सर्वप्रथम मैं पतितपावन, परम आराध्यत्म, श्री भगवान का अभिन्न प्रकाश विग्रह स्वरूप, श्री भगवद् ज्ञान प्रदाता, श्री भगवान की सेवा में अधिकार प्रदान करने वाले परम करुणामय श्रील गुरुदेव के चरण कमलों में अनन्त कोटी शाष्टांग दण्डवत प्रणाम करते हुए उनसे अहैतुकी (बिना किसी कारण के) कृपा प्रार्थना करता हूँ। तत्पश्चात सभी पूजनीय वैष्णववृन्द के चरणों में प्रणत होकर उनसे अहैतुकी कृपा प्रार्थना करता हूँ। तत्पश्चात भगवत कथा श्रवण पिपासु तथा दामोदर व्रत पालन करने वाले सभी भक्तों का यथा योग्य अभिवादन करता हूँ तथा उनकी प्रसन्नता की कामना करता हूँ।
आज की शुभदा तिथि अर्थात् उत्थान एकादशी के दिन भगवान श्री हरि का आविर्भाव (जागरण) हुआ था। श्री भगवान के आविर्भाव के साथ साथ आज के दिन श्री हरि की करुणामयि मूर्ति तथा भगवान की सेवा में अधिकार प्रदान करने वाले हैं हमारे श्रीला गुरु महाराज की भी आविर्भाव तिथि है। श्रील गुरुदेव की कृपा उन्हीं जीवों के हृदय में प्रवेश करती है, जो उनके शरणागत होते हैं। केवल शरणागत व्यक्ति ही उनकी अहैतुकी कृपा का अनुभव प्राप्त कर सकता है।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित एक भजन (गीत) मेरे जीवन पर पूर्ण रूप से लागू होता है:-
एमन दुर्मति, संसार भितरे, पड़िया आछिनु आमि ।
तव निज-जन, कोन महाजने, पाठाइया दिले तुमि ॥1॥
दया करि मोरे,पतित देखिया, कहिल अमारे गिया ।
ओहे दीनजन,शुन भाल कथा, उल्लसित हबे हिया ॥2॥
तोमारे तारिते, श्री कृष्णचैतन्य, नवद्वीपे अवतार ।
तोमा हेन कत, दीन हीन जने, करिलेन भवपार ॥3॥
वेदेर प्रतिज्ञा, राखिवार तरे, रुक्मवर्ण विप्रसुत ।
महाप्रभु नामे, नदीया माताय, संगे भाई अवधूत ॥4॥
नन्दसुत यिनि,चैतन्य गोसाईं, निज नाम-करि दान ।
तारिल जगत्, तुमिओ याइया, लह निज-परित्राण ॥5॥
से कथा शुनिया,आसियाछि, नाथ!तोमार चरणतले ।
भक्तिविनोद कांदिया-कांदिया, आपन काहिनी बले ॥6॥
यह भजन गीत श्रील भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा बांग्ला भाषा में रचित है। इस भजन गीत को मैंने पश्चिमी देशों में विदेशी भक्तों के मुख से भी श्रवण किया है। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित इस भजन गीत के अर्थ को अधिकतर सभी भक्तजन जानते हैं। समय का भी अभाव है, इसीलिए मैं इस भजन का अनुवाद नहीं करूंगा। यह भजन हिन्दी तथा बांग्ला दोनों भाषाओं में उपलब्ध है। इस भजन का अर्थ मेरे जीवन से सम्बन्धित है। मैं भौतिक संसार में फंसा हुआ, एक दुष्ट प्रवृत्ति वाला व्यक्ति था तथा इस संसार के अनित्य सम्बन्धों में लिप्त था। । किन्तु मेरी ऐसी दयनीय स्थिति में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर तथा श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद जो कि श्रीमन चैतन्य महाप्रभु का ही विस्तार है तथा मेरे गुरुदेव जो कि श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद का विस्तार हैं, मेरी रक्षा करने के लिए आए।
