” इतना दिन तो आप लोगों ने ब्रजमण्डल-परिक्रमा किया। परिक्रमा का माहात्मय भी आप लोगों ने श्रवण किया कि इस परिक्रमा से भगवान् में रति-प्रीति होती है तथा भगवान् को छोड़कर दूसरी सभी वस्तुओं से दिल उठ जाता है। यहाँ पर भक्ति के पाँचों प्रकार के मुख्य अंगों का साधन करने के लिए मौका है। भक्ति के मुख्य पाँच अंग हैं – साधु-संग, नाम-संकीर्तन, भागवद-श्रवण, मथुरा वास तथा श्रद्धा के साथ श्रीमूर्ति का सेवन। इनके अन्दर में भी ‘नाम-संकीर्तन’ सर्वोत्तम है। दीनता से अथवा व्यतिरेक भाव से धाम – परिक्रमा से व हरिनाम संकीर्तन करने से फायदा क्यों नहीं दिखाई दे रहा है”, ये बताने के लिए कहा कि – हम लोगों ने यहाँ पर नाम-संकीर्तन भी किया लेकिन मेरे अन्दर का जो गन्दा भाव था वह हटा नहीं। मैं तो जानता हूँ कि हृदय में भगवद्-इतर प्रवृति, भोग प्रवृति भरी हुई है। फल द्वारा फल के कारण का अनुमान करना चाहिए। सब महात्मा लोग कहते हैं कि परिक्रमा करने से संसार से मुक्ति होती है, भोग प्रवृति नहीं रहती तथा भगवान् में रति-प्रीति होती है, परन्तु ऐसा लगता है कि मेरे साथ तो उल्टा ही हुआ है कि मेरी संसार में रति-प्रीति और बढ़ गयी, दिल में सांसारिक चिन्ता भी बढ़ गयी है। इतना साधु-संग में रहा, साधुओं के पीछे-पीछे चला तथा कीर्तन भी किया। फायदा क्या हुआ?
एक दफा जालन्धर में, एक माता जी ने भी गुरु महाराज जी से इसी प्रकार का एक सवाल किया था कि पचास साल से मैं मन्दिर में आ रही हूँ, मन्दिर परिक्रमा भी करती हूँ। महात्माओं के मुखारविन्द से कथा भी सुनती हूँ। पचास साल से लगातार ऐसा कर रही हूँ लेकिन अब भी देखती हूँ कि जैसे पहले थी,उससे और गिर गई हूँ। मेरी ममता संसार में और ज्यादा हो गई है। ऐसा क्यों ?
मेरा भी यही सवाल है, मेरे अपने लिए मैं कहता हूँ। इस बात का भी मुझे पूर्ण विश्वास है कि हमारे गुरु जी, हमारे परम गुरुजी, महाप्रभु जी झूठ बात नहीं करते। वैष्णव लोग झूठ बात नहीं करते। साधु सब झूठ कहेगा तो उसे साधु नहीं कहा जाएगा। साधु प्रताड़क नहीं होता, वह किसी को धोखा नहीं दे सकता। वह जो कहेगा, हमारे मंगल के लिये ही कहेगा।
परन्तु हमारा मंगल हो क्यों नहीं रहा है ? महाप्रभु जी हम लोगों को उपदेश देते हैं, महाप्रभु के पार्षद लोग हमें उपदेश देते हैं, इनके उपदेश में तो धोखा नहीं है। हम लोगों ने तो बाहर से गुरुजी की सूरत देखी। देखने से तो ऐसा मालूम नहीं होता कि वे धोखेबाज़ हैं। सुना है कि उनके पास जाने से ही सिर झुक जाता था। हमारे परम गुरुजी के पास बहुत से लोग घमण्ड सहित आते थे कि उनसे शास्त्रार्थ करके उनका विचार खन्डन कर देंगे, लेकिन उनके सामने जाने से कोई बोल भी नहीं सकता था। उनका तेज-प्रभाव ही ऐसा था कि सिर अपने आप ही झुक जाता था। उनकी वाणी कभी झूठ नहीं हो सकती है। इसलिए यह तो ठीक ठीक है कि ब्रजमण्डल-परिक्रमा का फ़ायदा है – संसार प्रवृति नाश होती है, भक्ति बढ़ जाती है। लेकिन उल्टा फल किसलिए हो रहा है?
