युधिष्ठिर ने कहा- हे कृष्ण, आदिदेव! आप कृपापूर्वक माघ मासीय शुक्ला एकादशी का सविशेष वर्णन करें।
श्रीकृष्ण ने कहा- हे महाराज ! माघ मास की शुक्ल पक्षीय एकादशी ‘जया’ नाम से विख्यात है। यह तिथि सर्व पापविनाशिनी, सर्वश्रेष्ठा, पवित्रा, समस्त प्रकार के काम और मोक्ष को देने वाली है। इस व्रत के फल से मानव को कभी भी प्रेतत्व प्राप्त नहीं होता यहाँ तक कि प्रेत योनि में पड़ा हुआ जीव भी प्रेतयोनि से मुक्त हो जाता है।
इस एकादशी माहात्म्य के प्रसंग क्रम में एक आख्यान का वर्णन हो रहा है, एक समय स्वर्गलोक में इन्द्र राज कर रहे थे। वहाँ देवगण भी बड़े सुख से रह रहे थे। वे पारिजात पुष्प सेवित नन्दन – कानन में अप्सराओं के साथ विहार करते हैं। एक दिन पचास करोड़ अप्सरा नायक देवेन्द्र ने अपनी इच्छा से आनन्दयुक्त हो उन समस्त अप्सराओं को नृत्य में प्रवृत्त कराया। उनके साथ गन्धर्वगण गाना गाने लगे। उनमें पुष्पदत्त, चित्रसेन और उनके पुत्र आदि प्रधान – प्रधान गन्र्धवगण थे। चित्रसेन की पत्नी का नाम मालिनी और कन्या का नाम पुष्पवन्ती था। पुष्पदत्त के पुत्र का नाम माल्यवान् था। वह माल्यवान पुष्पवन्ति के रूप पर मुग्ध हो गया था। उस पुष्पवन्ती ने माल्यवान को वशीभूत कर लिया था। इन्द्र की संतुष्टि विधान के लिए उन दोनों ने ही नृत्य गीत सभा में योगदान किया था। किन्तु कामासक्त होने के कारण दोनों का नृत्य तथा संगीत का ताल – स्वर बिगड़ गया। यह देखकर देवराज इन्द्र समझ गये कि वे दोनों परस्पर कामासक्त हुए हैं। तब कोपवशतः इन्द्र ने उन दोनों को श्राप दिया – रे मूढ़ ! “तुम मेरी आज्ञा भंग कर रहे हो, तुमको धिक्कार है! तुम दोनों पिशाच योनि प्राप्त कर मर्त्यलोक में अपने कुकर्म का फल भोग करो”। इस प्रकार इन्द्र द्वारा शापग्रस्त होकर वे दोनों अति दुखित मन से हिमालय पर्वत पर गिर पड़े। इन्द्र के श्राप से पिशाच योनि को प्राप्त कर भीषण कष्ट पाने लगे। हिमालय की प्रचण्ड शीत से कातर होकर अपना पूर्व परिचय विस्मृत होने से एवं अतिकष्ट से समय बिताने लगे । एक दिन पिशाच ने अपनी पत्नी पिशाची को कहा, हमने थोड़ा पाप नहीं किया है, बल्कि भीषण पाप के फल से नरक यन्त्रणा तुल्य पिशाचत्व को प्राप्त हुए हैं। अतएव अब से पाप कर्म कभी भी नहीं करेंगे। इस प्रकार से चिन्ता करके वे उस पर्वत पर मृत प्राय: वास करने लगे।
उस माल्यवान और पुष्पवन्ति के किसी सौभाग्य से उस समय माघी शुक्ल पक्षीय ‘जया’ नामक एकादशी तिथि आ गई । उन्होंने एक पीपल वृक्ष के नीचे निराहार निर्जला अवस्था में दिन रात जागते हुए व्यतीत कर दी । शीत से काँपते हुए निद्रासुख का अनुभव नहीं कर पाये।
इन्द्र श्राप से पीड़ित उनका पूरा दिन बीत गया, दूसरे दिन सूर्योदय होने पर द्वादशी तिथि आई। जया एकादशी को उनके इस निराहार और रात्रि जागरण से भक्ति का अंग याजित हुआ। इस व्रत पालन के फल एवं श्रीविष्णु की कृपा से उनका पिशाचत्व दूर हो गया। पुष्पवन्ति और माल्यवान दोनों ही अपने पूर्व रूप को फिर से प्राप्त हुए। इसके बाद वे उत्तम वेश से भूषित होकर स्वर्ग में पहुँचे । देवराज इन्द्र के सम्मुख उपस्थित होने पर वे उनका दर्शन कर आश्चर्यान्वित हुए एवं उन्होंने पूछा किस पुण्य फल के प्रभाव से तुम्हारा पिशाचत्व दूर हुआ ? मेरे श्राप से किसने तुमको मुक्त किया ?
माल्यवान ने कहा- हे प्रभो ! भगवान वासुदेव के अनुग्रह से ‘जया’ व्रत के पुण्य प्रभाव से हमारा पिशाचत्व दूर हुआ है। उनका वाक्य श्रवण कर इन्द्र ने कहा हे माल्यवान ! तुम अब से फिर सुधापान करो । हरिवासर व्रत में जो आसक्त एवं जो कृष्ण भक्ति परायण है, वे निश्चित ही मेरे पूजनीय एवं वन्दनीय बन जाते हैं, इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं है। इस देवलोक में तुम पुष्पवन्ति सहित इच्छानुसार विहार करो।”
हे महाराज! यह ‘जया’ व्रत ब्रह्महत्या रूपी पाप का भी विनाश करता है। इस व्रत द्वारा समस्त प्रकार के दान का फल प्राप्त होता है, संपूर्ण रूप से समस्त यज्ञ सम्पन्न होते हैं एवं कल्पकोटि काल तक अर्थात् अनन्त काल तक आनन्द के सहित वैकुण्ठ में वास मिलता है । जया व्रत कथा का पठन और श्रवण करने से भी अग्निष्टोम नामक यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
* श्रीगरुडपुराण में माघ मास की शुक्ल पक्षीय एकादशी तिथि ‘भैमी’ एकादशी के नाम से कथित है। कल्पान्तर में विभिन्न पुराणों में इसका नामान्तर परिदृष्ट होता है। श्रीपद्मपुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्षीय एकादशी का नाम ही पाण्डवा निर्जला एकादशी या भीमसेनी ( भैमी) एकादशी है।
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