श्रीरूप मंजरी ख्याता यासीद् वृन्दावने पुरा।
साद्य रूपाख्यगोस्वामी भूत्वा प्रकटतामियात्॥
(गौ.ग.दी. 180 श्लोक)
जो पूर्व काल में वृन्दावन में श्रीरूप मंजरी नाम से प्रसिद्ध थे, वे ही गौरलीला की पुष्टि के लिए अब श्रीरूप गोस्वामी रूप में प्रकट हुए हैं।
राधारानी की अनुगता सखियों में प्रधाना — ललिता सखी व ललिता की अनुगता मंजरियों में प्रधाना — श्रीरूप मंजरी थीं। इसलिए गौरलीला में छः गोस्वामियों में प्रधान हैं — श्रीरूप गोस्वामी। श्री आशुतोष देव के नूतन बँगला कोश में श्रीरूप गोस्वामी का प्रकट काल सन् 1489 ई. से 1559 ई. अथवा 1410 शकाब्द से 1479 शकाब्द दिया गया है। श्रीरूप गोस्वामी गौर लीला में भरद्वाज गोत्रीय कर्नाट देशीय ब्राह्मण राजवंश में प्रकट हुए थे। उनके पिता थे — श्री कुमार देव जी। श्रीजननी देवी का परिचय मालूम नहीं हो पाया। श्रील नरहरि चक्रवर्ती ठाकुर (श्रील घनश्याम दास)द्वारा रचित श्रीभक्ति रत्नाकर ग्रंथ में श्रीजीव गोस्वामी जी की श्रेष्ठ सात पीढ़ियों का परिचय दिया हुआ है।
(भक्ति रत्नाकर 1/540-568)
श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर ने श्रीचैतन्यचरितामृत के अनुभाष्य में इनके वंश परिचय के सम्बन्ध में लिखा है कि भरद्वाज गोत्र के जगदगुरु ‘सर्वज्ञ’ नामक एक महात्मा बारहवीं शक शताब्दी में कर्नाटक में ब्राह्मण राजवंश में पैदा हुए थे। उनके रूपेश्वर और हरिहर नामक दो पुत्र हुए। लेकिन वे दोनों ही राज्य से वंचित हो गये। ज्येष्ठ रूपेश्वर जी ने शिखरभूमि पर वास स्थापित किया। उन के पाँच पुत्र हुए — उन में सब से छोटे मुकुन्द के पुत्र थे — महासदाचारी कुमार देव जो श्रीसनातन, श्रीरूप और श्रीअनुपम के पिता थे। कुमार देव ने वाक्ला चन्द्रद्वीप में निवास किया। यशोहर प्रदेश के फतेहाबाद नामक स्थान में उन का घर था।
उनके पुत्रों में से मात्र तीन ने वैष्णव धर्म ग्रहण किया। श्रीबल्लभ अथवा श्रीअनुपम ने चन्द्रद्वीप में अपने ज्येष्ठ भाई श्रीरूप और श्रीसनातन के साथ गौड़देश में रामकेलि ग्राम में नौकरी पेशे के काम के सम्बन्ध में निवास किया था। इसी स्थान पर श्रीजीव गोस्वामी जी का जन्म हुआ। नवाब सरकार के लिए अच्छा काम करने पर तीनों को मल्लिक की उपाधि मिली। श्रीमन्महाप्रभु जिस समय रामकेलि गाँव में गये थे, उस समय अनुपम के साथ उनका पहली बार मिलन हुआ। श्रीरूप गोस्वामीजी द्वारा विषय कार्य त्याग कर के महाप्रभु जी की आज्ञा पालन के लिये श्रीवृन्दावन जाने के समय बल्लभ उनके साथी बने थे। (चै. च. आ 10/84 अनुभाष्य)
रामकेलि ग्राम में श्रीकेलि कदम्ब वृक्ष और तमाल वृक्ष के नीचे श्रीरूप और श्रीसनातन के साथ श्रीमन्महाप्रभु जी का पहला मिलन हुआ था। वहाँ श्रीरूप गोस्वामी द्वारा प्रतिष्ठित रूप सागर नामक एक बड़ा सरोवर अब भी विद्यमान है। उस समय के गौड़देश के बादशाह हुसैन शाह के अधीन श्रीरूप, श्रीसनातन और श्रीअनुपम राजकार्य करते थे। श्रीसनातन गोस्वामी ने प्रधान मन्त्री और श्रीरूपगोस्वामी ने शासन विभाग में विशेष दायित्त्वशील वज़ीर (मन्त्री) की पदवी प्राप्त की थी। श्रीरूपगोस्वामी को बादशाह द्वारा दिया हुआ नाम दबिर खास और सनातन गोस्वामी का नाम साकर मल्लिक था। जिस समय श्रीमन्महाप्रभु रामकेलि ग्राम में श्रीरूप गोस्वामी और सनातन जी के साथ मिले थे, उस समय महाप्रभु जी के साथ असंख्य हिन्दुओं को देखकर बादशाह हुसैन शाह ने चिन्तित होकर रूप गोस्वामी जी से महाप्रभु जी का परिचय जानना चाहा था। रूप गोस्वामी जी द्वारा महाप्रभु जी की महिमा बादशाह को बड़े कौशल के साथ समझा देने पर बादशाह निश्चिन्त हो गये थे —
श्रीचैतन्य चरितामृत की मध्यलीला के प्रथम परिच्छेद में हुसैन शाह द्वारा श्रीसनातन गोस्वामी जी को दबिर खास के नाम से सम्बोधित किया था, उस का प्रमाण पाया जाता है —
दविरखासेरे राजा पूछिल निभृते।
गोसाईं महिमा तेंह लागिल कहिते॥
शेष खण्डे श्रीगौर सुन्दर महाशय।
दविरखासेरे प्रभु दिला परिचय॥ (चै. च. म 1/175)
प्रभु चिनि, दुइ भाइर बन्ध विमोचन।
शेषे नाम थुइलेन रूप सनातन॥ (चै. भा. आ. 2/171-172)
हेनइ समये दुई महाभाग्यवान्।
हइलेन आसिया प्रभुर विद्यमान॥
साकर मल्लिक आर रूप—दुइ भाई।
दुई प्रति कृपादृष्टे चाहिला गोसाईं॥ (चै. भा. अ. 9/171-172)
श्रीवृन्दावन ठाकुर द्वारा रचित श्रीचैतन्य भागवत के ऊपर लिखित प्रमाण द्वारा सुनिश्चित रूप से यह प्रमाणित हो जाता है कि रूप गोस्वामी का बादशाह द्वारा दिया गया नाम दविरखास और सनातन गोस्वामी को बादशाह द्वारा दिया गया नाम साकर मल्लिक था।
श्रीकृष्ण लीला के दोनों पार्षद — श्रीरूप और सनातन के द्वारा संसार त्याग कर श्रीगौरलीला की पुष्टि के समय, परमेंश्वर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जी अपने भक्त वृन्द के साथ रामकेलि ग्राम में आकर, उन दोनों से मिले थे। भौमलीला में संसार-वासियों की शिक्षा के लिए भक्त और भगवान ने अपने स्वरूपगत भावों को गुप्त रखने की चेष्टा की और पारस्परिक सान्निध्य में स्वरूप भाव में प्रकट हुए। इस कारण रूप-सनातन, महाप्रभु जी के दर्शन मात्र से ही स्वाभाविक भाव से उनके प्रति आकृष्ट हुए और महाप्रभु जी भी उन दोनों (रूप-सनातन) के प्रति आकृष्ट हुए। सांसारिक लोगों की शिक्षा के लिए उन्होंने सांसारिक व्यक्तियों की भाँति व्यवहार किया था। महाप्रभु जी के अनुगणित भक्तों के साथ रामकेलि ग्राम में जाने से उस समय के बंगाल के बादशाह हुसैन डर गये और उन्होंने महाप्रभु जी पर शक किया था। केशव नामक एक क्षत्रिय भक्त महाप्रभु जी को तत्त्व से जानते थे। अतः उन्होंने बादशाह को समझाया कि एक फकीर संन्यासी तीर्थ यात्रा के लिए निकले हैं, साथ दो चार लोग हैं, उसके कारण भयभीत होने की कोई वजह नहीं है।
बादशाह ने जब रूप गोस्वामी जी से इस विषय में पूछा तो रूप गोस्वामी जी ने भी महाप्रभु जी की महिमा बताकर उन का सन्देह दूर किया। बाद में आधी रात को रूप व सनातन दोनों भाई, महाप्रभु जी के साथ मिलने की आशा से पहिले नित्यानन्द और हरिदास के साथ मिले। वे ही रूप-सनातन को महाप्रभु जी के निकट लाये। रूप-सनातन दोनों ही तिनके के गुच्छे दान्तों में दबाकर अर्थात दीनता के साथ गले में कपड़ा डालकर महाप्रभु जी के चरण-कमलों में दण्डवत् प्रणाम करके बड़ी दीनता के साथ रोने लगे। उन्होंने कहा —
जगाई मधाई हैते कोटि कोटि गुण।
अधम पतित पापी आमी दुइ जन॥
म्लेच्छ जाति,म्लेच्छ संगी करी म्लेच्छ कर्म।
गो-ब्राह्मण द्रोहि संगे आमार संगम॥
मोर कर्म मोर हाते गलाय बांधिया।
कुविषय विष्ठा गर्त्ते दियाछे फेलिया॥
[अर्थात — रूप सनातन कहने लगे — प्रभो! जगाई मधाई से भी हम दोनों करोड़ करोड़ गुना अधम हैं, पापी हैं, तथा पतित हैं। हमारा मेंलजोल गो ब्राह्मण के द्रोहियों के साथ है। मेरे कर्मों ने तो मेरी गर्दन को पकड़ कर मुझे विष रूपी कुविषय के खड्डे में फेंक दिया है।]
श्रीमन्महाप्रभु जी ने रूप सनातन जी के बहुत से दीनता पूर्ण वाक्यों को सुन कर आर्द्र मन से, रूप सनातन के सम्बन्ध में जो सब बातें कहीं, उनसे मालूम पड़ता है कि रूप-सनातन बद्धजीवों की तरह साधारण मनुष्य नहीं थे, वे भगवान के नित्यपार्षद थे —
गौड़ निकट आसिते नाहि मोर प्रयोजन।