इसका कारण मेरे विचार से तो यही है कि जिस प्रकार करना चाहिए, उस प्रकार से नहीं हो रहा है। भक्ति साधन करने के लिये शरणागति चाहिए। तीन बातें एक साथ चलती हैं। भागवत में कहते हैं कि चक्रपाणि श्रीकृष्ण के बारे में श्रवण करना व कीर्तन करना, उनकी जन्म व अन्य-अन्य लीलाओं का माहात्म्य सुनना तथा उनकी लीला का प्रकाशक जो ‘नाम’ है, असंग एवं आसक्ति रहित होकर उसका कीर्तन करना चाहिए। जब हम ऐसा करेंगे, तो परा-शान्ति मिलेगी। भक्ति, विरक्ति और भगवद्-प्रबोध-तीनों एक साथ में होते हैं। एक उदाहरण देकर यह समझाया गया है कि जैसे मैं एक किलो खा सकता हूँ, पाव भर खा लूँगा तो पाव भर के परिणाम के बराबर मेरी भूख की निवृति होगी और साथ-साथ में उतनी ही मात्रा में तुष्टि-पुष्टि भी होगी। आधा किलो खा लेंगे तो भूख भी आधी हो जाएगी, 3/4 किलो खा लेंगे तो 3/4 होगी। जब पूरा खा लेंगे तो भूख की पूरी निवृति हो जाएगी तथा पूर्ण तुष्टि-पुष्टि भी होगी। एक-एक ग्रास खाने में उसी परिणाम में भूख की निवृति होती जाती है व तुष्टि-पुष्टि होती जाती है।
शरणागत-भक्त को भक्ति साधन करने के साथ-साथ भगवद्-अनुभूति होगी और साथ-साथ विरक्ति अर्थात् संसार में आसक्ति कम होगी। भगवद्-इतर वस्तुओं में विरक्ति होगी, वैराग्य होगा। तीनों एक साथ चलेंगे। ब्रजमण्डल-परिक्रमा की, श्रवण-कीर्तन आदि सब कुछ किया, परन्तु भगवान में प्रीति नहीं हुई तो समझना चाहिए कि हमारी शरणागति नहीं है। शरणागत व्यक्ति जितनी भगवान् की भक्ति करेगा उसे उतनी ही भगवद्-इतर वस्तुओं से विरक्ति होगी। अगर मेरी संसार के प्रति आसक्ति बढ़ रही है, तब समझना होगा कि शरणागति में कोई त्रुटि है। एक तो मैं भजन-साधन नहीं कर रहा हूँ, और जो थोड़ा बहुत कर भी रहा हूँ तो उसके लिए शास्त्र में जो शर्तें बतलायी गई हैं, उनके अनुसार नहीं कर रहा हूँ, इसलिए अपेक्षित फल नहीं मिल पा रहा है। शास्त्र झूठ नहीं कह रहा है, वेदव्यास जी हम लोगों को धोखा नहीं दे रहे हैं। हम लोगों के आचरण में ही कमी है, अमल करने में ही दोष रह जाता है।
शरणागति के छ: लक्षण हैं –
1) “आनुकूल्यस्य संकल्प:” – भगवान् की इच्छा के व उनकी प्रसन्नता के अनुकूल हम लोग ग्रहण करेंगे। लेकिन, हम लोग हर समय भगवान् के अनुकूल ग्रहण नहीं करते। अवश्य ये हमारी त्रुटि है।
2) “प्रातिकूल्यस्य वर्जनम्” – प्रतिकूल को छोड़ना चाहिए। भगवान् के प्रतिकूल को हम छोड़ते नहीं हैं। जब शुद्ध शरणागति होगी तो साथ में भक्ति होगी, भगवद् अनुभूति होगी और भगवद्-इतर वस्तुओं में विरक्ति होगी। शास्त्र की बात कभी भी झूठ नहीं हो सकती।
3) बाहर का आपद (विपत्ति) और मेरे अन्दर के जो (काम, क्रोध, लोभ, मोह,मात्सर्य आदि) आपद हैं; उनसे भगवान् ही उद्धार कर सकते हैं, यह विश्वास मेरे अन्दर में नहीं है। इसमें मेरी ही कोई त्रुटि है अथवा दोष है।
