा में, यादवाचार्य के वंशधरगण श्रीविष्णुप्रिया देवी के परिवार के रूप में गिने जाते हैं।

श्रीगौरनारायण की शक्ति के रूप में विष्णुप्रिया जी के आविर्भाव का उल्लेख श्रील वृन्दावन दास ठाकुर द्वारा रचित श्रीचैतन्य भागवत में तथा श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी द्वारा रचित श्रीचैतन्य चरितामृत में हुआ है—

आदिखण्डे, पूर्व-परिग्रहेर विजय।
शेषे, राज-पण्डितेर कन्या परिणम॥

(चै. भा.आ. 1/110)

पूर्व परीग्रह यानि प्रभु की पहली पत्नी लक्ष्मी प्रिया देवी के लीला संवरण यानी स्वधाम यात्रा के बाद प्रभु का राज पण्डित श्रीसनातन मिश्र की कन्या, श्रीविष्णु प्रिया देवी के साथ विवाह हुआ। महाप्रभु जी के दूसरे विवाह का उल्लेख श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर कृत गौड़ीय भाष्य में मिलता है—

तबे विष्णुप्रिया-ठाकुराणीर परिणय।
तबे त’ करिल प्रभु दिग्विजयी जय॥

(चै.च.आ.16/25)

जागतिक स्री-पुरुष का विवाह, बन्धन का कारण होता है, जबकि मनुष्य लीला के अनुकरण में श्रीभगवान का और उनकी शक्ति का मिलन कराने के लिए विवाह एक अलौकिक कार्य होता है; यहाँ तक कि भगवान के साथ भगवान की शक्ति की परिणय लीला का श्रवण-कीर्तन करने से संसार से मुक्ति मिलती है—

ये शुनवे प्रभुर विवाह-पुण्य-कथा।
ताहार संसार-बन्ध ना हय सर्वथा॥
प्रभु पार्श्वे लक्ष्मीर हइल अवस्थान।
शचीगृह हइल परम-ज्योतिर्धाम॥

(चै.भा.आ. 10/119-120)

याँहार मूर्तिर विभा देखिले नयने।
पापमुक्त हइ’ याय वैकुण्ठ-भूवने॥
से प्रभुर विभा लोक देखये साक्षात्।
तेञि ता’न नाम-‘दयामय’ दीननाथ’॥

(चै.भा.आ. 15/216-217)

अर्थात जो महाप्रभु जी के विवाह की पवित्र कथा को सुनता है, उसके तमाम सांसारिक बन्धन कट जाते हैं। महाप्रभु जी के बगल में जब विष्णुप्रिया जी आयी तो शचीमाता का सारा घर ज्योति से भर गया। जो अपने नयनों से विष्णु प्रिया जी की ज्योर्तिमयी मूर्ति को देख लेता है, वह तमाम पापों से मुक्त हो जाता है और वैकुण्ठधाम में चला जाता है। इसलिए ही तो विष्णुप्रिया जी का एक नाम दयामय-दीननाथ है। पूर्वी बंगाल में छात्रों के साथ अध्ययन लीला में मग्न होने से श्रीमन्महाप्रभु की नवदीप में वापसी देरी होने के कारण श्रीलक्ष्मी प्रिया जी ने विरह सहन करने में असमर्थ होकर प्रभु के चरणों का ध्यान करते करते प्राण त्याग दिये। श्रीमन्महाप्रभु जी ने नवदीप में वापस आकर विरह-संतप्त माता को सान्त्वना प्रदान की। उसके बाद शची माता ने पुत्र को दूसरी बार विवाह करने के लिए कहा तथा विवाह के लिए व्यग्र होकर काशी नाथ पण्डित1 को घटक रूप में, नवद्वीप वासी राजपण्डित सनातन मिश्र से उनकी कन्या, विष्णुभक्ति परायणा, विष्णु प्रिया देवी से विवाह सम्बन्ध करवाने के लिए भेजा। सनातन मिश्र के लिए काशीनाथ पण्डित की उक्ति नीचे उद्धृत है : –

विश्वम्भर-पण्डितेरे तोमर दुहिता।
दान कर’-ए सम्बन्ध उचित सर्वथा॥
तोमार कन्यार योग्य सेइ दिव्यपति।
ताँहार उचित एइ कन्या महा-सति॥
येन कृष्णं-रुक्मिणीते अन्योऽन्य-उचित।
सेइमत विष्णुप्रिया-निमाञि पण्डित॥