तोमा दुंहा देखिते, मोर इंहा आगमन॥
एई मोर मनेर कथा केह नाही जाने।
सब वले, केने आइला, रामकेलि ग्रामें॥
भाल हैल दुई भाई आइला मोर स्थाने।
घरे याह,भयकिछु ना करिह मने॥
जन्मे जन्मे तुमि दुइ किंकर आमार।
अचिराते कृष्ण तोमाय करिबे उद्धार॥
एत बलि दुंहार शिरे धरिल दुई हाते।
दुइ भाई धरि प्रभुर पद निल माथे॥ (चै. च. म. 1/212-16)
[महाप्रभु जी अपने भाव में रूप-सनातन जी को कहते हैं कि गौड़ देश में आने का मेरा कोई प्रयोजन नहीं था। आप दोनों को देखने के लिए ही मैं यहाँ आया हूँ। यह मेरे मन की बात है जिसे दूसरा कोई नहीं जानता है। सब कहते हैं कि रामकेलि ग्राम में आप क्यों आये? बहुत अच्छा हुआ कि आप दोनों भाई मेरे पास आ गये। अच्छा अब आप घर जाओ, मन में किसी प्रकार का भय नहीं करना। तुम दोनों जन्म-जन्मान्तर से मेरे दास हो। श्रीकृष्ण शीघ्र ही आप दोनों का उद्धार करेंगे। इस प्रकार कहकर महाप्रभु जी ने अपने दोनों हाथ दोनों के सिर पर रख दिये और दोनों भाइयों ने महाप्रभु जी के चरण अपने शिर पर धारण कर लिए। अर्थात् अपने सिर उन्होंने महाप्रभु जी के चरणों में रख दिये।]
भक्तों की कृपा के द्वारा ही जीव का उद्धार होता है, जगतवासियों को यह शिक्षा देने के लिए, श्रीमन्महाप्रभु ने श्रीनित्यानन्द, श्रीहरिदास, श्रीवास, श्रीगदाधर, श्रीमुकुन्द, श्रीजगदानन्द, श्रीमुरारी तथा श्रीवक्रेश्वर आदिभक्तवृन्द के द्वारा रूप-सनातन जी को आशीर्वाद दिलवाया। बातों-बातों में श्रीरूप गोस्वामी व श्रीसनातन गोस्वामी जी ने महाप्रभु जी से वृन्दावन जाने की परिपाटी के सम्बन्ध में कुछ कहा जिसे सुनकर श्रीमन्महाप्रभु जी ने वृन्दावन जाना स्थगित करके कानाई की नाटशाला से वापिस जाने का संकल्प कर लिया —
“यांहा संगे चले एइ लोक लक्ष-कोटि,
वृन्दावन याईवार ए नहे परिपाटी।”
अर्थात — सनातन गोस्वामी जी ने कहा कि जिनके साथ लाख करोड़ मनुष्य चल रहे हों, वृन्दावन जाने की यह रीति नहीं है।
रूप-सनातन के द्वारा महाप्रभु जी जगत् को शिक्षा देंगे, उसका पहला प्रमाण ही है रामकेलि ग्राम में। श्रीमन्महाप्रभु जी का रूप-सनातन के साथ ये प्रथम साक्षात्कार था। श्रीमन्महाप्रभु की इच्छा से रूप सनातन के हृदय में तीव्र वैराग्य पैदा हो गया और संसार त्याग करने का महाप्रभु जी का इशारा भी वे समझ गये। दोनों भाईयों ने विषय त्याग करने के तरीके के बारे में सोचकर बहुत सा धन देकर दो ब्राह्मणों से कृष्ण-मन्त्र का पुरश्चरण* करवाया।
{*पुरश्चरण:— प्रातः,मध्यानह और सायं — इन तीनों समयों में पूजा, नित्यजाप, नित्य तर्पण, नित्य होम और नित्य ब्राह्मण भोजन — इस पंचांग को पुरश्चरण कहते हैं। मन्त्र-सिद्धि के लिए ही पुरश्चरण की व्यवस्था है। श्रीनाम महामन्त्र के साथ पुरश्चरण विधि की तुलना नहीं करनी चाहिए। एक बार नाम के उच्चारण के फलस्वरूप ही पूरे पुरश्चरण का फल मिल जाता है, इसके लिए हरिनाम के पुरश्चरणकी कोई अपेक्षा नहीं होती।}
श्रील रूप गोस्वामी राजकार्य से अवकाश ग्रहण करके, अपने बड़े भाई श्रीसनातन गोस्वामी जी के लिए गौड़देश में एक करयाने की दुकान में दस हज़ार मुद्राएँ रखकर बाकी सारा धन लेकर नौका द्वारा वाकला चन्द्रद्वीप में आ गए। यहाँ आकर उन्होंने सारा धन ब्राह्मणों व वैष्णवों को बाँट दिया। मात्र एक चतुर्थ अंश कुटुम्ब के भरण पोषण के लिए व एक चौथाई हिस्सा आपात्कालीन समय के लिए एक विश्वासी ब्राह्मण के पास सुरक्षित रख दिया।
महाप्रभु जी वन-पथ से कब वृन्दावन की यात्रा करेंगे, यह जानने के लिए उन्होंने दो दूतों को पुरुषोत्तम क्षेत्र में भेजा। इधर सनातन गोस्वामी जी ने भी बीमारी का बहाना बनाकर प्रधान मन्त्री का कार्य छोड़ दिया और विद्वानों को लेकर अपने घर में श्रीमद् भागवत की चर्चा करते रहे। बादशाह हुसैन शाह ने पहले अपने वैद्य को भेजकर व बाद में स्वयं जाकर सनातन जी को काफी समझाया और बार-बार उन्हें अपना पद संभालने के लिए कहा, परन्तु सनातन जी के कार्य करने की अनिच्छा को देखकर गुस्से से अथवा इस शंका से कि मेरे इधर-उधर जाने पर ये मेरा तख्ता पलट डाले, इसलिए उसने सनातन जी को कारागार में डाल दिया। स्वयं बादशाह को उड़ीसा की ओर युद्ध के लिए जाना था, सो वह सनातन जी को कारागार में डालकर युद्ध के लिए चला गया।
महाप्रभु जी वन-पथ से वृन्दावन यात्रा पर निकाल पड़े हैं, यह समाचार आने पर ही रूप गोस्वामी जी ने घर छोड़कर अपने भाई अनुपम के साथ महाप्रभु जी से मिलने के अभिप्राय से यात्रा शुरु की। श्रीरूप गोस्वामी जी ने पत्र के माध्यम से श्रीसनातन गोस्वामी जी को किसी भी प्रकार से मुक्त होकर वृन्दावन की ओर यात्रा करने का संकेत दिया।
श्रीरूप गोस्वामी जी प्रयाग में जा पहुँचे। क्योंकि महाप्रभु वहाँ पर हैं, यह मालूम हुआ था उन्हें एक दक्षिण भारतीय ब्राह्मण से। महाप्रभु जी के दर्शन करके प्रेमाविष्ट होकर दोनों ही गिर पड़े और दान्तों में तिनके लेकर, श्रीरूप और अनुपम ने अनेक श्लोक बोल कर तथा बड़ी दीनता पूर्वक महाप्रभु जी को बार बार दण्डवत् प्रणाम किया और उनके सन्मुख बैठे रहे। महाप्रभु जी भी प्रेमाविष्ट होकर बोले —
कृष्ण-करुणा किछु न जाय वर्णने।
विषय कूप हैते तोमा काढ़िल दुई जने॥
भगवान को अभक्त चतुर्वेदी ब्राह्मण की अपेक्षा, डोम कुलमें पैदा हुए भक्त प्यारे हैं। जिस प्रकार भगवान पूज्य हैं उसी प्रकार भक्त भी पूज्य हैं — इसी प्रकार की भक्त-महिमा सूचक श्लोकों को पढ़कर श्रीमन्महाप्रभु ने दोनों को आलिंगन किया और दोनों के मस्तक पर श्रीचरण कमल रखने की कृपा की। श्रीमन्महाप्रभु जी की कृपा प्राप्त कर के कृत-कृतार्थ हुए, दोनों ने हाथ जोड़कर महाप्रभु जी को प्रणाम किया—
“नमो महावदान्याय, कृष्ण प्रेम प्रदायते।
कृष्णाय कृष्ण चैतन्य नाम्ने गौरत्विषे नमः॥”
महाप्रभु जी ने रूप गोस्वामी जी से, सनातन गोस्वामी जी के कारावास में बन्द होने का समाचार पाकर, ये भविष्य वाणी की कि श्रीसनातन गोस्वामी तुरन्त कारावास से मुक्त होकर तुम से मिलेंगे। दक्षिण भारतीय ब्राह्मण के निमन्त्रण पर श्रीरूप गोस्वामी और श्रीअनुपम गोस्वामी ने उसके घर जाकर महाप्रभु जी का शेष बचा हुआ प्रसाद पाया। यमुना पार आड़ाईल ग्राम में श्रीवल्लभ भट्ट के पास महाप्रभु जी के शुभागमन का समाचार पहुँचने पर उन्होंने दौड़ कर महाप्रभु जी को दण्डवत् प्रणाम किया। महाप्रभु जी ने भी वल्लभ भट्ट को आलिंगन किया।
महाप्रभु जी के साथ कृष्ण-कथा की चर्चा में महाप्रभु जी की प्रेमाविष्ट अवस्था देखकर वल्लभ भट्ट विस्मित हो गये। वल्लभ भट्ट को देखकर श्रीरूप और अनुपम दोनों ने उनको दूर से प्रणाम किया। वल्लभ भट्ट ने उनको छूने की इच्छा की परन्तु दोनों भाई यह कह कर दूर हट गयेकि वे पापी और अछूत हैं, उनको छूना उचित नहीं। रूप और अनुपम की दीनता देख कर महाप्रभु जी बड़े प्रसन्न हुए परन्तु भट्टजी को विस्मय हुआ।अतः महाप्रभु जी ने मुस्कुराते हुए वल्लभ भट्ट को कहा –
आप तो वैदिक कुलीन ब्राह्मणहैं तथा उम्र में भी बड़े हैं जबकि ये रूप और अनुपम तो आपके स्पर्श के योग्य भी नहीं है, क्योंकि ये दोनों तो छोटीजाति के हैं।
वल्लभ भट्ट समझ गए कि महाप्रभु जी की इस बात मेंज़रूर कुछ रहस्य है। जो सदा कृष्ण नाम करते हैं वे भला क्या अधम हो सकते हैं?