4) और भगवान् को पूर्णरूप से पालक भी स्वीकार नहीं किया मैंने। मेरे शरीर की ज़रूरत, मन की ज़रूरत, मेरी आत्मा की ज़रूरत केवल भगवान् ही पूरी करते हैं और कोई दूसरा नहीं। इस प्रकार भगवान् को पालक रूप से विश्वास नहीं किया,वरण नहीं किया।
5) ‘दीनता’ ̶ जन्म, ऐश्वर्य, शिक्षा आदि का अभिमान है, इसलिए दीनता का अभाव है।
6) ‘आत्मनिवेदन’ ̶ मैं दुनिया का नहीं हूँ, मैं भगवान् का हूँ ̶ इस भावना का भी अभाव है। मेरी शरणागति में ही त्रुटि है, एक तो इस अभाव को दूर करना है।
श्रीविग्रह की सेवा में रुचि नहीं है। श्रीविग्रह का अनादर करते हैं। बाहर से कहते हैं कि हमने सद्गुरु का चरण-आश्रय किया है, शुद्ध भक्त का चरणाश्रय किया है, परन्तु शुद्ध-भक्त ने जो श्रीविग्रह प्रकाशित किया है, अपने आराध्यदेव को प्रकाशित किया है, उनमें श्रद्धा नहीं है। इसीलिए उनके प्रसाद-ग्रहण में भी श्रद्धा नहीं है। प्रसाद-ग्रहण में दाल, चावल प्रवृत्ति रहती है। प्रसाद-सेवा से ही संसार-प्रवृत्ति नाश हो जाती है परन्तु इतना तो प्रसाद सेवन करते हैं, संसार-प्रवृत्ति तो नाश नहीं हो रही है; तो क्या शास्त्र में झूठ कहा है ?
महाप्रसादे गोविन्दे नाम-ब्रह्मणि वैष्णवे।
स्वल्पपुण्यंवतान् राजन् विश्वासो नैव जायते॥
थोड़ा पुण्य रहने से भगवद्-प्रसाद में महाप्रसाद बुद्धि नहीं होती है और गोविन्द विग्रह में साक्षात् भगवान् बुद्धि नहीं होती है। यह धातु की मूर्ति है, यह पत्थर की मूर्ति है ̶ यह भाव रहता है। अभी हमारा राष्ट्रपति आ जाए तो क्या होगा? सब एक दम डर से उसका कितना स्वागत-सत्कार करेंगे और राष्ट्रपति के बाबा के बाबा के बाबा के बाबा, अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों के मालिक यहाँ पर विराजमान हैं। यह बोध हमको है क्या? इसलिए यह भी एक कसूर है जो वेद-व्यास मुनि बताते हैं। अर्थात् विग्रह में पत्थर बुद्धि करना। इससे हमारा दिल गंदा हो जाता है। अर्थात् विग्रह में जो भोग अर्पण किया जाता है, उस प्रसाद को साधारण दाल, चावल, सब्ज़ी नहीं समझना चाहिए। कहते हैं प्रसाद-सेवा से ही सब प्रकार की कामना-वासना जय हो सकती है ̶
शरीर अविद्या-जाल, जड़ेन्द्रिय ताहे काल,
जीवे फेले विषय-सागरे।
तार मध्ये जिह्वा अति, लोभमय सुदुर्मति,
ता ‘के जेता कठिन संसारे॥
कृष्ण बड़ दयामय, करिबारे जिह्वा जय,
स्वप्रसाद अन्न दिल भाई।
सेई अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण गुण गाओ,
प्रेमे डाक चैतन्य-निताई॥
भक्तिविनोद ठाकुर जी ने शास्त्र की निचोड़ बात लिखी है ̶
