दृढ़ श्रद्धा

हम श्रीचैतन्य महाप्रभु की परंपरा से हैं, जिसका उद्देश्य शुद्ध-भक्ति, अनन्य कृष्ण-भक्ति, का अनुशीलन व विस्तार करना है। हमारी परम्परा में हरिनाम दीक्षा प्राप्त करने के लिए मुख्य योग्यता है—परम्परा में सम्पूर्ण विश्वास व दृढ़ श्रद्धा। श्रीकृष्ण की सेवा करने से सभी की सेवा हो जाती है।

प्रश्न: हमारे देश में अन्य किसी धार्मिक संगठन का पंजीकरण करना संभवपर नहीं है क्योंकि यहाँ की न्याय-व्यवस्था के अनुसार ईसाई, इस्लाम व यहूदी धर्म के अतिरिक्त सभी धार्मिक संगठन प्रतिबंधित है। सत्संग आदि का आयोजन व्यक्तिगत रूप से किसी भक्त के गृह में करना उचित है जहाँ सभी भक्त एकत्रित हो सके। इसलिए मेरे मतानुसार आपके द्वारा प्रदत्त धन-राशि का उपयोग अन्य किसी सेवा के लिए करना उपयुक्त होगा।

श्रील गुरुदेव : जैसा कि आपको ज्ञात है कि मैं एक मास से भी अधिक अन्तराल की व्रजमंडल परिक्रमा में अत्यधिक व्यस्त था। दामोदर व्रत की सभी सभाओं में व प्रतिदिन नगर संकीर्तन में भी यथासंभव सम्मिलित होने का मेरा संकल्प है। मुझे बंगाली, हिंदी और अंग्रेजी—तीन भाषाओं में वक्तव्य देना होता था। हरिनाम दीक्षा के लिए इतने अधिक भक्त थे कि दो दिन तक मैं उस सेवा में व्यस्त रहा। व्रजमंडल परिक्रमा के बाद, मैं चंडीगढ़, ऊना (हिमाचल प्रदेश), राजपुरा (पंजाब) और भटिंडा (पंजाब) गया। मैंने ऊना, राजपुरा और भटिंडा मठ के वार्षिक उत्सव में भाग लिया जहाँ मुझे हरिकथा परिवेशन करने का तथा कुछ समय के लिए नगर संकीर्तन में भी सम्मिलित होने का सुयोग लाभ हुआ।

संभवतः इतने व्यस्त कार्यक्रम के कारण, मुझे हृदय सम्बन्धित कुछ समस्या का अनुभव हुआ। श्रीस्वरूप दामोदर दास ने नई दिल्ली के एक हृदय रोग विशेषज्ञ से मेरा स्वास्थ्य-परीक्षण करवाया। मुझे दिल्ली के प्रसिद्ध बत्रा अस्पताल में भर्ती किया गया था, जहाँ एंजियोग्राफी परीक्षण में पता चला कि हृदय की तीन रक्त वाहिकाओं में से एक सम्पूर्ण रूप से अवरुद्ध है व अन्य दो सत्तर व पचास प्रतिशत अवरुद्ध हैं। अभी मुझे पूर्ण विश्राम करने का परामर्श दिया गया है। हृदय रोग विशेषज्ञ, डॉ. कौल ने नियमित दवाईयों के सेवन का निर्देश दिया है। हृदय सम्बन्धित समस्या होने पर भी मैंने सांयकालीन सभा में कथा करनी बंद नहीं की। कुछ आवश्यक कार्य के लिए, डॉ. कौल से अनुमति लेकर, मुझे नई दिल्ली से कलकत्ता वापिस आना पड़ा जहाँ मैंने कलकत्ता मठ के पाँच दिवसीय वार्षिक सम्मलेन में भी भाग लिया।

कुछ एक समय के लिए मैंने नगर संकीर्तन में भी भाग लिया। सम्मलेन में कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश व कई गणमान्य व्यक्ति आएं थे जिन्होंने हाथ जोड़कर मुझसे पूर्णतया विश्राम करने के लिए निवेदन किया। उनके विचार में हृदय की बायपास सर्जरी कराने की अपेक्षा मेरे लिए कुछ महीनों तक विश्राम व नियमित दवाईयों का सेवन करते हुए अपनी जीवनशैली को नियमित करना अधिक उपयुक्त होगा। उनका परामर्श है ‘उपचार से उत्तम है रोकथाम’। मेरी वर्तमान आयु में हृदय की बायपास सर्जरी जीवन की अवधि बढ़ाने में सहायक नहीं होगी। इस हृदय-समस्या के होने पर भी मुझे तेजपुर, ग्वालपाड़ा व गुवाहाटी में स्थित तीनों मठ के वार्षिक उत्सव में सम्मिलित होने के लिए असम आना पड़ा। मैंने तेजपुर व ग्वालपाड़ा में हुए नगर संकीर्तन में भी भाग लिया, जो मेरे लिए उचित नहीं था।