वल्लभ भट्ट ने महाप्रभु जी को भक्तों सहित अपने घर आने को आमंत्रित किया। महाप्रभु जी भट्ट जी का निमंत्रण स्वीकार करते हुए नाव में चढ़ उनके घर गए। वहाँ वे यमुना जी के जल का दर्शन करके प्रेमाविष्ट होकर नृत्य करने लगे जिससे सब सहम से गए। महाप्रभु जी के यमुना में छलांग लगा देने पर, सब ने मिल कर उन्हें पानी से निकाला और पुन: नौका में बिठा लिया। वल्लभ भट्ट ने महाप्रभु जी को अपने घर में लाकर उनके चरण कमल धोकर उनके चरणों की धोवन को अपने मस्तक पर धारण किया और अनेक प्रकार से उनकी पूजा की। वल्लभ भट्ट ने महाप्रभु जी को विविध प्रकार के तरीकों से भोजन करवाया।
महाप्रभु जी के बचे हुए प्रसाद से भट्ट जी ने श्रीरूप और अनुपम को तृप्त करवाया। उसके बाद मुख शुद्धि के लिए वल्लभ भट्ट ने महाप्रभु जी को कुछ दिया तथा महाप्रभु जी की सोने की व्यवस्था करके उनके पाँव दबाने आदि की सेवा करके कृत-कृतार्थ हुए। महाप्रभु जी के निर्देश से वल्लभ भट्ट ने भी भोजन किया और दोबारा महाप्रभु जी के पास आए ही थे कि तभी त्रिहुत देश के वैष्णव — पंडित रघुनाथ उपाध्याय वहाँ उपस्थित हुए। रघुनाथ उपाध्याय से कृष्ण की महिमा वर्णन सूचक, उन द्वारा रचित अपूर्व श्लोक सुन कर महाप्रभु प्रेमाविष्ट हो कर गिर पड़े। महाप्रभु जी के श्रेष्ठ रूप, श्रेष्ठ त्याग, श्रेष्ठ उम्र एवं श्रेष्ठ आराध्य के सम्बन्धमें प्रश्न करने पर उत्तर में, उपाध्याय के ये बोलने पर कि श्याम रूप ही सर्वश्रेष्ठ स्वरूप है, मधुपुरी (मथुरा) ही श्रेष्ठ पुरी है, किशोर उम्र ही श्रेष्ठ उम्र है और शृंगार रस ही सर्वश्रेष्ठ रस है — महाप्रभु जी ने बहुत प्रसन्न होकर उनका आलिंगन कर लिया। आड़ाइल ग्राम के निवासी महाप्रभु जी का दर्शन करके, श्रीकृष्ण-भक्त हो गए। वल्लभ भट्ट महाप्रभु जी को नौका द्वारा गंगा के रास्ते से पुन: प्रयाग ले आए। लोगों की भीड़ जुडने के भय से श्रीमहाप्रभु जी ने प्रयाग के दशाश्वमेघ घाट के एकांत स्थान में कृष्ण-तत्व, भक्ति-तत्व, रस-तत्व, सर्व-तत्व और काल धर्म से लुप्त वृन्दावन की रस केलिवार्ता की चर्चा की व उनका रूप गोस्वामी जी में संचार किया। यही रूप शिक्षा नाम से प्रसिद्ध है। श्रीशिवानंद सेन के पुत्र कवि कर्णपूर ने तो अपने ग्रंथ में महाप्रभु जी के साथ रूप गोस्वामी जी से मिलने की बात का बड़ा विस्तृत वर्णन किया है—
कालेन वृन्दावन केली वार्ता लुप्तेति ख्यापयितुं विशिष्य।
कृपामृते नाभिषेषेच देवस्तत्रैव रूपंच सनातनंच।
(चै. च. नाटक 9/38)
समय के प्रभाव से जो वृन्दावन क्रीड़ावार्त्ता लुप्त हो गयी थी, उसी लीला का प्रचार करवाने के लिए श्रीगौरांग देव जी ने कृपा करके श्रीरूप व श्रीसनातन को नियुक्त किया था ।
प्रिये स्वरूपे, दयित स्वरूपे प्रेम स्वरूपे सहजाभिरूपे ।
निजानुरूपे, प्रभु रेकरूपे, ततान रूपे स्वविलास रूपे॥
(चै. च. नवम् अंक)
अपने प्रियस्वरूप, दयितस्वरूप, प्रेमस्वरूप, स्वाभाविक मनोज्ञ विशिष्ट मुख्यरूप तथा अपने अनुरूप,—इस प्रकार भगवान ने अपने विलास रूपों को श्रीरूप गोस्वामी में संचारित किया।
श्रीमन् महाप्रभु जी ने श्रीरघुनाथ दासगोस्वामी जी को श्रीस्वरूप दामोदर जी के हाथों मेँ सौंप दिया था। इसी समय श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी स्वरूप दामोदर जी के साथ पुरुषोत्तम धाम में सोलह वर्ष रहे थे। श्रीमन् महाप्रभु व श्रील स्वरूप दामोदर जी द्वारा अन्तर्धान लीला करने पर रघुनाथ दास गोस्वामी उनके विरह से व्याकुल हो उठे। विरह व्याकुल अवस्था में ही वे वृन्दावन में श्रीरूप गोस्वामी व सनातन गोस्वामी जी से मिले और मिलने पर उन्होंने श्रीरूप–सनातन जी को अपने दिल की बात बताई कि वे गोवर्धन पर्वत के ऊपर चढ़कर वहाँ से छलांग लगा कर अपने देह को त्याग देंगे। रघुनाथ दास जी के हृदय के अभिप्राय को समझकर श्रीरूप गोस्वामी जी व श्रीसनातन गोस्वामी जी ने स्नेहपरवश होकर उन्हें काफी कुछ समझाया और अपने तीसरे भाई के रूप में अपने पास ही रख लिया। श्रीरूप गोस्वामी जी के साथ रघुनाथ दास जी की वृन्दावन में ये पहली मुलाकात थी।
षड़गोस्वामियों में से एक थे – श्रीरघुनाथ भट्ट गोस्वामी। श्रीमन् चैतन्य महाप्रभु जी जब वाराणसी धाम में ठहरे हुए थे तो इन्हीं रघुनाथ जी के पिता श्रीतपन मिश्र के घर भोजन करते थे। उन्हीं दिनों रघुनाथ भट्ट जी को श्रीमन् महाप्रभु जी की झूठी थाली इत्यादि धोना व चरण दबाना इत्यादि सेवा मिली थी। रघुनाथ भट्ट जी जब बड़े हो गए तो एक बार वे नीलाचल गए। वहाँ जाकर वे श्रीमन् महाप्रभु जी के लिए नाना प्रकार के व्यंजन बनाते थे व पूर्ण-तृप्ति के साथ उन्हें (महाप्रभु जी को) भोजन करवाते थे। लगभग आठ मास उन्होंने महाप्रभु जी की ये सेवा की। एक दिन महाप्रभु जी ने रघुनाथ भट्ट जी को कहा कि अब तुम काशी जाओ व अपने वृद्ध पिता-माता की सेवा करो। महाप्रभु जी के निर्देशानुसार रघुनाथ भट्ट वापस घर चले आए और दत्तचित्त होकर पिता-माता की सेवा करने लगे। ऐसा करते करते चार साल रघुनाथ भट्ट वहीं काशी में रहे। पिता-माता के अप्रकट होने के बाद रघुनाथ भट्ट जी घर छोड़कर पुन: महाप्रभु जी के पास नीलाचल आ गए। महाप्रभु जी ने रघुनाथ भट्ट को वृन्दावन जाने का आदेश दिया तथा वहाँ वे श्रीरूप गोस्वामी जी के आनुगत्य में रहने लगे । श्रीरूप गोस्वामी जी की ईच्छा से ही ये रघुनाथ भट्ट गोस्वामी जी, श्रीरूप गोस्वामी जी को श्रीमद् भागवत सुनाया करते थे-
“अनिकेत दुंहे वने यत वृक्षगण,
एक एक वृक्षेरे तले एक एक रात्रि शयन।
विप्रगृहे स्थूल भिक्षा काँहा माधुकरी।
शुष्करूटी चाना चिबाय भोग परिहरि॥
करोंया मात्र हाते, कांथा छिड़ा वहिर्वास।
कृष्ण कथा, कृष्ण नाम, नर्तन उल्लास॥
अष्ट प्रहर कृष्ण भजन चारिदंड शयने।
नाम संकीर्तन प्रेमे, सेह नहे कोन दिने।
प्रभु भक्ति रस शास्त्र करये लिखन।
चैतन्य कथा शुने, करे चैतन्य चिंतन॥ (चै. च. म. 19/127-131)
