व्रतोपवास पालन में भगवद्-भक्ति ही एकमात्र कम्य है यहां तिथि के आदर्श अपेक्षा योग का श्रेष्ठत्व अधिक रूप से स्वीकृत हुआ है। ‘लंघन देना’ अर्थात उपवास करना ही व्रत का फल नहीं है सुष्ठु रूप से हरिकथा श्रवण-कीर्तन, श्रीभागवत आदि सात्वत शास्त्रों की चर्चा, निर्बन्ध (संख्या) पूर्वक से श्रीनामग्रहण और भगवत्-सेवा आदि भक्ति के अनुकूल-कार्य का प्रवर्तन ही चातुर्मास्य-व्रत-पालन का एकमात्र लक्ष्य और कृत्य है। इन सबके अनुशीलन के द्वारा ही व्रताचरण का यथार्थ फल प्राप्त होता है।