उन्होंने झूठ लिखा है क्या ? हमारी प्रसाद में प्रसाद-बुद्धि है क्या ?विग्रह में जब साक्षात् भगवान्-बुद्धि नहीं है तो उनके प्रसाद को भी ऐसा ही समझेंगे हम। प्रसाद को छोड़ देंगे। अपने गुरुजी के बारे में मैंने सुना था कि मठ में आने से पहले वे केवल एक बार खाते थे, वो भी उबली हुई सब्जी आदि। बहुत तपस्या की उन्होंने हिमालय में जाकर। तीन दिन अनाहार रहे, लेकिन प्रभुपाद जी का आश्रय करने के बाद प्रसाद पाना शुरु कर दिया। गुरु महाराज जी के साथ जब हम लोग रहते थे तो प्रसाद को छोड़कर कोई और वस्तु खाते उन्हें नहीं देखा। तबीयत खराब होने पर डॉक्टर के परामर्श से कभी-कभी हम लोग जब कुछ देते थे तो कहते थे ̶ नहीं, ये नहीं लेना, प्रसाद लेना ही अच्छा है, क्योंकि यह शिष्य लोग तो नकल ही करेंगे। सब लोग गुरुजी से कहते हम आपके लिए अलग से सब कुछ बना देंगे, अन्यथा आपकी तबीयत और ज्यादा खराब हो जाएगी;अलग सुबह-2 आपको खाना दे देंगे। पर गुरुजी इन्कार करते क्योंकि और सब जितने हैं, वे भी ऐसा ही करना शुरु कर देंगे। स्वयं अमल करके तो शिक्षा देनी पड़ती है। गुरुजी ने स्वयं कष्ट उठाकर ऐसा किया। कहते थे, कोई बात नहीं, दो बजे या तीन बजे जब भी प्रसाद मन्दिर से आ जाए तब मैं ले लूँगा।
ऐसा क्यों किया उन्होंने?
उनके गुरु जी ने जो श्रीविग्रह प्रकाश किया, ये साक्षात् भगवान् हैं। इनका प्रसाद ग्रहण करने से सब प्रपंच जय हो जाता है ̶ उनका इस प्रकार दर्शन था।
वैष्णव भी जो वस्तु दें, वो भी प्रसाद ही है। इसलिए मैं देख रहा हूँ, मेरे अन्दर में यह सब कमी है, जिस लिए यह सब अनर्थ आ रहा है। भगवान् के श्रीविग्रह में विग्रह-बुद्धि नहीं है। साक्षात् भगवद्-बुद्धि नहीं है। कोई न कोई कारण तो अवश्य है और सबसे दुष्टा है यह जिह्वा (जीभ)। जिह्वा को जय करना बहुत मुश्किल है। तमाम इन्द्रियों के अन्दर सबसे दुष्ट है जिह्वा (जीभ)। जो जिह्वा को जय कर लेता है वो सब कुछ जय कर सकता है। जो जिह्वा जय नहीं कर सकता,वो किसी इन्द्रिय को जय नहीं कर सकता। जिह्वा जय करने का क्या मतलब होता है? नहीं खा के रहो, यह उपाय बतलाया है क्या ? अगर नहीं खा के रहना बताया होता तो हमारे गुरुमहाराज जी बहुत तपस्या कर सकते थे। तप छोड़ के प्रसाद ग्रहण करना शुरु कर दिया क्यों ? क्योंकि प्रसाद ग्रहण करने से तमाम असत् प्रवृत्ति चली जायेगी, अगर प्रसाद को प्रसाद-बुद्धि से ग्रहण करें तब। जिह्वा को जय करना बहुत मुश्किल है। नहीं खाने से, एक बार खाने से या निरामिष खाने से या वायु पीकर रहने से जिह्वा का लाम्पट्य नहीं जायेगा। एक दिन नहीं खाया जाए तो दूसरे दिन उतना अधिक खाने का प्रयास होता है। एकादशी में नहीं खाने से द्वादशी को ज्यादा खा लेते हैं। खाने की प्रवृत्ति नहीं जाती है। लेकिन हमारे पूर्वाचार्य ठाकुर भक्ति विनोद जी ने उपाय बतला दिया कि प्रसाद सेवा करने से जिह्वा जय हो सकती है। तुम जिह्वा जय करना चाहते हो तो प्रसाद-सेवा करो ̶भगवान् को निवेदन किया हुआ प्रसाद। उसी प्रसाद सेवन से तुम्हारे अन्दर की भगवद्-विमुखता की प्रवृत्ति चली जायेगी।
मेरी भगवद्-विमुखता वाली वस्तु में प्रवृत्ति क्यों जा रही है ? मेरी भगवद् प्रसाद में प्रसाद बुद्धि क्यों नहीं है, इसका विश्लेषण करना पड़ेगा। गुरुजी व भक्ति विनोद ठाकुर जी झूठ नहीं बोल रहे हैं। मेरे अन्दर में क्या कमी है? देखना होगा। भगवान् का प्रसाद सेवन करो; भगवान् का अवशेष ग्रहण करो, कितना आसान पथ बता दिया है। इससे तुम्हारी तमाम भगवद्-विमुख प्रवृत्ति चली जाएगी।