(चै.भा.आ. 15/57-59)

अर्थात काशीनाथ पण्डित विष्णुप्रिया जी के पिता श्रीसनातन मिश्र जी को कहते हैं कि आप विश्वम्भर पण्डित को अपनी कन्या दान कर दीजिए। यह सम्बन्ध हर प्रकार से उचित है और तुम्हारी कन्या के योग्य है। जिस प्रकार श्रीकृष्णा जी रुक्मिणी जी के लिए अद्वितीय उचित हैं, इसी प्रकार निमाई पण्डित जी भी विष्णुप्रिया के उचित हैं।

इधर बुद्धिमान व धनवान बुद्धिमन्त खान2 प्रभु के विवाह का सारा खर्च अपनी इच्छा से उठाने पर तैयार हो गये। श्रीविश्वम्भर के साथ विष्णुप्रिया देवी का विवाह सम्बन्ध स्थिर होने पर, शुभदिन और लग्न में महासमारोह पूर्वक अधिवास-उत्सव सम्पन्न हुआ। गोधूलि लग्न के समय महाप्रभुजी पालकी में बैठकर राज पण्डित श्रीसनातन मिश्र के घर जाकर उपस्थित हुए और लोकाचार के अनुसार गौर-विष्णुप्रिया का विवाह सम्पन्न हुआ।

दूसरे दिन अपराह्न काल में, महाप्रभुजी विष्णुप्रिया जी के साथ पालकी में ही अपने घर वापस आ गए। लक्ष्मी –नारायण जी की विवाह लीला का नित्य श्रवण करने पर जीव को स्वाभाविक जगत की भोक्ता व भोग्य सम्बन्ध युक्त- पुरुष और प्रकृति की दाम्पत्य की अभिलाषा नहीं होती तथा उसके चिन्तन में नारायण ही सारा जगत के भोक्ता के रूप में उपलब्धि का विषय बन जाते हैं। बुद्धिमन्त खान महाप्रभु जी का आलिंगन और कृपा प्राप्त करके धन्यातिधन्य हो गये। श्रीचैतन्य भागवत में श्रीवृन्दावन दास ठाकुर ने महाप्रभु और विष्णुप्रिया के विवाह के वर्णन में लिखा है : –

केह बले-“एइ हेन बुझि हर-गौरी।”
केह बले-“हेन बुझि कमला श्रीहरि॥”
केह बले-“एइ दुइ कामदेव रति।”
केह बले-“इन्द्र-शची लय मोर मति॥”
केह बले-“हेन बुझि रामचन्द्र-सीता।”
एइमत वले यत सुकृति-वनिता॥

(चै.भा.आ. 15/206-208)

कोई कहता है कि मैं यह देख रहा हूँ कि यह दोनों शिव-पार्वती हैं। कोई कहता है कि दोनों लक्ष्मी-नारायण हैं। कोई कहता है कि यह दोनों कामदेव और रति हैं। कोई कहता है कि मेरी बुद्धि के अनुसार यह दोनों इन्द्रदेव व शची हैं। कोई कहता है कि यह दोनों रामचन्द्र और सीता हैं। इस प्रकार सुकृतिवान स्रियाँ अपने विचार से कुछ न कुछ कहती हैं।

विष्णुप्रिया देवी शैशव काल से ही पिता-माता और विष्णु-परायणा थीं। वह प्रतिदिन तीन बार गंगा-स्नान करती थीं। गंगा-स्नान को जाने के दिनों में ही शची माता के साथ उनका साक्षात्कार हुआ था। उनके प्रणाम करने पर शची माता उन्हें आशीर्वाद देतीं। श्रीमन्महाप्रभु द्वारा चौबीस वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण करने की बात सुनकर श्रीविष्णु प्रिया देवी की अत्यन्त विरह-संतप्त होने की हालत का अद्वैत प्रकाश ग्रन्थ में वर्णन हुआ है। प्रतिदिन प्रभात में शचीमाता के साथ गंगा-स्नान को जाना, सारा दिन घर में रहना, चन्द्र सूर्य भी उन्हें उनके रूप को नहीं देख सकते थे। भक्तलोग भी उनके श्रीचरणों के इलावा उनके रूप को न देख पाये, यहाँ तक कि उनकी आवाज़ को कोई सुन न पाया, सदा आंसु बहाते बहाते लाल मुख से बैठे रहना, केवल शचीमाता के बचे हुए अन्न से जीवन धारण करना, एकान्त में नाम-संकीर्तन करना, हरिनाम-अमृत में गहन रुचि, श्रीगौरांग के चित्र की प्रेम भक्ति सहित एकान्त सेवा, श्रीगौरांगके श्रीचरण-कमलों में आत्मसमर्पण, सहधर्मिणी का आदर्श तथा ‘तृणादपि सुनिच’ श्लोक की सहिष्णुता का आदर्श-विष्णुप्रिया जी की ये सभी लीलाएँ अद्वैत प्रकाश ग्रन्थ में बड़े विस्तृत भाव से वर्णित हैं।

