सुबलो य: प्रिय श्रेष्ठ: स गौरीदास पण्डित: ।
(गौ.ग. 128)
श्रीगौरीदास पण्डित द्वादश गोपालों के अन्तर्गत श्रीसुबल सखा थे। ये श्रीनित्यानन्द प्रभु जी के अन्यतम मुख्य पार्षदों में से एक थे –
“गौरीदास पण्डित परम भाग्यवान ।
काय मनो वाक्ये नित्यानन्द याँर प्राण ॥”
(चै.भा.आ. 5/730)
पहले ये मुरागाछा स्टेशन के समीपवर्ती शालिग्राम नामक गाँव में निवास करते थे। बाद में इन्होंने वर्द्धमान ज़िला के अम्बिका कालना में जाकर स्थायी रूप से वास किया। अम्बिका कालना में रहने से इनके इसी श्रीपाट की प्रसिद्धि हुई। श्रीकंसारि मिश्र इनके पिता और कमला देवी इनकी माता थीं। श्रीकंसारि मिश्र वत्स गोत्रीय थे और इनकी पदवी घोषाल थी। कंसारि मिश्र के छ: पुत्रों में चौथे पुत्र थे, श्रीगौरीदास पण्डित। श्रीदामोदर, श्रीजगन्नाथ और सूर्यदास सरखेल, गौरीदास पण्डित के तीनों बड़े भाइयों में से श्रीनित्यानन्द शक्ति श्रीवसुधा और श्रीजाह्नवा के पिता थे, श्रीसूर्यदास सरखेल। गौरीदास पण्डित के दो कनिष्ठ भाइयों के नाम थे, श्रीकृष्णदास सरखेल और श्री नृसिंह चैतन्य।
“सरखेल सूर्यदास पण्डित उदार ।
ताँर भ्राता गौरीदास पण्डित प्रचार॥
शालिग्राम हैते ज्येष्ठ भ्राताय कहिया ।
गंगातीरे कैला वास अम्बिका आसिया ॥”
(भक्ति रत्नाकर 7/330-337)
गौरीदास पण्डित एवं उनके शिष्य श्रीहृदय चैतन्य का केवलमात्र शिष्य शाखावंश है। श्रीगौड़ीय वैष्णव अभिधान में इस प्रकार लिखा है कि गौरीदास पण्डित की पत्नी विमला देवी को अवलम्बन करके दो पुत्र हुए। दोनों पुत्रों के नाम थे बलराम और रघुनाथ। शौक्रवंश की प्रामाणिकता न होने से श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ने उसे स्वीकार नहीं किया। श्रील सरस्वती ठाकुर जी ने श्रीचैतन्य चरितामृत के अपने अनुभाष्य में इस प्रकार लिखा है ̶ गौरीदास के शिष्य हृदय चैतन्य, हृदय चैतन्य के शिष्य (अन्नपूर्णा देवी के पुत्र) गोपीरमण थे। इनकी वंशावली के लोग आजकल कालना के महाप्रभु जी के मन्दिर के अधिकारी हैं। श्रीगौरीदास पण्डित के पीठ स्थान में जो मन्दिर विद्यमान है, उसके प्रकोष्ठों में श्रीगौरीदास, श्रीराधा-कृष्ण, श्रीगौर नित्यानन्द, श्रीजगन्नाथ, श्रीबलराम, श्रीराम-सीता के श्रीविग्रह विराजमान हैं। श्रीगौरीदास पण्डित के मंदिर में प्रवेश करने के रास्ते में एक अपूर्व इमली का पेड़ है। ऐसा कहा जाता है कि उक्त इमली के वृक्ष के नीचे ही महाप्रभु जी के साथ श्रीगौरीदास पण्डित जी का मिलन हुआ था।
“देवादिदेव गौरचन्द्र गौरीदास मन्दिरे ।
गौरीदास मन्दिरे प्रभु अम्बिकाते विहरे ॥” (प्राचीन पद)
गौरीदास पण्डित जी का श्रीमन्दिर अम्बिका में स्थित है। अंबिका के उत्तर में कालना है। इन दोनों के युक्त होने पर इसका नाम अम्बिका-कालना हो गया है। श्रीमन्दिर में श्रीमन्महाप्रभु का हाथ से चलने वाला नाव का चप्पू और उनकी हस्तलिखित गीता दिखायी जाती है ̶
“एकदिन शांतिपुर हैते गौर राय ।
गंगा पार हैया आइलेन अम्बिकाय ॥
पण्डिते कहय शान्तिपुर गियाछिलु ।
हरिनदी ग्रामे आसि नौकाय चड़िलु ॥
गंगा पार हैलु ̶ नौका बाहिरे बैठाय ।
एइ लह बैठा ̶ एवे दिलाम तोमाय ॥
भवनदी हैते पार करह जीवेरे ।
एत कहि आलिंगन कैला पण्डितेरे ॥”
(भक्ति रत्नाकर 7/333-336)
“प्रभुदत्त गीता, बैठा प्रभु सन्निधाने ।
अद्यापिह अम्बिकाय देखे भाग्यवाने ॥” (भ. र. 7/341)