हमारे गुरुदेव के प्रणाम मन्त्र में यह लिखा है कि,”सतीर्थप्रीति सद् धर्म गुरु प्रीति प्रदर्शिने “। अर्थात् यदि किसी व्यक्ति की गुरु के प्रति श्रद्धा तथा प्रीति है किन्तु उनकी कृपा प्राप्त वैष्णव गुरु भाइयों के प्रति श्रद्धा तथा प्रीति नहीं है, तो उसे वास्तविक “गुरु प्रीति” नहीं कहा जा सकता। यदि किसी की भगवान में प्रीति है तब स्वाभाविक रूप से उसकी भगवान के (निज जन) भक्तों के लिए भी प्रीति होगी । एक प्रसिद्ध कहावत है, “यदि तुम मुझसे प्रीति करते हो तो, मेरे कुत्ते से भी प्रीति करो।” यदि कोई यह विचार करता है कि उसकी गुरुदेव के प्रति दृढ़ श्रद्धा है किन्तु जिन भक्तों के ऊपर गुरुदेव ने आशीर्वाद रूप में कृपा की है उनके प्रति श्रद्धा नहीं तो उसकी गुरुदेव के प्रति श्रद्धा तथा प्रीति वास्तविक नहीं हैं।
हमारे गुरु महाराज ने स्वयं आचरण करके सबको शिक्षा प्रदान की। श्रील गुरुदेव का उनके सभी गुरु भ्राताओं के प्रति स्वाभाविक प्रेम था। गुरुदेव यदि किसी भी स्थान पर धर्म सभा का आयोजन करते थे तो अपने सभी गुरु भ्राताओं को अवश्य ही निमन्त्रित करते थे। यद्यपि उनके सभी गुरु भ्राता भी मठों तथा संस्थाओं के संस्थापक थे तथापि सभी को मठ वासियों तथा भक्तों सहित आमन्त्रित किया जाता था। एक बार हमने गुरु महाराज से निवेदन किया, “गुरुदेव आप अन्य-अन्य सभी मठ शाखाओं से इतने सारे भक्तों को आमन्त्रित करते हैं, उन सभी के रहने के लिए उचित स्थान तथा उनकी उचित प्रकार से सेवा व्यवस्था किस प्रकार करेंगे?” आप सभी भक्तों को आमन्त्रित करने के स्थान पर सभी मठ शाखाओं से दो या तीन विशेष व्यक्तियों को आमन्त्रित कर सकते हैं। जिससे सभी को सभी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध कराई जा सकती हैं।
गुरुदेव ने उत्तर दिया, “आपको इस विषय में चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है।” उन्होंने सभी को आमन्त्रित किया तथा हमसे कहा “मेरे सभी गुरु भ्राता आयेंगे। वे सभी श्रील प्रभुपाद के कृपापात्र है, आप सभी को उन वैष्णवों की सेवा का सुअवसर प्राप्त होगा।” वैष्णव सेवा के बिना कोई भी जीव आत्म कल्याण तथा भगवान की भक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।भक्तिस्तु भगवद भक्त संगेन परिजायते।
श्रील गुरुदेव का ह्रदय विशाल तथा उदार था। इसीलिए उनके आमन्त्रण पर उनके सभी गुरु भ्राता सम्मेलन में आते थे। हमें भी उनके मुख से हरिकथा श्रवण करने तथा उनकी सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त होता था।
हमारे गुरुदेव का श्रील प्रभुपाद के प्रति वास्तविक श्रद्धा तथा प्रेम था। इसका प्रमाण गुरुदेव की उनके गुरु भ्राताओं के प्रति विशेष श्रद्धा तथा प्रेम था। श्रील प्रभुपाद कहते थे, ” जिस किसी भी भक्त पर मैंने कृपा की है, उन सभी को इस संसार के भवबन्धन से मुक्त करवाने के लिए मैं अवश्य ही आऊंगा, भले ही इसके लिए मुझे लाखों बार जन्म क्यों ना लेना पड़े।” उनकी कृपा दृष्टि प्रत्येक भक्त पर है, फिर चाहे वह भक्त गृहस्थ हो या त्यागी। सभी को निश्चय ही उनकी कृपा प्राप्त होगी। श्रीमन महाप्रभु ने यह शिक्षा प्रदान की है कि हमें इस संसार के सभी जीवों को सम्मान देना चाहिए। ” जीवेर सम्मान दीबे कृष्ण अधिष्ठान।” हमारे इष्ट भगवान सभी जीवों के हृदय में वास करते हैं। फिर वह जीव दुष्ट प्रवृत्ति का ही क्यों ना हो। क्योंकि उसके हृदय में भगवान विराजित हैं, इसी सम्बन्ध के आधार पर हमें उसको सम्मान देना चाहिए। यदि महाप्रभु ने हमें प्रत्येक जीव का सम्मान करने का निर्देश दिया है,तो क्या हमें गुरुदेव के गुरु भ्राताओं का यथा योग्य सम्मान नहीं करना चाहिए? क्या हमें उनकी सेवा नहीं करनी चाहिए? यदि हम ऐसा नहीं करते, तो क्या हमारा श्री भगवान के प्रति वास्तविक प्रेम कहलाएगा? यदि हमारी इसी प्रकार की मानसिकता है, तो निश्चय की हमारा श्री भगवान के प्रति वास्तविक प्रेम नहीं है।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित “शरणागति” नामक ग्रन्थ से एक ओर भजन गीत लिया गया है:-
