सांसारिक बंधन में होना व त्रिताप से ग्रस्त होना ही हमारी श्रीकृष्ण – विमुखता का प्रमाण है। श्रीकृष्ण से हमारे नित्य- संबंध की विस्मृति ही हमारे दुखों का मूल कारण है। सुकृतिवान एवं सौभाग्यशाली जीव ही शुद्ध-भक्तों (साधुगण) के संपर्क में आकर ऐसा जान पाते हैं कि स्वरूप में वे श्रीकृष्ण के नित्य दास हैं तथा श्रीकृष्ण से अपने नित्य- संबंध की विस्मृति के कारण ही वे माया के जाल में बंध गए हैं । अब यदि वे श्रीकृष्ण के पाद -पद्मों का पूर्ण – आश्रय ग्रहण करें तो वे इससे छूट जाएँगे। अणु – चेतन अंश होने के कारण जीवों को इच्छा, क्रिया व अनुभूति की योग्यता प्राप्त है ।उन्हें भगवान की तरफ से जो अणु – स्वतन्त्रता मिली है , उसका दुरुपयोग ही उनकी श्रीकृष्ण – विमुखता का कारण है । श्रीकृष्ण जीव की अणु- स्वतन्त्रता को नष्ट नहीं करना चाहते क्योंकि ऐसा करने से जीव के अस्तित्व का प्रयोजन ही नष्ट हो जाएगा । अतः श्रीकृष्ण व उनके भक्त – जन सदैव, जीवों को परामर्श देने एवं समझाने का प्रयास करते हैं ताकि वे स्वेछा से श्रीकृष्ण के शरणागत हो जाएँ । “हम नहीं जानते कि हम अपने परम-गुरु, भगवान श्रीकृष्ण से कब विमुख हुए। इसकी कोई निश्चित तिथि नहीं है । हम भगवान श्रीकृष्ण से अपने संबंध को अनादिकाल से भूल गए हैं । अपनी अणु – स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करने के कारण जब से हम श्रीकृष्ण से विमुख हुए हैं, तभी से श्रीकृष्ण की माया (बहिरंगा भौतिक प्रकृति ) ने हमें आबद्ध कर लिया है एवं हम जन्म- मृत्यु के अनन्त चक्र से गुज़र रहे हैं।”
हम अपने ही अच्छे -बुरे कर्मों के फल का भोग करते हैं ।
साधु – संग में दस तरह के नामपराधों से रहित शुद्ध-नाम का कीर्तन ही सांसारिक कष्टों की निवृति व पूर्णानन्द की प्राप्ति का एक मात्र उपाय है
उपदेश पत्रों से के कारण प्राप्त होने वाले दुखों के लिए दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए । दूसरे लोग निमित हो सकते हैं, परंतु कारण नहीं । प्रारब्द कर्म (जिसका फल-भोग प्रारम्भ हो चुका है ) को त्यागी अथवा गृहस्थी को प्रसन्नतापूर्वक भोग लेना चाहिए । ”
“केवल शुद्ध – भक्ति या केवल शुद्ध – नाम ही प्रारब्ध कर्म के फल तक को भी नष्ट कर देता है ” ।