[अर्थात —रूप सनातन जी की दिनचर्या के बारे में कहते हैं कि वे दोनों बिना घर के रहते हैं, जंगल में जितने वृक्ष हैं, एक-एक वृक्ष के नीचे एक एक रात बिताते हैं। स्थूल भिक्षा किसी विप्र के घर में करते हैं तो कहीं माधुकरी करते हैं। कभी-2 तो सब भोगों को त्याग कर वे चने चबाते हैं और सूखी रोटी खाते हैं। हाथ में मिट्टी का करवा, कंधे पर गुदड़ी तथा फटा हुआ वहिर्वास – ये ही उनका वेष था तथा हर समय कृष्ण कथा कहना, कृष्ण नाम करना और आनंद के साथ नृत्य करना – इस प्रकार आठों पहर कृष्ण भजन करना ही उनका कार्य था, मात्र चार दण्ड शयन करते हैं, नाम संकीर्तन के प्रेम में वह भी कभी कभी नहीं करते। कभी भक्ति रस शास्त्र लिखते तो कभी श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की कथा सुनते और हमेशा श्रीचैतन्य महाप्रभु का चिंतन करते रहते।]
श्रीमन्महाप्रभु जी ने रूप गोस्वामी के माध्यम से वृन्दावन की रस क्रीड़ा के सम्बन्ध में और ब्रज प्रेम की प्राप्ति के साधन–विषय की शिक्षा प्रदान की थी—
सनातन कृपाय पाइनु भक्ति सिद्धांत।
श्रीरूप –कृपाय पाइनु भक्ति रस प्रान्त॥
(चै. च. आ. 5/103)
श्रीरूप द्वारा ब्रजेर रस प्रेम लीला।
के कहिते पारे गंभीर चैतन्येर खेला॥
(चै. च. आ. 5/87)
वृन्दावनीयां रस केलिवार्तां
कालेन लुप्तं निज शक्ति मुत्क:॥
संचार्य रूपे व्यतनोत् पुन: स
प्रभो विर्धौ प्रागिव लोक सृष्टिम्॥
(चै. च. म . 19/1)
सृष्टि के पूर्व में ब्रह्मा जी के हृदय में भगवान द्वारा जिस प्रकार — अभिधेय व प्रयोजनात्मक भगवत् तत्त्वकी प्रेरणा की गयी थी, उसी प्रकार भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी द्वारा रूपगोस्वामी जी पर प्रसन्न होकर व अति उत्सक होकर अपनी शक्ति संचारणपूर्वक काल धर्म में लुप्त वृन्दावन की रसक्रीड़ा वार्ता का उनमें विस्तार किया गया।
‘भक्ति-रसामृत-सिन्धु’ नामक ग्रन्थ के लिखने के लिए श्रीरूप गोस्वामी जी ने श्रीमन्महाप्रभु जी का प्रत्यक्ष निर्देश प्रयाग में ही प्राप्त किया था। ‘भक्ति रसामृत सिन्धु’ के पूर्व विभाग के श्लोक 1-2 में श्रील रूप गोस्वामी ने यह व्यक्त किया है —
हृदिर्यस्यप्रेरणया प्रवर्तितः अहं वराकरूपः अपि।
तस्य हरे: पदकमलं वन्दे चैतन्यदेवस्य॥
हृदय में जिनकी प्रेरणा द्वारा सामान्य कंगाल रूपी मैं, भक्ति ग्रन्थ की रचना करने में प्रवृत हुआ हूँ, उन्हीं चैतन्य देव श्रीहरि के चरण कमलों की मैं वन्दना करता हूँ।
षड़गोस्वामियों की चर्चा करते हुए, भक्ति शास्त्रों को लिखना व पढ़ना रूपी भक्ति-अंगों के साधन के सम्बन्ध में प्रभुपाद श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर जी ने जो शिक्षा प्रदान की हैं वह विशेष ध्यान देने योग्य है। यथा — इस प्रकार वैराग्य से परिपूर्ण जीवन में कभी वे (षड़गोस्वामी) भक्ति रस शास्त्र लिखकर कृष्ण भजन करते तो कभी नाम संकीर्तन करते, तो किसी समय गौरलीला स्मरण-मनन के द्वारा कृष्ण भजन करते। प्राकृत सहजियाओं में ऐसा विश्वास बड़ा प्रबल है कि भक्ति शास्त्र लिखना व पढ़ना परित्याग करके अपने आप को मूर्ख बनाने के लिए शास्त्रादि की चर्चा से छुट्टी ले लेना ही भक्ति का साधन है। परन्तु श्रीरूपानुग भक्तों की इस प्रकार की फालतू बातों में कोई आस्था नहीं है। हाँ, साधकों का शास्त्र लिखना व पढ़ना आदि रुपया कमाने, जड़ेन्द्रिय तर्पण करने, जड़ीय मान-सम्मान या पूजा-लाभ अथवा अन्य किसी तुच्छ दुनियावी उद्देश्य के लिए है तो वह गलत है व उसे तो भक्ति लता के साथ उपजी उपशाखा ही कहा जाएगा। इस प्रकार के भ्रष्टाचार-परायण व्यक्ति का कभी भी मंगल नहीं होगा। वास्तविक श्रीमद् रूपानुग भक्तों में इस प्रकार के तुच्छ फलों को प्राप्त करने की कर्मवासना नहीं होती । (श्रील प्रभुपाद जी के अनुभाष्य से)
श्रीमन् महाप्रभु जी ने श्रील रूप गोस्वामी जी के माध्यम से भक्ति रस के लक्षण वर्णन करते हुए अपार भक्ति रस सिन्धु की बूंद का आस्वादन करने की शिक्षा प्रदान करते हुए सूत्र रूप में कृष्ण भक्ति की सुदुर्लभता का प्रतिपादन किया है।
जीव अणुचैतन्य स्वरूप है। अनन्त जीव दो प्रकार के होते हैं —
स्थावर और जंगम।
जंगम प्राणी उन्हें कहते हैं जो चल फिर सकते हों। ये तीन प्रकार के होते हैं – खेचर (आकाश में उड़ने वाले प्राणी), जलचर (पानी में रहने वाले प्राणी), स्थलचर (भूमि पर विचरण करने वाले प्राणी) ।
स्थलचरों में सबसे कम संख्या होती हैं मनुष्यों की। मनुष्यों में भी जो वेद को नहीं मानते (यथा – म्लेच्छ, पुलिन्द, बौद्ध व शबरादि) लोगों को छोड़ देने से मनुष्यों की संख्या और कम हो जाती है। फिर वेद मानने वालों में भी दो प्रकार देखे जाते हैं—
1. धर्माचारी 2. अधर्माचारी। धर्माचारी में भी अधिकांश संख्या होती हैं कर्मनिष्ठों की। करोड़ कर्मनिष्ठों में एक ज्ञानी होता है तथा करोड़ ज्ञानियों में से कोई एक मुक्त होता है और करोड़ मुक्तों में से दुर्लभ कोई एक कृष्ण भक्त होता है। भक्ति को उत्पन्न करवाने में उपयोगी सुकृति रूपी भाग्योदय ही जीवों को सुदुर्लभ कृष्ण भक्ति प्राप्त करवाता है। इसके अलावा गुरु और श्रीकृष्ण की कृपा से ही भक्ति की प्राप्ति होती है। अनुरागमयी शुद्ध भक्ति का आश्रय–स्थल ब्रह्माण्ड, विरजा व ब्रह्मलोक में तो हैं ही नहीं, यहाँ तक कि वैकुण्ठ में भी भक्ति लता का सम्पूर्ण आश्रय स्थल नहीं हैं। वृन्दावन में श्रीकृष्ण चरण रूपी कल्पवृक्ष ही रागमयीभक्ति का परिपूर्णाश्रय स्थल है। श्रील कविराज गोस्वामी द्वारा रचित श्री चैतन्य चरितामृत में ये विषय बड़े सुन्दर रूप से वर्णित हुआ है –
ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव।
गुरु कृष्ण प्रसादे पाय भक्ति लता बीज॥
माली हैया करे सेई बीज आरोपण।
श्रवण-कीर्तन-जले करये सेचन॥
उपजिया बाड़े लता ब्रह्माण्ड भेदि याय।
विरजा ब्रह्मलोक भेदि परव्योम पाय॥
तबे याय तदुपरि गोलोक वृन्दावन।
कृष्णचरण कल्प वृक्षे करे आरोहण॥
तांहा विस्तारित हयां फले प्रेम फल।
इहा माली सेचे नित्य श्रवण कीर्तनादिजल॥