श्रीनिवास आचार्य जी ने श्रीविष्णुप्रिया देवी की कृपा प्राप्त की थी। श्रीनिवासाचार्य जी ने विष्णुप्रिया देवी का व गौरांग प्रभु का निष्काम रूप से दर्शन किया था। श्रीनरहरि चक्रवर्ती जी ने इस विषय का भक्ति रत्नाकर ग्रन्थ की चौथी तरंग में सुन्दरभाव से वर्णन किया है—

प्रतिदिन श्रीनिवास करये दर्शन।
ईश्वरीर क्रिया, यैच्छे न हय वर्णन॥
प्रभुर विच्छेदे निद्रा त्यजिल नेत्रेते।
कदाचित् निद्रा हैल शयन भूमिते॥
कनक जिनिया अंग से अति मलिन।
कृष्णा चतुर्दशीर शरीर प्राय क्षीण॥
हरिनाम संख्या पूर्ण तण्डुले करय।
से तण्डुल पाक करि प्रभुरे अर्पय॥
ताहारइ किंचिन्मात्र करये भक्षण।
कहे ना जानय कैने राखये जीवन॥

(भक्ति रत्नाकर 4/47-51)

श्रीनिवास प्रतिदिन श्रीविष्णुप्रिया के दर्शन करते हैं। वास्तव में जैसी जैसी श्रीविष्णुप्रिया जी की क्रियायें होती हैं, उनका शब्दों में ठीक वर्णन नहीं हो पाता। महाप्रभु जी के विच्छेद से श्रीविष्णुप्रिया के नेत्रों ने नींद का त्याग कर दिया है। भूमि पर पड़े-पड़े ही कभी-कभार नींद आ जाती है। सोने के समान जो अंग थे, वह मलिन हो गये हैं। कृष्ण-चतुर्दशी के चाँद की भान्ति शरीर क्षीण हो गया है। चावलों से हरिनाम की गिनती करती हैं और फिर उन्हीं चावलों की रसोई करके महाप्रभु जी को भोग लगाती हैं। उसमें से भी थोड़ा ही खा पाती हैं। कोई नहीं जानता कि वह अपने जीवन की रक्षा कैसे करती हैं?

श्रीलोचन दास ठाकुर ने श्रीविष्णुप्रिया देवी का माहाप्रभु जी के लिए विरह का चैतन्य मंगल ग्रन्थ में इस प्रकार वर्णन किया है—

विष्णु प्रिया कान्दनेते पृथिवी विदरे।
पशु पक्षी लता तरु ए पाषाण झूरे॥
पापिष्ट शरीर मोर प्राण नाहि जाय।
भूमिते लोटियां देवी करे हाय हाय॥
विरह अनल श्वास बहे अनिवार।
अधर शुकाय-कम्प हाय कलेवर॥

(चै.मं. मध्य लीला 14/15-16)

अर्थात् विष्णु प्रिया जी के रोने से पृथ्वी फट जाती है। पशु, पक्षी, लता-वृक्ष यहाँ तक की पाषाण भी द्रवित हो जाते हैं। मेरे पापी शरीर से प्राण नहीं निकलते हैं—ऐसा कहकर वह देवी पृथ्वी पर लोटती हैं और हाय हाय करती हैं, श्वासों के द्वारा उनके विरह की अग्नि बहती है। होंठ सूख जाते हैं और उनका सारा शरीर कांपने लगता है।

विष्णुप्रिया देवी जी ने जो भजन का आदर्श प्रस्तुत किया है उसका श्रीजाह्नवा देवी के शिष्य श्रीनित्यानन्द दास ने अपने द्वारा रचित ग्रन्थ प्रेमविलास में इस प्रकार वर्णन किया है—

