एक बार कलकत्ता मठ में उत्सव के समय एक ब्रह्मचारी ने किसी गृहस्थ भक्त के साथ सम्मानजनक व्यवहार नहीं किया। इस घटना से श्रील तीर्थ गोस्वामी महाराज बहुत दुखी हुए थे। उन्होंने कहा, “गृहस्थ भक्त सांसारिक कर्तव्यों को छोड़ कर कुछ दिनों के लिए मठ में रहकर साधु संग करने के लिए आते हैं। उनसे दुर्व्यवहार करना अच्छा नहीं है। ‘मैं तो ब्रह्मचारी हूँ, मैं सन्यासी हूँ और ये तो गृहस्थ हैं’ अगर हमारी ऐसी बुद्धि रहेगी तो हमें भगवान् की कृपा नहीं मिलेगी।
हमें सब प्रकार के झूठे अहंकार को त्याग करके महाप्रभु जी की शिक्षा को गृहण करना चाहिए:
येइ भजे सेइ बड़, अभक्तहीन छार।
कृष्णभजने नाहि जातिकुलादि विचार।।
जो भी भगवद्-सेवा करता है वही उच्च एवं सम्मानीय है, जो भगवान् का भक्त नहीं है वो हमेशा निंदनीय और निकृष्ट है। इसलिये श्रीकृष्ण भजन में जाति कुल आदि का विचार नहीं है। (चैतन्य चरितामृत अन्तय लीला 4.67)
जो भजन करता है वही उच्च कोटि का है; कोई सन्यासी है या गृहस्थ अथवा शिक्षित है या अशिक्षित, यह कोई मायने नहीं रखता। भगवद् सेवा में निष्ठा होने से ही कोई श्रेष्ठ कहलाता है। यही एक योग्यता है, और कुछ भी नहीं है।
नरोत्तम ठाकुर जी ने अपने एक भजन में गया है:
“गृहे वा वनेते थाके, हा गौरांग बले डाके,
नरोत्तम मांगे तार संग”
कोई घर में रहे अथवा वन में, लेकिन यदि वह हमेशा श्रीगौरहरि के शुद्ध नामों का जप करता है तो नरोत्तम दास उनका संग करने की इच्छा करते हैं।
श्रीमन् चैतन्य महाप्रभु जी के अनेकों पार्षदों ने आदर्श गृहस्थ भक्त होने की लीला की। इसलिये इस बात में कोई सच्चाई नहीं है कि कोई गृहस्थ होने से ही पतित हो जाता है। अम्बरीश महाराज, प्रह्लाद महाराज, और ध्रुव महाराज जी सब गृहस्थ भक्त ही थे वहीँ दूसरी ओर हनुमान जी, गरुड़ जी और नारद मुनि जैसे त्यागी भक्त भी हुए हैं। भक्त किसी भी आश्रम में हो सकते हैं, सन्यासी भी और गृहस्थ भी। जो भक्ति करता है वही श्रेष्ठ है।
इस प्रकार उपदेश वाणी से महाराज जी ने उस ब्रह्मचारी को समझाया था।
– त्रिदंडी स्वामी श्रीमद भक्ति सौध जितेन्द्रिय महाराज (गुरु जी के गुरुभाई, जिन्होंने बाद में गुरु जी से सन्यास दीक्षा ग्रहण की, अभी हैदराबाद मठ के मठ-रक्षक हैं।)