यदि वैष्णव अपराध उठे हाती माता।
उपाड़े वा छिंडे तार शुखि याय पाता॥
ताते माली यतन करि करे आवरण।
अपराध हस्तीर येछे न हय उद्गम॥
किन्तु यदि लतार संगे उठे उपशाखा।
भुक्ति मुक्ति वांछा यात असंख्य तार लेखा॥
निषिद्धाचार कुटिनाटी जीव हिंसन।
लाभ पूजा प्रतिष्ठा यत उपशाखा गन॥
सेई जल पाया उपशाखा बड़ि याय।
स्तब्ध हया मूल शाखा बाड़िते ना पाय॥
प्रथमेई उपशाखार करये छेदन।
तबे मूल शाखा बाढ़ि याय वृन्दावन॥
[अर्थात ब्रह्माण्ड में घूमते-घूमते कोई भाग्यशाली जीव श्रीगुरु व श्रीकृष्ण की कृपा से भक्ति लता का बीज प्राप्त करता है। माली बनकर वह इस बीज को लगाता है और श्रवण-कीर्तन रूपी जल से इसको सींचता है। तब लता उत्पन्न होकर और बढ़कर ब्रह्माण्ड को भेदकर, विरजा व ब्रह्मलोक ही नहीं, अपितु परव्योम को प्राप्त कर जाती है तथा फिर उससे भी ऊपर गोलोक वृन्दावन में पहुँच जाती है और वहाँ श्रीकृष्ण के चरण, जो कल्पवृक्ष के समान हैं, उनपर आरोहण करती है। वहाँ फैलकर इसमें प्रेमरूपी फल लगता है और इधर माली नित्यप्रति श्रवण-कीर्तन आदि जल से सींचता रहता है। परन्तु हाँ, यदि वैष्णव अपराध हो जाए तो वह अपराधरूपी मत्त हाथी की भांति भक्ति-रूपी बेल को उखाड़ फैंकता है और उसके पत्ते सूख जाते हैं। इस लिए माली बड़े यत्न के साथ लता के चारों ओर ऐसी बाड़ लगा देता हैं ताकि अपराध रूपी हाथी न आ सके। इसके साथ यदि भक्ति लता के साथ-साथ भोगों की इच्छा तथा मुक्ति की इच्छा और इसी प्रकार की असंख्य वासनाओं रूपी घास-फूस (अर्थात निषिद्ध आचार, कपटता व जीव-हिंसा, लाभ-पूजा, प्रतिष्ठा आदि उपशाखाओं रूपी खरपतवार – श्रवण कीर्तन रूपी जल सींचन से बढ़ जाएगी तो मूल शाखा का बढ़ना बन्द हो जाएगा और वह बढ़ने नहीं पाएगी। इसलिए आरम्भ में ही उपशाखाओं को उखाड़ फेंकना चाहिए। तभी मूल शाखा बढ़कर वृन्दावन जाएगी ।]
श्रील प्रभुपाद जी ने उपरोक्त महत्वपूर्ण विषय को अपने अनुभाष्य में व्याख्या करके इस प्रकार समझाया है कि श्रवण-कीर्तनादि जल सिंचन के प्रभाव से उपशाखाएँ मजबूत होती जाती हैं व बढ़ती जाती हैं, जिससे मूल लता बढ़ नहीं पाती। वह अपनी जगह रुक जाती है। अपराधरहित होकर अर्थात दु:संग परित्याग न करते हुए अपराधों के साथ अनुष्ठान करते-करते जीव भोग-परायण, बंधन-मोचनाकांक्षी, सिद्धि लोभी, कपटाश्रित , अवैध स्त्री-लम्पट, झूठी भक्ति करने वाला या प्राकृत सहजियावाद का परिपोषणकारी, शौक्र-वंश की मर्यादा के छलावे से पारमार्थिक मर्यादा में आग्रह दिखाने वाला, परीक्षित महाराज द्वारा कलि को दिये गए पाँच स्थानों पर रहने वाला, वैष्णवों में जातिबुद्धिकारी, हरिनाम-मन्त्र, विग्रह व भागवत से अपनी जीविका चलाने वाला, अशुल्क वृति द्वारा धन-संग्रह में तत्पर,निर्जन भजनानन्दी कहलवाकर प्रतिष्ठाकांक्षी, चिद् व जड़ से समन्वयवाद को पोषण के द्वारा यश प्राप्त करने का इच्छुक अथवा ठग गुरुओं का दास बनकर विष्णु-वैष्णवों का विरोधी, अदैव वर्णाश्रम के अधीन व उसका पोषण करने वाला बन जाता है। अर्थात अपनी इंद्रियों के तर्पण में प्रमत्त होकर वह शुद्ध भक्ति को छोड़कर अन्यान्य नाशवान वस्तुओं को प्राप्त करने के उदेश्य से सीधे-साधे लोगों की वंचना करते हुये धार्मिक साधु या महापुरुष कहलाकर अपना परिचय देता है। ऐसा होने से वास्तविक हरि सेवा नहीं हो सकती। यदि पहले कही गयी उपशाखाओं के अंकुरित होते ही सावधानी से उन्हें तुरन्त जड़ से उखाड़ फेंका जाए, तब तो मूल भक्ति लता बढ़ सकती है और बढ़ते-बढ़ते उस लता में अप्राकृत प्रेम रूप फल फलित होने लगेंगे; अन्यथा उपशाखाओं की प्रबलता हरिभजन से साधकों को हमेंशा के लिए हटा देगी, अर्थात तब तुम्हें स्वर्गादि उच्चलोक, मर्त्यलोक में अथवा नरक लोक में क्लेश ही मिलेंगे।
रतिभेद से कृष्ण-भक्ति रस पाँच प्रकार के होते हैं — शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य व मधुर। इनके इलावा गौण रस भी सात प्रकार के होते हैं— हास्य, अद्भुत, वीर, करुण, रौद्र, वीभत्स तथा भय।
पंच रस ‘स्थायी’ व्यापी रहे भक्तमने।
सप्तगौण “आगन्तुक” पाइये कारण।
पहले कहे हुए पाँच मुख्य रस ही स्थायी भाव से भक्तों के हृदय में रहते हैं। जबकि हास्य-अद्भुत इत्यादि गौण रस, कोई कारण उपस्थित होने से आगन्तुक भाव से भक्तों के हृदय में उदित होकर मुख्य रस को ही पुष्ट करके निवृत्त हो जाते हैं। श्रीरूप शिक्षा में श्रीमन् चैतन्य महाप्रभु जी ने पाँच मुख्य रसों में मधुर रस को ही सर्वश्रेष्ठ रूप से स्थापित किया। शान्त-रस के भक्त की कृष्ण-निष्ठा व तृष्णा-त्याग, दास्य रस के भक्त में शान्त रस के भक्तों के गुणों के इलावा सेवा भाव भी होता है, जबकि सख्य रस के भक्त की विश्रम्भ (असंकोच) सेवा और जुड़ जाती है। वात्सल्य रस के भक्त द्वारा पालन तथा मधुर रस के भक्त का अपने अंगों से सेवा, क्रमश: गुणाधिक्य के रूप में विराजमान रहता है। (कहने का तात्पर्य शान्त रस के भक्त का मुख्य लक्षण होता है कृष्ण निष्ठा व सांसारिक तृष्णाओं का त्याग का भाव जबकि दास्य रस में शान्त रस के भक्त के जो लक्षण हैं वे तो होते ही हैं, साथ ही दास्य रस का जो अतिरिक्त सेवा भाव है वह भी जुड़ जाता है, इसी प्रकार वात्सल्य — इसमें शान्त, दास्य के सभी गुण, साथ में वात्सल्य रस का पालन भाव भी जुड़ जाता है। इसी प्रकार मधुर रस में शान्त, दास्य, सख्य तथा वात्सल्य के सभी गुणों के साथ-साथ मधुर रस का अपना गुण भी विद्यमान रहता है। ठीक उसी प्रकार जैसे — मिट्टी में आकाश आदि के सारे गुणों की स्थिति रहती है, मधुर रस में सब रसों की मौजूदगी रहती है। इसी कारण मधुर रस का श्रेष्ठत्त्व है।
श्रीमन्महाप्रभु जी ने प्रयाग में दस दिन रहकर श्रीरूप गोस्वामी को शिक्षा प्रदान करके, प्रयाग से नीलाचल जाने की तैयारी की, जिस पर श्रीरूप गोस्वामी जी ने श्रीमन्महाप्रभु जी के साथ जाने के लिए व्याकुल हो गए किन्तु महाप्रभु जी ने श्रील रूप गोस्वामी जी को वृन्दावन जाने और वृन्दावन से वापिसी के समय गौड़देश होकर नीलाचल में उनके साथ मिलने का आदेश दिया।
