श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु जीवे दया करि’ ।
स्वपार्षद स्वीय धाम सह अवतरि’ ।। (1)
अत्यन्त दुर्लभ प्रेम करिवारे दान ।
शिखाय शरणागति भकतेर प्राण ।। (2)
दैन्य, अत्मानिवेदन, गोप्तृत्वे वरण ।
‘अवश्य रक्षिबे कृष्ण-विश्वास,पालन ।। (3)
भक्ति-अनुकूल मात्र कार्येर स्वीकार ।
भक्ति-प्रतिकूल-भाव वर्जन-अंगीकार ।। (4)
षडंग शरणागति हइबे याँहार ।
ताँहार प्रार्थना शुने श्रीनन्दकुमार ।।(5)
रूप सनातन-पदे दन्ते तृण करि’ ।
भकति विनोद पड़े दुई पद धरि’ ।। (6)
काँदिया काँदिया बले-“आमि त’ अधम ।
शिखाये शरणागति करहे उत्तम” ।। (7)
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जीवो पर दया करके अपने पार्षदो एवं धाम के साथ धराघाम में अवतरित हुए। जो कृष्ण प्रेम अत्यन्त दुर्लभ है, उसी प्रेम को संसार के जीवों को प्रदान करने के लिये ही महाप्रभु ने अवतार लिया । प्रेमी भक्तों के प्राण स्वरूप जो शरणागति है, उसकी शिक्षा प्रदान की ।
3-4-5 दैन्य, ठाकुर जी से आत्मनिवेदन करना, प्रभु को अपने पालन कर्ता के रुप में अनुभव करना, श्री कृष्ण मेरी अवश्य रक्षा करेगें, ऐसा दृढ़ विश्वास रखना, एवं भगवद्-भक्ति के अनुकूल जितने भी कार्य हैं, उन सबका पालन करना तथा भक्ति के प्रतिकूल भाव को परित्याग करना । ये छः
अंगो वाली शरणागति जिसकी होती है, उसकी प्रार्थना को श्रीनन्दनन्दन भगवान कृष्ण सुनते है अर्थात् उसकी प्रार्थना के अनुरुप कृपा करते है ।
6-7 श्री भक्ति विनोद ठाकुर गौड़ीय वैष्णव आचार्य रसिक कुलचूड़ामणि श्री रुप गोस्वामी और श्री सनातन गोस्वामी के चरणों में दांतों में तिनका लेकर अर्थात् अति दैन्यता के साथ धारण करते हुए रो-रोकर प्रार्थना करते हैं, कि मैं अधम हूँ, कृपा करके रो रोकर (हूँ) मैं आप मुझे दिव्य शरणागति का उपदेश देकर उत्तम बना दीजिये ।
सरल व्याख्या :-
भगवद् रुप करुणामय ही होता है, जब संसार के जीव अनाचार, भ्रम एवं दुष्टों से कवलित् हो जाते है, तब उन पर करूणा करने के लिए प्रभु का अवतार होता है । कभी-2 जीवो को उन परिस्थितियों से रक्षा करने के लिए वो अपने पार्षदो को भी धराघाम मे भेजते है। परन्तु इस वैवस्वत मन्वतंर के अठाइसवें कलियुग में स्वयं परम आन्नदकन्द, परम ब्रहम् श्री कृष्ण स्वयं भक्त भाव अंगीकार करके इस धराघाम को कृत्तार्थ करने के लिये आये । चैतन्य महाप्रभु में दूसरे भगवत् विग्रहों से यह विशेषता है कि वे स्वयं भगवान् होकर भी भक्त हैं, जब प्रभु का अवतार होता है, तब उनके लीला सम्पादन के लिये उनके पार्षद और उनके धाम दोनों प्रकाशित होते है ।
ब्रहमा शिव आदि के लिये भी कृष्ण प्रेम दुर्लभ है, कृष्ण प्रेम ही जीवों का चरम पुरुषार्थ है। इस प्रेम को कृष्ण भी देने में हिचकिचाते है । कारण अगर कोई इस प्रेम को प्राप्त कर लेता है तब कृष्ण को भी उसके वंशीभूत होना होता है । परन्तु परमकरुणामय चैतन्यदेव उस दिव्य प्रेम को पतितों में भी बाँट दिये। इससे चैतन्य देव की कृपा शक्ति का परिचय मिलता है । महाप्रभु की शिक्षा अनुसार कृष्ण प्रेम शरणागति के द्वारा पुष्ट होता है इसीलिए शरणागति भक्तों की प्राणस्वरुपा है ।
श्रीलभक्ति विनोद ठाकुर रुप गोस्वामी एवं सनातन गोस्वामी से प्रार्थना करते है क्योकि गौडीय वैष्णव समाज मे अनुशरणत्मिका भक्ति का प्रचलन है । स्वंय के प्रयास से कृष्ण भक्ति की साधना इतनी सुन्दर कभी नही होती है, जितनी कि उस रस के अनुरागी सिद्ध महापुरूषो की कृपा एवं शिक्षा से।