श्रीभगवान् की कृपा से मेरा जन्म एक भक्त परिवार में हुआ। मेरे पिता जी सन् 1970 के दशक से ही श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ से जुड़े हुए थे। उनसे विवाह होने के बाद मेरी माता जी को भी भक्तों का संग मिला। और मैं तो जन्म से ही गौड़ीय मठ के संपर्क में रहा हूँ।
सन् 1990 में भटिंडा (पंजाब) के थर्मल कॉलोनी में एक धर्म सभा हुई थी जिसे याद करके मुझे आज भी बहुत ख़ुशी होती है। मेरे पिता जी ने हमेशा मुझे सिखाया था – ‘तुम हमेशा गुरु जी से उनके चरणकमलों में आश्रय के लिए ही निवेदन करना और कभी भी गुरु जी से कोई संसार की वस्तु मत माँगना।’ मैंने हमेशा कोशिश की कि मैं उनकी शिक्षा का पालन कर सकूँ। लेकिन जैसे जैसे समय बीतता गया, मैं संसार में उलझता चला गया, जोकि हरिभजन के अनुकूल नहीं है।
मैं अपने सभी गुरुभाइयों और बहनों (विशेषकर युवावर्ग से) से कहना चाहूँगा कि यदि कभी भी हमारे मन में कोई संशय हो तो अपनी बुद्धि से निर्णय लेने की अपेक्षा हमें उसे शुद्ध भक्त के समक्ष निवेदन करना चाहिए। गुरु जी हमारे संशयों का अवश्य निवारण करेंगे। यद्यपि वे आज हमारे समक्ष प्रकट नहीं हैं फिर भी वे हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। गुरु जी की इस लीला के माध्यम से मैं यह तथ्य उजागर करने की चेष्टा कर रहा हूँ।
सन् 2004 अथवा 2005 में मैं चंडीगढ़ स्थित मठ में जाया करता था। तब वहाँ बहुत बड़ी संख्या में भक्त गण गुरु जी के दर्शनों हेतु आते थे। एक दिन मैंने फ़ोन पर ही अपने पिता जी से प्रश्न किया कि जब भी मैं गुरु जी के दर्शनों के लिए जाता हूँ तो मुझे कभी गुरु जी से बात करने का मौका ही नहीं मिलता। तो गुरु जी मुझे याद कैसे रखेंगे। तब मेरे मन में ऐसा गलत भाव था कि गुरु जी के सेवक पक्षपात करते हैं और अपने परिचित भक्तों को ही गुरु जी के पास लम्बे समय तक बैठने देते हैं।
पिता जी ने मुझसे कहा कि, तुम क्यों इसके लिए चिंता करते हो। गुरु जी तो सब जानते हैं, भले ही कोई गुरु जी के सामने हो या न हो। व्यवस्था रखना तो सेवकों का कार्य है अथवा सबका गुरु जी से मिलना कैसे सम्भव हो पायेगा।
अगले ही दिन जब मैं गुरु जी के कमरे में गया तो तो गुरु जी का कक्ष भक्तों से भरा हुआ था। लेकिन जैसे ही मैंने कमरे में प्रवेश किया तो गुरु जी ने मेरी ओर देखकर मुस्कारते हुए कहा, “आ गया!” उस दिन गुरु जी ने मुझसे बहुत लम्बे समय तक बात की। उस दिन मुझे आभास हुआ कि मैंने मन में अकारण ही शंका की।
हमारे गुरु जी सदा ही हमारे संग हैं और उनकी कृपादृष्टि सदैव ही हम पर है। कभी मन कोई शंका हो तो उसे मन में न रखकर हमें भक्तों के समक्ष निवेदन करना चाहिए।
– भुवन मोहन दास