श्रील रूप गोस्वामी ने श्रीमन्महाप्रभु की आज्ञा का पालन करने के लिए प्रयाग से वृन्दावन जाकर एक मास निवास किया था। बाद में श्रील सनातन गोस्वामी के साथ मिलने की आकांक्षा से, उनकी खोज में वे गंगा के रास्ते से प्रयाग में आए किन्तु तब श्रील सनातन गोस्वामी काशी से प्रयाग आकर, राजपथ से मथुरा की यात्रा के लिए निकल पड़े थे, जिस कारण उनके साथ श्रीरूप और अनुपम का मिलन न हो सका। सनातन गोस्वामी जी को मथुरा में आकर सुबुद्धि राय से श्रीरूप और अनुपम के सारे हाल का पता चला। श्रील रूप गोस्वामी अनुपम के साथ गंगा किनारे के रास्ते से गौड़देश में आ पहुंचे जहाँ गंगा किनारे श्रीअनुपम को श्री रामचन्द्र जी के धाम की प्राप्ति हुई। वृन्दावन में रहने के समय ही श्रीरूप गोस्वामी ने स्वरचित नाटक चन्द्रिका अर्थात कृष्ण लीला नाटक के नान्दी श्लोकों की रचना की थी*।
{*ग्रन्थ के आरंभ में, आशीर्वचन, नमसकर व वस्तुनिर्देश आदि के श्लोकों को नान्दी श्लोक कहा जाता है।}
अनुपम की गंगा प्राप्ति के कारण श्रीरूप गोस्वामी का गौड़देश के गौड़ीय वैष्णवों के साथ पुरी जाने का सुयोग न हुआ और इसी कारण उनके पुरी में पहुँचने में बहुत देरी भी हो गयी थी। गौड़देश से पुरी आते समय उन्होंने उड़ीसा के सत्यभामापुर में एक रात निवास किया था। उस सत्यभामापुर ग्राम में ही उन्हें अपने सत्यभामा नाटक को अलग से लिखने के लिए आदेश हुआ था —
स्वप्न देखि रूप गोसांई करिला विचार।
सत्यभामार आज्ञा पृथक नाटक करिवार॥
ब्रज पुर लीला एकत्र कैराछि घटना।
दुइ भाग करि एवे करिमु रचना॥(चै च अ 1/43-44)
[अर्थात स्वप्न देखकर श्रीरूपगोस्वामी जी ने विचार किया कि सत्यभामा, की आज्ञा है — उनके नाटक को अलग से लिखने की। इसलिए ब्रज की और द्वारका की लीलायों को इकट्ठा लिखने की बजाए अब मैं इनको दो भागों में कर दूँगा।]
श्रील रूप गोस्वामी जी पुरी में पहुँचकर दीनता से जगन्नाथ मन्दिर में जगन्नाथ जी के दर्शन करने के लिए, यहाँ तक कि काशी मिश्र के भवन में महाप्रभु जी के साथ मिलने भी नहीं गए। यद्यपि इनके जगन्नाथ मन्दिर में और मिश्र-भवन में जाने के लिए कोई रुकावट नहीं थी फिर भी क्योंकि उन्होंने श्रेष्ठ ब्राह्मण कुल में पैदा होकर भी, म्लेच्छ के अधीन नौकरी की थी, अत: म्लेच्छ बोध भाव से वे वहाँ नहीं गए। वे सिद्ध बकुल में हरिदास ठाकुर के साथ रहने लगे। श्रीमन्महाप्रभु जी ने रूप गोस्वामी जी को सर्वोत्तम अधिकारी जानते हुये भी रूप गोस्वामी द्वारा जगतवासियों को भक्ति में अनुकूल दीनता की शिक्षा दिलाने के लिए, रूप गोस्वामी को जगन्नाथ मन्दिर में जाने का आदेश नहीं किया —
हरिदास द्वारे सहिष्णुता जानाइल ।
सनातन-रूप द्वारे दैन्य प्रकाशिल ।।(भक्ति रत्नाकर 1/631)
[ अर्थात –श्रीमन् महाप्रभु जी ने श्रीहरिदास जी द्वारा सहिष्णुता का मार्ग दिखाया तथा श्री रूप गोस्वामी व सनातन गोस्वामी जी के द्वारा दीनता को प्रकाशित किया। ]
एक दिन अचानक श्रीमन् महाप्रभु जी श्री रूप गोस्वामी जी को मिलने हरिदास ठाकुर जी के स्थान पर पधारे। वहाँ रूप गोस्वामी के दैन्य रस के शुद्ध प्रेम से आकर्षित होकर, महाप्रभु जी ने उनका आलिंगन किया। हरिदास ठाकुर और रूप गोस्वामी के साथ बैठकर श्रीमन्महाप्रभु ने सबसे पहले उनकी कुशल क्षेम पूछी तथा उसके बाद श्री सनातन आदि के बारे में बातचीत की और इष्ट गोष्ठी भी कुछ समय तक की। उसके बाद एक दिन जब महाप्रभु जी सब भक्तों को लेकर वहाँ आए तो रूप गोस्वामी जी ने सभी भक्तों के चरणों की वन्दना की। श्रीमन्महाप्रभु जी ने स्नेह से सराबोर होकर श्रीअद्वैत प्रभु आर श्रीनित्यानन्द प्रभु जी के द्वारा उनको आशीर्वाद दिलवाया। श्रील रूपगोस्वामी महाप्रभु जी के निजी सेवक गोविन्द जी के माध्यम से प्रतिदिन श्रीमन्महाप्रभु जी का अवशेष प्रसाद पाकर कृत-कृतार्थ होते थे।
कृष्णेर बाहिर नाई करिह व्रज हैते ।
व्रज छाड़ि कृष्ण कभु ना यान काहाते ।।
[ श्रीकृष्ण को व्रज से बाहर न ले जाना क्योंकि कृष्ण व्रज छोड़कर कभी भी कहीं नहीं जाते। ]
श्रीमन्महाप्रभु ने इस प्रकार निर्देश प्राप्त होने पर रूप गोस्वामी जी की विदग्ध माधव नामक रचना का मूल सूत्रपात हुआ। श्रीमन्महाप्रभु जी और श्रीसत्यभामा देवी की इच्छा जानकर श्रील रूपगोस्वामी जी ने ललित माधव और विदग्ध माधव – इन दो अलग नाटकों की रचना की। श्रीमन्महाप्रभु जी की कृपा से श्रील रूपगोस्वामी महाप्रभु के हृदय के गूढ़ भावों से अवगत हो गए थे। रथ यात्रा के समय श्रीजगन्नाथ जी के दर्शन के लिए रथ के आगे श्रीमन्महाप्रभु जी ने राधा भाव से विभावित होकर काव्य प्रकाश के एक सामान्य श्लोक का उच्चारण करके प्रेमाविष्ट होकर नृत्य किया था। उस श्लोक का गूढ़ अर्थ समझना स्वरूप दामोदर के अलावा सब के लिए कठिन था किन्तु श्रील रूप गोस्वामी ने एक स्वरचित श्लोक* में उसका गूढ़ अर्थ सुमधुर भाषा में एक ताल पत्र में लिख दिया। वे उस तालपत्र को छप्पर में खोंसकर समुद्र स्नान करने के लिए चले गए। उनकी इस अनुपस्थिति में श्रीमन्महाप्रभु जी ने छप्पर में खोसा हुआ वह ताल पत्र खोल कर पढ़ा और आश्चर्य चकित हो गए।
{*प्रियः सः अयं कृष्ण: सहचारि कुरुक्षेत्र मिलित-
स्थाहं सा राधा तदिदमुभयोः संगम् मुखम्।
तथाप्यत: खेलन्मधुर मुरली पंच मंजूषे,
मनो मे कालिन्दीपुलिन विपिनाय स्पृहयति
(पद्यावली में श्रील रूप गोस्वामी द्वारा रचित श्लोक।)}
श्रील रूप गोस्वामी के स्नान करके वापिस आने पर श्रीमन्महाप्रभु ने कहा – “हमारे हृदय के गूढ़ अर्थ को तुमने कैसे समझ लिया” – इतना कहने के साथ-साथ महाप्रभु जी ने बड़े प्यार से श्रीरूप गोस्वामी जी के गालों को थपथपाया तथा मुसकुराते हुए उन का दृढ़ आलिंगन कर लिया —
सेई श्लोक लयां प्रभु स्वरूपे देखाईला ।
स्वरूपेर परीक्षा लागि ताहारे पूछिला ॥
मोर अंतर वार्ता रूप जानिले केमने ।