ईश्वरी नाम ग्रहण शुन भाई सब।
से कथा श्रवणे लीला हय अनुभव॥
नवीन मृद भजन आने दुई पाशे धरी।
एक शून्य पात्र और पात्रे तण्डुल भरि॥
एक बार जपे बोल नाम बत्रिश अक्षर।
एक तण्डुल रखेन पात्रे आनन्द अन्तर॥
तृतीय प्रहर पर्यन्त लयेन हरिनाम।
ताते ये तण्डुल हय, लैया पाके यान॥
सेइ तण्डुल मात्र रन्धन करिया।
भक्षण करान प्रभुके अश्रुयुक्त हैया॥
रात्रिदिन हरि नाम प्रभुर संख्या यत।
से चेष्टा बूझिते नारि बुद्धि अति हत॥
प्रभुर प्रेयसी येंह तांहार कि कथा।
दिवानिशि हरिनाम लयेन सर्वथा॥
तांहार असाध्य किवा नामे एत आर्ति।
नाम लयेन ताहे रोपण करेन प्रभुशक्ति॥

ईश्वरी श्रीविष्णुप्रिया जी जिस प्रकार से नाम लेती थीं, आप सब भाई सुनो। इस कथा के श्रवण से लीला का अनुभव होगा। वह मिट्टी के दो बर्तन लाकर अपने दोनों ओर रख लेती थीं। एक ओर खाली पात्र और दूसरी और चावल से भरा हुआ पात्र रख लेतीं। सोलह नाम तथा बत्तीस अक्षर वाला मन्त्र (हरे कृष्ण महामन्त्र) एक बार जपकर एक चावल उठाकर खाली पात्र में रख देतीं। इस प्रकार तीसरे पहर तक हरिनाम का जप करती रहतीं और चावल एक पात्र से दूसरे पात्र में रखती जातीं। इसी प्रकार जितने चावल इकट्ठे होते, उनकी रसोई करके श्रीमन्महाप्रभु को रोते रोते अर्पण करतीं। रात दिन इसी प्रकार हरिनाम की जो संख्या होती उसे अपनी तुच्छ बुद्धि से मैं समझ नहीं पाता हूं। कहाँ तक उनकी महिमा कहें, वे तो महाप्रभुजी की प्रेयसी है और निरन्तर रात दिन हरिनाम लेती रहती हैं। उनकी हरिनाम में जितनी आर्ति है, वह असाध्य है। हरिनाम के कारण प्रभु उनमें अपनी शक्ति रोपण करते हैं।

श्रीविष्णुप्रिया देवी ने ही सर्वप्रथम गौर मूर्ति का प्रकाश कर उनकी पूजा की थी, ऐसा प्रमाण मुरारी गुप्त जी के कड़चा (य्वक्तिगत डायरी) से जाना जाता है:-

प्रकाश रूपेण निज प्रियायाः
समीपमासाद्य निजां हि मूर्तिम्।
विधाय तस्यां स्थित एषः कृष्णः
सा लक्ष्मीरूपा च विषेवते प्रभुम्।

गौरभक्तों में कोई कोई हरिकथा प्रसंग में इस प्रकार कहते हैं—सीता देवी के वनवास का काल में एक पत्नीव्रती भगवान श्रीरामचन्द्र ने सोने की सीता का निर्माण करवाकर यज्ञ किया था पर दूसरी बार विवाह नहीं किया। श्रीगौर नारायण लीला में विष्णु प्रिया देवी ने उस ऋण से उऋण होने के लिए ही श्रीगौरांग प्रभु की मूर्ति का निर्माण करा के पूजा की थी। श्रीविष्णु प्रिया देवी द्वारा सेवित श्रीगौरांग की मूर्ति की अब भी नवद्वीप में पूजा की जाती है।

श्रीवंशीवदन ठाकुर और श्रीईशान ठाकुर ने श्रीविष्णु प्रिया देवी की कृपा प्राप्त की थी। महाप्रभु जी द्वारा संन्यास ग्रहण करने के पश्चात् श्रीईशान ठाकुर और श्रीवंशीवदन ठाकुर ने शची माता और विष्णु प्रिया देवी की देखभाल की थी।


श्रीकाशीनाथ-यश्च सत्राजित विप्रः प्रहितं माधवः प्रति।
सत्योद्वाहाय कुलक: श्रीकाशीनाथ एव सः॥ (गौ.ग.दी.-50)

बुद्धिमान खान-चैतन्येर अति प्रिय बुद्धिमन्त खान, आजन्म आज्ञाकारी तेहों सेवक-प्रधान। (चै.च.आ.10/74)