इसलिए तो भगवद्-विग्रह में शिला-बुद्धि और गुरु में मनुष्य-बुद्धि बहुत बड़ा दोष है। लेकिन हम तो गुरु जी में दोष-दर्शन करते हैं। गुरु में मनुष्य-बुद्धि रहने से नरक होगा। मेरे अन्दर में ज़रूर यह अपराध होगा। ज़रूर कुछ गुरुजी के प्रति मेरा अपराध होगा। इतना कुछ करते हुए भी फल क्यों नहीं हो रहा है ?इसका कारण है ̶ गुरुजी में मनुष्य-बुद्धि और वैष्णव में जाति-बुद्धि। कौन कुल का वैष्णव है? ऐसा समझना ̶ यह ब्राह्मण है, यह क्षत्रिय है, वैश्य है, शूद्र है या चाण्डाल है, अपराध है। वैष्णव जिस भी कुल में आते हैं, वो पवित्र है ̶ जैसे,हरिदास ठाकुर जी यवन कुल में आये। वैष्णव में जाति-बुद्धि करने से दिल दूषित होता है, नरक में जाना पड़ता है। वैष्णव, भगवान् का प्यारा होता है। जिस किसी कुल में वैष्णव आ सकते हैं। सच्चा-भक्त जिस किसी कुल में भी आने से वह निर्गुण है। सच्चे-भक्त की बात कहता हूँ, दिखावे वाले भक्त की नहीं। इसलिए यह दोष भी शायद हमारे भीतर में है, जिससे दिल का अनर्थ नहीं जा रहा है।
विष्णुपदी ̶ गंगा और यमुना के जल में साधारण जल-बुद्धि नहीं करनी चाहिए। वैष्णव का पद-धौत जल साधारण जल नहीं है। साधारण जल तो शरीर की मैल साफ करता है लेकिन वैष्णव का पादोदक, कलि-कल्मष को नाश कर देता है; विष्णु-चरणोदक कलि-कल्मष को नाश कर देता है। यमुना का पानी साधारण पानी नहीं है; कलि-कल्मष को नाश करके भक्ति प्रदान करता है। गंगा या यमुना इत्यादि के जल में साधारण-पानी-बुद्धि से नरक होगा। भक्त का पद-जल और पद-धूलि भक्ति साधन का बल हैं। कृष्ण-भक्ति लाभ होती है इनसे। हमारे गुरु जी ने कृपा करके यहाँ पर भगवद्-विग्रह प्रकाशित किया। भगवान् का प्रसाद, वैष्णव के पाने के बाद महा-महा प्रसाद हो जाता है। यह अवशेष छोड़ना नहीं चाहिए। नहीं तो विग्रह में पत्थर बुद्धि हो जाएगी। प्रसाद में दाल, चावल बुद्धि हो जाएगी। यह अच्छा नहीं है। इसलिए हमारे गुरु जी को बड़ी होशियारी से साधन करना पड़ा, होशियारी से चलना पड़ा क्योंकि हम लोग तो अनुकरण-प्रिय हैं; जिसको श्रेष्ठ देखते हैं उसी का अनुकरण करते हैं।
भगवान् अथवा उनका नाम, तमाम कलि-कल्मष नाश कर सकता है; भगवान् में प्रेम दे सकता है। उस नाम में साधारण-शब्द-बुद्धि नहीं करनी चाहिए। ऐसा नाम करने से क्या होगा? दुनियाँ के नामों जैसा भगवान् का नाम समझना व नाम में साधारण-शब्द-बुद्धि करने वाला नरक को प्राप्त होगा। दिल का गंदा भाव क्यों नहीं जा रहा? इसका कारण है, ज़रूर कोई त्रुटि है; इस कारण को हटाना पड़ेगा।