स्वरूप कहे-जानि कृपा कैराछ आपने ॥(चै. च. अ. 1/85-86)
[वह श्लोक लेकर महाप्रभु जी ने श्रीस्वरूप को दिखाया और उनकी परीक्षा के लिए उनसे पूछा कि मेरे हृदय की बात श्रीरूप ने किस प्रकार जान ली?तब स्वरूप जी ने उत्तर दिया कि मैंने जान लिया है किश्रीरूप पर आपकी कृपा हो गयी है।]
एक दिन श्रीलरूप गोस्वामी जी विदग्ध माधव नाटक की रचना कर रहे थे। श्रीमन्महाप्रभु अकस्मात् वहाँ आ पहुंचे और उन्होंने श्रीरूप गोस्वामी जी के मोतियों जैसे लेख की बहुत तारीफ की। वे ताल पत्र पर लिखे श्रीकृष्ण नाम की महिमा सूचक अपूर्व श्लोक* को पढ़कर, प्रेम विभोर हो गए।
{*तुण्डे ताण्डविनीरतिं वितनुते तुण्डावली लब्धये।
कर्ण क्रोड़कड़म्बिनी घटयते कर्णार्बुद्धेभ्यस्पृहाम्।
चेत: प्रांगण संगिनी विजयते सर्वेन्द्रियाणाम् कृतिम्
न जाने जनिता कियद्भिरमृतै: कृष्णतिषैवर्णद्वयी॥ (विदग्धमाधव)
“कृष्ण” ये दो वर्ण कितने अमृत के साथ उत्पन्न हुए हैं, मैं नहीं जानता हूँ। देखो जब नटी की तरह वे मुख में नृत्य करते हैं, तब बहुत मुख प्राप्त करने के अनुराग को बढ़ाते हैं अर्थात प्रबल इच्छा होती है कि मेरे बहुत से मुख हों। जब कर्ण कुहरों में ये कृष्ण ध्वनि प्रवेश करती है तो अरबों कानों के लिए आकांक्षा पैदा करती है। जब दिल के आँगन में ये कृष्णनाम संगिनी के रूप में उदित होता है तो ये सब इंद्रियों की सभी क्रियाओं को जीत लेता है।}
नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर, रूप गोस्वामी द्वारा रचे श्लोक में श्रीकृष्ण नाम की अत्यद्भूत महिमा सुनकर परमोल्लास के साथ नाचने लगे –
कृष्ण नामेर महिमा शास्त्र साधुमुखे जानि ।
नामेंर माधुरी ऐछे, काहा नाहि शुनि ॥
अर्थात कृष्ण नाम की महिमा शास्त्रों में व साधुओं से सुनी जाती है, हरिनाम की जिस प्रकार मधुरिमा इस श्लोक में हैं, उस प्रकार की मधुरिमा कहीं भी नहीं सुनी जाती। श्रीमन्महाप्रभु, स्वरूप दामोदर, राय रामानन्द व सार्वभौम भट्टाचार्य आदि भक्तों को लेकर रूप गोस्वामी जी के पास गए तो रूप गोस्वामी जी द्वारा रचित “प्रिय: सः अयं” श्लोक का पाठ करके स्वरूप दामोदर जी ने सबको सुनाया । “महाप्रभु जी की कृपा के फल से ही ब्रह्मा के लिए दुर्बोध्य सिद्धान्त रूप गोस्वामी जी के हृदयंगम हो गया है” — ऐसा कहकर राय रामानन्द व सार्वभौम भट्टाचार्य ने अपना मत प्रकट किया।
श्रीमन्महाप्रभु के निर्देशानुसार श्रील रूप गोस्वामी ने कृष्ण नाम की महिमा से भरपूर श्लोक ‘तुण्डे ताण्डविनी’ का पाठ किया, जिससे भक्त लोग आनन्दित व विस्मित हो गए। सब बोले कि नाम की अपर महिमा सुनी है पर ऐसा मधुर वर्णन किसी और ने नहीं किया। राय रामानन्द जी विदग्ध माधव और ललित माधव की विषय वस्तु के सम्बन्ध में श्रीरूप गोस्वामी जी से चर्चा करके विस्मित हो गए। राय रामानन्द जी ने रूप गोस्वामी जी से इष्टदेव के सम्बन्ध में वर्णन सुनने की इच्छा प्रकट की तो रूप गोस्वामी जी ने पहले महाप्रभु जी के सामने व्याख्या करने में संकोच दिखाया परंतु महाप्रभु जी द्वारा बार बार निर्देश देने पर, पाठ करके सुनाया। महाप्रभु जी ने यह अधिक स्तुति है कहकर बाहर से असन्तोष प्रकट किया था किन्तु भगवद्-भक्त लोग श्लोक सुनकर आनंद सागर में डूब गए। रूप गोस्वामी जी ने जो दो श्लोक बोले वे विदग्ध माधव के प्रथम अंक के मंगलाचरण के निम्न दो श्लोक* थे।
{*अनर्पितचरीत् चिरात् करुण्यावतीर्ण: कलौ
समर्पयितुमुन्नतो-ज्वलरसाम् स्वभक्तिश्रियम् ।
हरि पुरट सुन्दर द्युति कदम्ब संदीपित:
सदा हृदय कन्दरे स्फुरतु व: शचीनन्दन: ॥
स्वर्णकान्ति समूह द्वारा दीप्तमान शचीनन्दन हरि तुम्हारे हृदय में स्फूर्तिलाभ करें। इस संसार को एक लंबे समय से जिस सर्वोत्कृष्ट उज्ज्वल रस को नहीं दिया था, उसी अपनी भक्ति रूपी सम्पत्ति का दान करने के लिए ही वे कलिकाल में अवतरित हुए हैं ॥}
श्रील रूप गोस्वामी की अप्राकृत प्रेमरस से भरी कविता सुनकर राय रामानन्द जी अपने हजारों मुखों से उस की प्रशंसा करने लगे —
एत शुनि राय कहे प्रभुर चरणे।
रूपेर कवित्त्व प्रशंसि सहस्त्रवदने॥
कवित्व का हय एइ अमृतेर धार।
नाटक लक्षण एवं सिद्धान्तेर सार॥
प्रेम परिपाटी एइ अद्भुत वर्णन ।
शुनि चित कर्णेर हय आनन्द घूर्णन ।। (चै. च. अ. 1/192-94)
[यह सुनकर श्री राय रामानन्द जी श्रीमन्महाप्रभु जी के चरणों में श्रीरूप गोस्वामी जी के कवित्त्व की हजारों मुखों से प्रशंसा करते हैं व कहते हैं कि यह कवित्त्व नहीं हैं, यह तो अमृत की धारा हैं।इसमें नाटक के सभी लक्षण हैं तथा ये सिद्धान्तों का सार है।इस में प्रेम की रीति का अद्भुत वर्णन है। इसे सुनकर चित्त को तथा कानों को अति आनन्द मिलता है ।]
कालीदास के क्व्य की महिमा तब तक ही थी, जब तक रूप गोस्वामी जी के अप्राकृत रस-युक्त काव्य का प्रकाश नहीं हुआ था ।
श्रीमन्महाप्रभु जी के निर्देशानुसार पहिले सनातन गोस्वामी जी पुरी से झाड़ीखण्ड के रास्ते से वृन्दावन आ पहुँचे। सनातन गोस्वामी के वृन्दावन पहुँचने के लगभग एक वर्ष बाद वे श्रीरूप गोस्वामी जी को मिले क्योंकि तब वे गौड़देश गए हुए थे। ज़मीन-जायदाद और संचित धनादि-अपने परिवार में व ब्राह्मणों को और मन्दिरों में ठीक प्रकार से बाँटने के लिए ही श्रीरूप गोस्वामी जी वापस गौड़ देश में आए थे। वृन्दावन में श्रीलरूप गोस्वामी जी ने श्रीगोविंद जी की सेवा और श्रीसनातन गोस्वामी जी ने मदनमोहन जी की सेवा का प्रकाश किया था।
श्रीभक्ति रत्नाकर ग्रन्थ में श्रीगोविन्द देव जी के प्रकट होने की कथा इस प्रकार लिखी है —