श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु जीवे दया करि ।
स्वपार्षद स्वीय धाम सह अवतरि ॥1॥
अत्यन्त दुर्लभ प्रेम करीवारे दान ।
शिखाय शरणागति भक्तेर प्राण ॥2॥
अर्थात् भगवान श्री कृष्णचैतन्य जीवों पर दया करने के लिए अपने पार्षदों सहित इस धरा पर अवतरित हुए। वह दुर्लभ प्रेम जो किसी भी युग में प्रदान नहीं किया गया, उस अत्यन्त दुर्लभ प्रेम को तथा भक्त का जो प्राण हैं, “शरणागति” उसकी शिक्षा देने के लिए इस धरा पर महाप्रभु अवतरित हुए। यदि हम में शरणागति नहीं होगी तब गुरुदेव का आविर्भाव तिथि तथा भगवान का आविर्भाव तिथि पालन करना व्यर्थ होगा। भगवान के पार्षद निर्गुण तथा अप्राकृतिक (इस जगत के नहीं) होने के कारण शरणागत भक्तों के हृदय में ही प्रकाशित होते हैं। महाप्रभु कहते हैं कि, “मैं तुम सबको यह दुर्लभ प्रेम देने के लिए आया हूँ”, तुम्हें मात्र एक ही कार्य करना है वह है “शरणागति।”बाकी का सारा उत्तरदायित्व मेरा है।”
जिस प्रकार जल का स्त्रोत उच्च स्तर से निचले स्तर की ओर बहता है, उसी प्रकार अनुग्रह अर्थात् कृपा सदा उच्च स्तर(ऊपर) से निचले स्तर (नीचे) की ओर आती है। यह कभी भी नीचे से ऊपर की ओर नहीं जाती। किन्तु जहाँ भी अभिमान या अहंकार रहेगा वहाँ हमारी भक्ति नष्ट हो जाएगी। इसीलिए उपरोक्त कीर्तन से यह प्रमाणित होता है कि महाप्रभु सदा शरणागत जीव के हृदय में ही प्रकाशित होते हैं।
शिखाय शरणागति भक्तेर प्राण ।
अर्थात् हमें शरणागति सीखने की आवश्यकता है, जो की एक भक्त के लिए प्राण स्वरूप है।
दैन्य, आत्मनिवेदन, गोतृप्तवे वरण ।
‘अवश्य रक्षिबे कृष्ण’ विश्वास पालन ॥
भक्ति – अनुकूलमात्र कार्येर स्वीकार ।
भक्ति- प्रतिकूल-भाव वर्जन-अंगीकार ॥
“दैन्य” अर्थात् दीनता। दीनता का वास्तविक अर्थ क्या है? हम अनेक प्रकार के मिथ्या अहंकार के साथ जीवन यापन करते हैं। जैसे कि उच्च परिवार में जन्म ग्रहण करना, धनवान होना, सुन्दरता तथा पाण्डित्य (ज्ञान) आदि। यदि इस प्रकार के अहंकार हमारे हृदय में वास करेंगे तब हम शरणागति प्राप्त नहीं कर सकेंगे। यहां तक की मैं बंगाल से हूँ, मैं पंजाब से हूँ, मैं भारत से हूँ, मैं अमेरिका से हूँ, मैं चीन से हूँ या मैं इस पृथ्वी का हूँ, इस प्रकार के मिथ्या अहंकार भी शरणागति में बाधा उत्पन्न करते हैं।
शास्त्रों में ऐसा कहा गया है कि, “आ वरिन्चत अमंगलम”। अर्थात् सम्पूर्ण भौतिक सृष्टि यहां तक की ब्रह्म लोक, सत्यलोक आदि स्थान भी दुःख प्रदान करने वाले हैं। शास्त्रों में यह भी कहा गया है, “मंगलम भगवान विष्णु, मंगलम मधुसूदना”। अर्थात् सभी प्रकार के मंगल के कारण भगवान विष्णु हैं। ‘दैन्य’ या ‘विनम्रता’ का अर्थ है की, “मैं इस भौतिक संसार का नहीं हूँ”। यदि कोई जीव इस तथ्य को स्वीकार करता है कि वह इस भौतिक संसार का नहीं है, तो उसे सभी प्रकार के मिथ्या अहंकार को त्याग देना चाहिए। हमारा इस संसार से जितना अधिक मात्रा में सम्बन्ध रहेगा, हमें उतनी अधिक मात्रा में कष्ट तथा अशान्ति की प्राप्ति होगी। सभी जीवों की उत्पत्ति का स्त्रोत एक ही है। सभी जीव भगवान से, भगवान के द्वारा, भगवान में, तथा भगवान के लिए हैं।