ग्वालपाड़ा में मैंने किंचित हृदय-शूल (anginal pain) का अनुभव किया। मैंने गुवाहाटी मठ में हुए नगर संकीर्तन में भाग नहीं लिया, किन्तु सांयकालीन सभा में नियमित रूप से हरिकथा की। मैं तेजपुर, ग्वालपाड़ा व गुवाहाटी में अनेक भक्तों को दीक्षा प्रदान करने के कर्तव्य में भी अत्यधिक व्यस्त था। मुझे अनेकों टेलीफोन कॉल्स आ रहे हैं कि मैं अन्य किसी समारोह में भाग नहीं लेकर तत्काल कलकत्ता लौट आऊँ, किन्तु क्योंकि मैंने पहले से ही श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी ठाकुर के आविर्भाव महोत्सव के अवसर पर उनकी आविर्भाव स्थली, पुरी मठ में व्यास पूजा महोत्सव के आयोजन की घोषणा कर दी है, मेरे लिए उस कार्यक्रम को रद्द करना संभवपर नहीं है। कुछ विदेशी भक्त पहले से ही पुरी पहुँच गए हैं एवं अनेकों अन्य भक्त भी समारोह में सम्मिलित होने के लिए वहाँ पहुंचने वाले हैं। मैं पाँच अन्य भक्तों के साथ गुवाहाटी से अठारह फरवरी को भुवनेश्वर के लिए हवाई यात्रा करूँगा। व्यास पूजा का अनुष्ठान इक्कीस फरवरी को होगा, धर्म-सभा किन्तु बाईस फरवरी तक है। हम चौबीस फरवरी को कलकत्ता लौटेंगे।

मैंने आपका पत्र पढ़ा। मेरी इच्छा है कि रूस, बेलारूस व मिन्स्क के भक्त एकत्रित हो सके वैसा एक सुविधाजनक स्थायी स्थान हो। मेरे द्वारा दी गयी सेवा-राशि का उपयोग आप जहाँ उचित समझे वहाँ पर कर सकते हैं। अमुक भक्त ने इस सेवा-राशि के कुछ अंश को मिन्स्क के प्रस्तावित स्थान के लिए व्यय करने की इच्छा व्यक्त की थी। इस सम्बन्ध में आप प्रत्यक्ष रूप से उनसे बात कर सकते हैं। उन्होंने मुझे बताया कि प्रस्तावित मठ का निर्माण दो से तीन मास में हो जाएगा। निर्माण कार्य की प्रगति को जानने के लिए मैं उत्सुक हूँ।

जैसा कि आप जानते ही हैं कि प्रायः तीन सौ भक्तों के ‘women devotees association’ की प्रमुख महिलाएँ हमारे आगमन की सूचना मिलने पर समारोह में सम्मिलित होने के लिए आई थीं एवं मुझे बताया गया था कि उनमें से दो या तीन महिला-भक्तों ने दीक्षा ली थी एवं तत्पश्चात् उन्हीं की प्रेरणा से, अन्य पचास महिला-भक्तों ने हरिनाम दीक्षा ग्रहण की थी। वे सभी अति उत्साहित थीं।

मुझे इस संगठन की हरिनाम-प्राप्त एक अग्रणी महिला भक्त से एक पत्र प्राप्त हुआ है जिसमें उन्होंने लिखा है कि किसी घटनावश वे अति निराश हैं। उन्होंने लिखा है, ”हम सभी धर्मों व सभी धार्मिक विचारधाराओं के विषय में जानने की इच्छुक हैं किन्तु किसी एक विचारधारा से जुड़ने की व जगत में प्रचारित किसी एक धर्म से गुरु स्वीकार करने की इच्छा नहीं रखती। यह संघ के सभी सदस्यों का निर्णय है जिसे मानने के लिए मैं बाध्य हूँ। हम विभिन्न विचारधाराओं के प्रतिनिधियों के साथ मुक्त हृदय से संवाद करने की इच्छा रखती हैं; किसी एक विचारधारा से किसी प्रकार से अधिक जुड़े रहना नहीं चाहती हैं। यही हमारा मार्ग है व हमारा निर्णय है।”

[गुरुजी उनके विचारों को पढ़कर इस विषय में अपना मंतव्य बताते हैं] हम श्रीचैतन्य महाप्रभु की परंपरा से हैं, जिसका उद्देश्य शुद्ध-भक्ति, अनन्य कृष्ण-भक्ति, का अनुशीलन व विस्तार करना है। हमारी परम्परा में हरिनाम दीक्षा प्राप्त करने के लिए मुख्य योग्यता है—परम्परा में सम्पूर्ण विश्वास व दृढ़ श्रद्धा। श्रीकृष्ण की सेवा करने से सभी की सेवा हो जाती है। यदि हम वृक्ष की जड़ में जल देते हैं तो पूरे वृक्ष को पोषण मिल जाता है; यदि हम उदर में भोजन देते हैं तो शरीर के सभी अंगों को पोषण मिल जाता है। इसी प्रकार, यदि हम समस्त जगत के कारण तत्व भगवान श्रीहरि की सेवा करें तो अन्य सभी की सेवा हो जाती है। इस प्रकार की दृढ़ श्रद्धा नहीं रहने पर कोई भी हरिनाम प्राप्त करने का अधिकारी नहीं हो सकता। श्रद्धा-रहित व्यक्ति को हरिनाम देना एक प्रकार का अपराध है। हमें इस संबंध में अति सावधान रहना है। हमारी परम्परा का उद्देश्य शिष्यों की संख्या बढ़ाना नहीं है। आपसे मेरा अनुरोध है—आप उस महिला संगठन के सदस्यों अथवा इस महिला भक्त से मिलें व उनसे व्यक्तिगत रूप से बात करके वास्तविक तथ्य को जानें।

हमारे भक्तों को इस विषय में शिक्षा देनी आवश्यक है। एक श्रद्धालु जीव को दीक्षा प्रदान करना एक प्रकार की भगवद्-सेवा है। यदि योग्यता का विचार नहीं करके, संख्या बढ़ाने का कोई आंतरिक उद्देश्य रहे तो हमारा भजन नष्ट हो जाएगा। जिस किसी उपाय से शिष्यों की संख्या बढ़ाना पूर्णतः भक्ति-विरोधी है। हमें यह नहीं करना है।

आशा है आप सभी कुशल-मंगल होंगे।