श्रीमन्महाप्रभु जी के चार निर्देशों — “लुप्त तीर्थों का उद्धार, श्रीविग्रह की सेवा का प्रकाश, शुद्ध भक्ति शास्त्रों का प्रचार तथा नाम-प्रेम का प्रचार,” का श्रीरूप गोस्वामी ने यथायोग्य पालन किया था। श्रीव्रजेन्द्र नन्दन श्रीगोविन्द जी के विग्रह का सेवा प्रकाश किस प्रकार होगा, इस चिन्ता में श्रीरूप गोस्वामी श्रीव्रजमण्डल में श्रीगोविन्द देव जी की खोज के लिए, गाँव-गाँव और वन-वन में फिरे थे। योग पीठ में, भगवान की मौजूदगी शास्त्र में लिखी है। ब्रज वासियों के घर-घर में खोजने पर भी कहीं भी गोविन्ददेव का दर्शन न पाकर, धैर्य खोकर एक दिन वे यमुना के किनारे विरह से व्याकुल हृदय से बैठे थे कि ऐसे समय में व्रजवासी का रूप धरण कर के एक व्यक्ति उनके निकट आ उपस्थित हुआ। उस व्रजवासी ने बहुत मीठी वाणी में रूप गोस्वामी के दु:ख का कारण पूछा। रूप गोस्वामी जी ने उनके रूप और वचनों से आकृष्ट होकर हृदय की सारी बात उसके आगे निवेदन कर दी। व्रजवासी रूप गोस्वामी जी को सांत्वना देकर बोले — चिन्ता का कोई कारण नहीं। वृन्दावन में गोमाटीला नामक योग पीठ में गोविन्द देव गुप्त रूप से रहते हैं। एक सुलक्षणा गाय प्रतिदिन पूर्वाह्न के समय, उल्लास से भर कर वहाँ दूध देती है” — यह बात कह कर व्रजवासी अन्तर्धान हो गया।
कृष्ण आए थे, मैं पहचान न पाया” —यह सोच कर रूप गोस्वामी जी मूर्च्छित हो गए। अन्तत: श्रील रूप गोस्वामी जी ने किसी प्रकार विरह दु:ख का संवरण करके व्रजवासियों को गोविन्द देव जी के प्रकट होने के स्थान की बात बताई। व्रजवासियों ने परम उल्लास के साथ गोमाटीला की भूमि की खुदाई की, और वहाँ से करोड़ों कामदेवों को मोहित करने वाले व्रजेन्द्र नन्दन श्रीगोविन्द देव का आविर्भाव हुआ। कहा जाता है कि श्रीगोविन्द देव जी के श्रीविग्रह को श्रीकृष्ण के पोते व्रजनाभ जी ने प्रकट किया था। गोमाटीला में गोविन्द देव जी के पुन: प्रकट होने पर पहिले पर्णकुटि (पत्तों की झोंपड़ी) में उनकी सेवा होती थी। बाद में श्री रघुनाथ भट्ट गोस्वामी के शिष्यों ने गोविन्द देव जी के मन्दिर और बरामदे आदि का निर्माण किया था। सन् 1590 में अम्बरा के राजा मान सिंह ने लाल पत्थर से मन्दिर का संस्कार करवा कर अद्भुत शिल्पकर्म से चित्रित मन्दिर बनवाया। यह हिन्दु-स्थापत्य का एक अतुलनीय नमूना है। ग्रोज साहिब ने ‘मथुरा’ नामक ग्रन्थ में गोविन्द जी के मन्दिर के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है —
The Temple of Govinda Dev is not only the finest of this particular series, but is the most impressive religious edifice that Hindu art has ever produced at best in upper India.
सात मंज़िलों वाला मन्दिर इतना ऊँचा था कि औरंगज़ेब ने आगरे से इसका शिखर (चूड़ा) देखकर, उसकी कई मंज़िलें तुड़वा दी थीं। गोविन्द देव जी के मूल विग्रह म्लेच्छों के डर से उठा कर पहिले भरतपुर में और बाद में जयपुर में ले जाए गए। श्रीरूप गोस्वामी द्वारा रचित ग्रन्थों में से निम्न 15 विशेष ग्रन्थों के नाम भक्ति रत्नाकर ग्रन्थ में लिखे गए हैं —
श्रीहंसदूत काव्य, श्रीमदुद्धव सन्देश, श्री कृष्ण जन्म तिथि की विधि, वृहद्गणोद्देशदीपिका, श्रीकृष्ण और उनके प्रियगणों की मनोहर स्तव माला, प्रसिद्ध विदग्ध माधव व ललित माधव नाटक, दान लीला कौमुदी, भक्ति रसामृत सिन्धु, उज्ज्वलनीलमणि, प्रयुक्ताख्यात् चन्द्रिका, मथुरा महिमा, पद्यावली, नाटक चन्द्रिका, लघुभागवतामृत । ऊपर लिखित ग्रन्थों के अलावा श्रीरूप गोस्वामी ने उपदेशामृत , सिद्धान्त रत्न, काव्य कौस्तुभ आदि अनेक ग्रन्थ लिखे थे।
श्रीनरोत्तम ठाकुर ने श्रीरूपमंजरी अर्थात् श्रील रूप गोस्वामी जी के पादपद्म ही उनके सर्वस्वरूप हैं – ऐसा वर्णन किया है :-
श्रीरूप मंजरीपद, सेइ मोर सम्पद, सेइ मोर भजन पूजन ।
सइ मोर प्राणधन, सेइ मोर आभरण, सेइ मोर जीवनेर जीवन ।
सेइ मोर रसनिधि, सेइ मोर वान्च्छा सिद्धि,
सेइ मोर वेदेर धरम ।
सेइ व्रत, सेइ ताप, सेइ मोर मन्त्र जप,
सेइ मोर धरम करम ।
अनुकूल हबे विधि, सेइ पदे हइवे सिद्धि,
निरखिव एइ दुइ नयने ।
से रूप माधुरी राशि, प्राण कुवलय शशी,
प्रफुल्लित हवे निशि दिने ।
तुया अदर्शन अहि, गरले जारल देहि,
चिर दिन तापित जीवन ।
हा हा प्रभु ! कर दया, देह मोर पद छाया
नरोत्तम लइल शरण । (नरोत्तम ठाकुर)
[ अर्थात – नरोत्तम ठाकुर जी कहते हैं कि श्रीरूपमंजरी के चरण ही मेरी सम्पत्ति हैं, वही चरण मेरी पूजा हैं, भजन हैं। वही मेरे प्राणधन हैं। वही मेरे आभरण हैं, वही मेरे जीवनस्वरूप के जीवन हैं, वही मेरे रस के समुद्र हैं, वही मेरे इच्छा की सिद्धि हैं, वही मेरे वेदधर्म हैं, वही व्रत हैं, वही तप हैं, वही मेरे मन्त्र जप हैं, वही मेरे कर्म हैं, धरम हैं। यदि भाग्य मेरे अनुकूल हो, तो उन्हीं चरणों की मुझे प्राप्ति हो पाएगी तो इन नयनों से मैं उनको देखूगाँ। उस अपार रूप माधुरी रूप चन्द्रमा को देखकर मेरे प्राण रूप कुमुद रात दिन प्रफुल्लित होंगे। आप का अदर्शन रूपी सांप अपने विष से मेरी देह को जला रहा है। बहुत दिनों से मेरा जीवन तप रहा है। हा-हा प्रभु ! मुझ पर दया करो, मुझे अपने चरणों के दर्शन दो, नरोत्तम आपकी शरण में है। ]
श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद ने भी श्रीरूप गोस्वामी जी के चरण कमलों की धूलि को अपना सर्वस्व माना है। रूप गोस्वामी जी के चरण कमलों के इलावा और कोई भी वस्तु वान्छनीय नहीं है,उन्होंने कहा था —
आददानस्तृणम् दंतैरिदं याचे पुन: पुन:।
श्रीमद्रूप पदांभोज धूलि: स्यां जन्म-जन्मनि॥
वृन्दावन में श्री राधा दामोदर मन्दिर के पीछे श्रीरूप गोस्वामी का मूल समाधि-मन्दिर और भजन कुटीर स्थित है। इसके इलावा नन्द गाँव के निकट टेरि-कदम्ब में श्रीरूप गोस्वामी की भजन कुटी मौजूद है। टेरि-कदम्ब में ही श्रील रूप गोस्वामी जी की श्रील सनातन गोस्वामी को खीर का प्रसाद देने पर राधारानी ने बालिका के वेश में खीर पकाने के लिए रूप गोस्वामी जी को दूध, चावल और चीनी दी थी। श्री सनातन गोस्वामी खीर प्रसाद चख कर प्रेम विभोर हो गए थे। श्रीराधा रानी को कष्ट दिया गया है, यह जानकर सनातन गोस्वामी ने रूप गोस्वामी को दोबारा खीर बनाने के लिए मना किया था। भाद्र मास की श्रीझूलन एकादशी के अगले दिन अर्थात् शुक्ल द्वादशी के दिन श्रील रूप गोस्वामी जी ने अपनी जागतिक लीला संवरण की थी।