अर्थात एक दिन श्रीमन् महाप्रभु गौर राय जी गंगा जी को पार करके अम्बिका पहुँचे। वहाँ पहुँचने पर महाप्रभु जी गौरीदास जी को कहते हैं ̶ मैं शान्तिपुर गया था और वहीं से इस गंगा जी को पार करने के लिए मैं हरिनदी गाँव से नाव में चढ़ा, परन्तु जब मैं नदी पार करके उतरा तो मैंने नाव का चप्पू निकाल लिया, जिसे मैं तुम्हें देना चाहता हूँ। और ये चप्पू लो और जैसे मैंने इस नदी को पार किया, उसी प्रकार आप भी जीवों को इस विशाल भव-नदी से पार करवाओ। इतना कहकर महाप्रभु जी ने श्रीगौरीदास पण्डित जी को आलिंगन कर लिया।
आज भी जो लोग अम्बिका जाते हैं, उन्हें महाप्रभु जी के हाथों से गौरीदास जी को दी गयी श्रीमद् भगवद्-गीता व नाव का चप्पू दर्शन करने का सौभाग्य मिलता है।
पतितपावन श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु जिस प्रकार अधिकार व अनाधिकार का विचार न करते हुए सर्वत्र प्रेम प्रदान में उन्मत्त रहते थे, श्रीनित्यानन्द जी के पार्षद श्रीगौरदास पण्डितजी में भी उसी प्रकार की महाशक्ति प्रकट हो गयी थी ̶
“श्रीगौरीदास पण्डिते प्रेमादण्ड भक्ति ।
कृष्ण प्रेमादिते, निते, करे महाशक्ति ॥
नित्यानन्दे समर्पिल जाति कुल पान्ति ।
श्रीचैतन्य नित्यानन्दे करि प्राणपति ॥” (चै. च. आ. 11/26-27)
श्रीगौरीदास पण्डित जी के घर की पश्चिम दिशा में सूर्यदास पण्डित का मन्दिर तथा उससे कुछ ही दूरी पर श्रीभगवानदास बाबा जी का आश्रम स्थित है।
अम्बिका कालना में श्रीगौरीदास पण्डित जी की एक अलौकिक महिमा की बात सुनी जाती है ̶ श्रीमन्महाप्रभु जी ने जिस समय हरिनदी ग्राम से नौका की पतवार (चप्पू) चला कर अम्बिका में गौरिदास पण्डित के घर शुभागमन करते हुए इमली के वृक्ष के नीचे आसन ग्रहण किया था, तब गौरीदास पण्डित जी ने श्रीमन्महाप्रभु से वहाँ चिरदिन ठहरने के लिए प्रार्थना की थी। भक्ति की इच्छा पूरी करने के लिए सामने के नीम के वृक्ष की लकड़ी से श्रीमन्महाप्रभु ने अपने और श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु के दो विग्रह प्रकट किये और यह भी सुना जाता है कि श्रीविग्रह के निर्माण के समय श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु भी वहाँ साक्षात् भाव से उपस्थित थे। गौरीदास पण्डित की अनन्यनिष्ठ शुद्धा भक्ति से वशीभूत होकर उनके द्वारा दिए हुए पदार्थों को, श्रीगौर-नित्यानन्द के विग्रहों ने साक्षात् भाव से भोजन भी किया था। श्रीगौरांग महाप्रभु और श्रीनित्यानन्द महाप्रभु के वहाँ से चले जाने के लिए उद्यत होने पर, श्रीगौरीदास पण्डित ने विरह व्याकुल मन से उनके जाने में बाधा उत्पन्न की तो श्रीमन्महाप्रभु जी गौरीदास पण्डित को दिलासा देते हुए बोले ̶ “हम साक्षात् भाव से तथा विग्रह रूप में प्रकटित हैं। इन दोनों युगलों मंप से जिस युगल को तुम ठहरने के लिए बोलोगे वही युगल ठहरेगा और दूसरा चला जायेगा।” इस पर गौरीदास पण्डित ने विग्रह युगल को जाने के लिए कहा और दोनों को रहने के लिए कहा। गौरीदास पण्डित की इच्छापूर्ति के लिए विग्रह युगल चले गए तथा श्रीगौर-नित्यानन्द श्रीमन्दिर में विराजमान रहे ̶
“नाम विग्रह स्वरूप, तिन एकरूप ।
तिने भेद नाहि तिन चिदानन्द रूप ॥”
अर्थात भगवान के नाम, उनके विग्रह तथा उनके स्वरूप में कोई भेद नहीं है। श्रीचैतन्य चरितामृत में लिखे इस वाक्य की सत्यता यहाँ प्रदर्शित हुई।
श्रीजाह्नवा देवी जी वृन्दावन में श्रीगौरीदास पण्डित की समाधि देख कर रोई थीं ̶
“गौरीदास पण्डितेर समाधि देखिते ।
बहे वारिधारा नेत्रे नारे निवारिते ॥” (भक्ति रत्नाकर 11/259)
अर्थात गौरी दास जी की समाधि को देखकर श्रीजाह्नवा देवी जी अति-व्याकुल हो उठीं, उनके नेत्रों से बहने वाली अश्रु धाराएँ रुकने का नाम ही नहीं लेती थीं।
श्रवण मास की शुक्ला द्वादशी को श्रील गौरीदास पण्डित गोस्वामी जी का तिरोभाव हुआ।
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