गुरु-वैष्णवगण परम दयालु हैं, उनकी अहेतुकी कृपा नि:स्वार्थ स्नेह ही जीव को भजन राज्य में अग्रसर कराने में समर्थ है। उनकी करुणा और शुभाशीष मनुष्य का विशेष साधन-सम्पद है। श्री भागवत के श्लोक में वज्र के समान कठोर पाषाण-हृदय, श्रीनाम ग्रहण द्वारा द्रवीभूत हो जाता है एवं अष्टसात्विक विकार आदि श्री नामाश्रयी के विशेष लक्षण हैं, एसा वर्णन है। शास्त्र में श्रीभगवान को ‘पयोद’, ‘वारिद’ (मेघ) कहा गया है। वे बंजर मरुभूमि मैं भी कृपा वर्षा सिंचित करके उसे उपजाऊ भूमि मैं बदल देते हैं। यही उनकी भगवत्ता या विशेष क्षमता है। उनके भक्त-साधारण भी किसी-किसी बंजर भूमि में कृपा-वारी वर्णन करके उसे उपयुक्त करने में सक्षम है। साधन-भजन में अनाश्रित-अवस्था रहने पर दुश्चिंता स्वभाविक है, किन्तु धेर्य-उत्साह के द्वारा उसे दूर करना होगा। साधन करते-करते उसके अनुकूल सद्गुणों का अधिकार प्राप्त किया जाता है। ‘दैन्य, दया, अन्ये मान, प्रतिष्ठा वर्जन। चारिगुणे गुणी हइ करह कीर्तन।। यही साधन में अधिकार प्राप्त करने का सर्वोत्तम उपाय और योग्यता है।