परमेश्वर श्रीकृष्ण को और-और देवी-देवताओं के समान बुद्धि करने वाला भी नरक में जायेगा। परमेश्वर पूर्ण हैं, इसलिए एक हैं। परमेश्वर तीन, चार या हज़ार नहीं होते, उनकी अनन्त लीला हो सकती है। सभी देव-देवी उनके अधीन हैं। ब्रह्मा, रुद्र आदि उनके भक्त हैं, उनके अधीन हैं। ब्रह्मा, रुद्र आदि को नारायण के समान समझने वाला पाषान्डी है, ऐसा शास्त्र कहते हैं। यह पाषाण्ड विचार हम लोगों में आ गया है, इसलिए इतना कुछ करते हुए भी लाभ नहीं होता।
शरणागति नहीं है। गुरु-वैष्णव के चरणों में अपराध हो रहा है, वैष्णवों के तथा हरिनाम के चरणों में अपराध हो रहा है। हरिनाम, गुरु व वैष्णव-निन्दा तो जबर (घोरतम्) अपराध है। नाम करने से ही भगवान् के पास नहीं पहुँचा जायेगा; जब साधु-निन्दा करे, गुरु-निन्दा करे तब तो नरक में जायेगा; नाम करते-करते भी नरक में चला जायेगा। थोड़े नामपराध से धर्म, अर्थ, काम, रूपी पुरुषार्थ मिलते हैं। अपराध रहने से दिल का गंदा भाव अन्दर ही रहता है।
यह तो मैंने अपनी परीक्षा की। इतने दिन तो हो गये परिक्रमा करते-करते और वैष्णवों के पीछे-पीछे भी चला और ज़ोर-ज़ोर से भगवान् का नाम लेकर भी चिल्लाया। आप लोग समझते हैं बहुत कीर्तन कर रहा है, नृत्य कर रहा है। फल क्या हो रहा है ? दिल तो वैसा का वैसा ही गंदा है। ज़रूर शरणागति में त्रुटि है और नामपराध हो रहा है, धामापराध हो रहा है जिससे अभिप्रेत फल नहीं मिल रहा है। इसलिए इसी धाम में, हम लोगों पर कृपा-परवश होकर भगवान् के प्रियतम -हमारे गुरु जी ने हम लोगों को ग्रहण किया और अपने आराध्यदेव को स्थान-स्थान पर प्रकाशित कर दिया – हमारा मंगल करने के लिए। गुरुजी हर वक्त ही यहाँ पर हैं। जैसे भगवान् हर जगह पर नित्य-विराजमान हैं, उनकी प्रकाश-मूर्ति गुरुजी भी नित्य हैं। इसलिए गुरुजी के चरणों में प्रार्थना करते हैं। मेरी हालत तो गन्दी है; अपराध से कैसे बचा जा सकता है? शुद्ध शरणागति भी वैष्णव-कृपा से ही हो सकती है, परन्तु वैष्णव नें विश्वास नहीं है तो सारा परमार्थ फिजूल हो गया। कैसे परमार्थ होगा, जिससे वैष्णव में विश्वास हो जाये ? वैष्णव-आनुगत्य में रहकर जितने दिन बाकी हैं, भजन-साधन करके अपने अनर्थों को हटा सकूँ -गुरुजी के चरणों में यही प्रार्थना करता हूँ और यहाँ पर हमारे शिक्षा-गुरु, परम पूज्यपाद पुरी गोस्वामी महाराज विराजमान हैं। हम लोगों पर कृपा-परवश होकर, इतना कष्ट उठाकर आते हैं, कितना स्नेह करते हैं, सोचते हैं – हम लोगों के गुरुजी नहीं हैं, नहीं जाने से ये हताश हो जायेंगे; इसलिए आते हैं। आकर आशीर्वाद करते हैं। यद्यपि मुझ पर उनका स्नेह है, फिर भी उनसे मैं प्रार्थना करता हूँ कि वे मुझ पर कृपा करें, मेरे दिल के गन्दे भाव को हटा दें। आप लोग तो निष्कपट हैं, इसलिए तो यहाँ पर आ गये। आप पर गुरु की,भगवान् की कृपा हुई, तब तो धाम में आये हैं। आप लोग सब आशीर्वाद कीजिये तभी तो मेरा मंगल होगा।
वाञ्छाकल्पतरूभ्यश्च कृपासिन्धुभ्य एव च।
पतितानाम पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः॥ “