श्रीमद्भगवतगीता

आजकल नानाप्रकार के अप्रामाणिक व्यक्ति गीता का मनगढ़न्त भाष्य प्रकाशित कर रहे हैं, जिसमें सिद्धान्तहीन, स्वकपोलकल्पित चित्-जड़समन्वयवादरूप काल्पनिक मतवाद को धृष्टतापूर्वक प्रस्तुत किया गया है। इन भाष्यों में सनातन शुद्धाभक्ति को तुच्छ दिखलाने की चेष्टा की गई है। ऐसे अधिकांश भाष्यों में या तो कर्म अथवा मायावादरूप निर्विशेष ज्ञान को ही गीता का एकमात्र तात्पर्य बतलाया गया है। जिसे पढ़ – सुनकर साधारण कोमल श्रद्धालुजन पथभ्रष्ट हो रहे हैं।

निगम शास्त्र अत्यन्त विपुल एवं विशाल हैं। उसके किसी अंश में धर्म, किसी अंश में कर्म, किसी अंश में सांख्य ज्ञान और किसी अंश में भगवद्भक्ति का उपदेश पाया जाता है। इन व्यवस्थाओं में परस्पर क्या सम्बन्ध है और किस दशामें एक व्यवस्था को छोड़कर दूसरी व्यवस्था को ग्रहण करना कर्त्तव्य है-वैसे क्रमाधिकारका वर्णन भी उन्हीं शास्त्रोंमें दृष्टिगोचर होता है। किन्तु, कलिकालमें उत्पन्न अल्प- आयुविशिष्ट तथा संकीर्ण मेधायुक्त जीवोंके लिए उक्त विपुल शास्त्रोंका पूर्णरूपसे अध्ययन और विचारपूर्वक अपने अधिकारका निर्णय करना बड़ा ही कठिन है। इसलिए इन व्यवस्थाओं की एक संक्षिप्त एवं सरल वैज्ञानिक मीमांसा अत्यन्त आवश्यक है। द्वापरके अन्तमें अधिकांश लोग वेद-शास्त्रोंका यथार्थ तात्पर्य समझानेमें असमर्थ हो गए, अतः किसी ने कर्म, किसी ने भोग, किसी ने सांख्यज्ञान, किसी ने तर्क और किसी ने अभेद ब्रह्मवाद को शास्त्रों का एकमात्र तात्पर्य बताकर अपनी अपनी डफली बजाना और अपना अपना राग आलापना आरम्भ कर दिया। इस प्रकार भारतमें ऐसे असम्पूर्ण ज्ञानसे उत्पन्न मतसमूह वैसी ही पीड़ा उत्पन्न करने लगे, जिस प्रकार अचर्वित खाद्य पदार्थ पेटमें पहुँचकर नाना प्रकारके क्लेश उत्पन्न करने लगते हैं।

वैसे समयमें परम कारुणिक भगवान श्रीकृष्णचन्द्रने अपने प्रिय पार्षद एवं सखा अर्जुनको लक्ष्यकर जगत्के जीवोंके कल्याणके लिए सारे वेदोंके सारार्थमीमांसास्वरूप श्रीमद्भगवद्गीताका उपदेश दिया। इसलिए गीताशास्त्र समस्त उपनिषदों के शिरोभूषण के रूपमें विद्यमान है। इसमें भिन्न-भिन्न व्यवस्थाओंमें परस्पर सम्बन्ध बतलाकर पवित्र हरिभक्तिको ही जीवोंके लिए चरम लक्ष्य प्रतिपादित किया गया है। वस्तुतः कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग अलग-अलग व्यवस्थाएँ नहीं हैं; एक ही योगकी पहली, दूसरी, तीसरी व्यवस्थामात्र हैं। उस सम्पूर्ण योगकी पहली अवस्थाका नाम कर्मयोग, दूसरी अवस्थाका नाम ज्ञानयोग एवं तीसरी अवस्थाका नाम भक्तियोग है। उपनिषत्समूह, ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भगवद्गीता – ये सर्वप्रकारसे शुद्ध भक्तिशास्त्र – हैं, इन शास्त्रों में आवश्यकतानुसार कर्म, ज्ञान, मुक्ति और ब्रह्मप्राप्तिका विशदरूपमें वर्णन परिलक्षित होता है; किन्तु तुलनामूलक रूपमें विचारकर चरम अवस्थामें शुद्धा भक्तिका ही प्रतिपादन किया गया है।

श्रीगीताशास्त्रके पाठकोंको दो भागोंमें विभक्त किया जा सकता है, स्थूलदर्शी और सूक्ष्मदर्शी । स्थूलदर्शी पाठक केवल वाक्योंके बाह्य अर्थको ही ग्रहणकर सिद्धान्त किया करते हैं। परन्तु सूक्ष्मदर्शी पाठकगण शास्त्रके बाह्यार्थसे सन्तुष्ट न होकर गम्भीर तात्त्विक अर्थका अनुसन्धान करते हैं। स्थूलदर्शी पाठकगण आदिसे अन्त तक गीताका पाठकर यह सिद्धान्त ग्रहण करते हैं कि कर्म ही गीताका प्रतिपाद्य विषय है, क्योंकि अर्जुनने सम्पूर्ण गीता सुनकर अन्तमें युद्ध करना ही श्रेयस्कर समझा। सूक्ष्मदर्शी पाठकगण वैसे स्थूल सिद्धान्तसे सन्तुष्ट नहीं होते। वे या तो ब्रह्मज्ञानको अथवा पराभक्तिको ही गीताका तात्पर्य स्थिर करते हैं। उनका कहना यह है कि अर्जुनका युद्ध अंगीकार करना केवल अधिकार – निष्ठाका उदाहरण मात्र है, वह गीताका चरम तात्पर्य नहीं है। मनुष्य अपने स्वभावके अनुसार कर्माधिकार प्राप्त करता है और कर्माधिकार का आश्रयकर जीवनयात्राका निर्वाह करते-करते तत्त्वज्ञान प्राप्त करता है। कर्म का आश्रय किए बिना जीवनका निर्वाह होना कठिन है। जीवनयात्राका निर्वाह नहीं होनेसे तत्त्वदर्शन भी सुलभ नहीं होता है। इसलिए प्रारम्भिक अवस्थामें वर्णाश्रमोचित सत्कर्मका आश्रय ग्रहण करना आवश्यक है। किन्तु, यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि सत्कर्मके अन्तर्गत भी भगवदर्पित निष्काम कर्म ही गीताको मान्य है। उसके द्वारा क्रमशः चित्तशुद्धि और तत्त्वज्ञान होता है तथा अन्तमें भगवद्भक्ति द्वारा ही भगवत्प्राप्ति होती है।