जब तक कोई भी व्यक्ति अपने हृदय में इस अहंकार को बनाए रखेगा कि वह इस संसार का है तब तक वह अज्ञानता से आच्छादित रहेगा तथा हृदय में शरणागति के विकास से वन्चित रहेगा। जब किसी जीव को यह अनुभव होगा कि वह भगवान से सम्बन्धित है तथा उनके लिए है तब वह आत्म निवेदन (स्वयं को भगवान की सेवा में नियोजित करना) की ओर अग्रसर होगा।
इसी बात को हमारे गुरुदेव ने ‘अमार भजन’ नामक एक लेख में स्पष्ट रुप से उन सभी भक्तों के लिए लिखा है जो मठ (मन्दिर) में भजन करने के लिए आए हैं तथा जिन्होंने गृहस्थ आश्रम ग्रहण किया है।
हमारे शरीर की उत्पत्ति अपरा-प्रकृति से हुई है। इस अपरा-प्रकृति के स्वामी कौन हैं? भगवान श्री हरि स्वयं इस अपरा प्रकृति के स्वामी हैं। हमारा शरीर पांच भौतिक तत्व भूमिर, आपो, तेज, मारुत तथा व्योम (पृथ्वी, जल अग्नि, वायु तथा आकाश) का मिश्रण है। भगवान श्री हरि इस भौतिक तत्व के स्वामी हैं। तो क्या इस शरीर पर हमारा अधिकार है?
इसीलिए हमारा हमारे शरीर पर कोई अधिकार नहीं है फिर चाहे वह स्थूल शरीर हो या सूक्ष्म शरीर। इन सभी की उत्पत्ति अपरा-प्रकृति द्वारा हुई है, जो भगवान से सम्बन्धित है। इस तथ्य को भगवद् गीता में भी बतलाया गया है। हम गीता पढ़ते हैं, किन्तु भगवान कृष्ण की शिक्षाओं को वास्तविक रूप में ग्रहण नहीं करते। इस प्रकार गीता पढ़ने से क्या लाभ होगा? वास्तविक रूप में गीता पढ़ने का अर्थ है भगवान कृष्ण द्वारा दी गई शिक्षाओं को ग्रहण करना। हमारा स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर अपरा-प्रकृति से सम्बन्धित है तथा अपरा-प्रकृति भगवान से सम्बन्धित है। भगवद् गीता के अनुसार आत्मा की उत्पत्ति का स्त्रोत भगवान की परा शक्ति है। चैतन्य महाप्रभु ने भी इस सिद्धान्त को स्पष्ट किया है। पराशक्ति अर्थात् तटस्था शक्ति। इसका अर्थ भगवान की आन्तरिक (अन्तरंगा) शक्ति से नहीं है। यदि कोई भी जीव भगवान की आन्तरिक शक्ति से उत्पन्न हुआ है, तो वह इस भौतिक संसार में नहीं आ सकता। इसलिए सांसारिक जीव भगवान की तटस्था शक्ति से उत्पन्न हुए हैं, जो कि उनकी अन्तरंगा शक्ति तथा बहिरंगा शक्ति के मध्य में स्थित है।
इस सिद्धान्त को हम किसी जल स्त्रोत के उस किनारे के द्वारा समझ सकते हैं जिसका सम्बन्ध जल तथा भूमि दोनों से है। उस किनारे की स्थिति जल तथा मिट्टी के बीच में है। उसकी दोनों तरफ जाने की सम्भावना है। एक जीव जो तटस्था शक्ति में स्थित है उसकी बार-बार माया की ओर गिरने की सम्भावना बनी रहती है। किन्तु यदि वह जीव तटस्था शक्ति से निकलकर भगवान की अन्तरंगा शक्ति (चिद् शक्ति) धाम में प्रवेश कर जाता है तब उसकी कहीं और गिरने की कोई सम्भावना नहीं रहती। फिर वह भगवान के लोक से लौटकर कहीं और नहीं जाता, यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम। यदि कोई तटस्था शक्ति तथा अन्तरंगा शक्ति को एक ही कहे तो दार्शनिक रूप से असुविधा होगी। हम किस प्रकार इस जगत में आये? हमारे लिए यह समझना अत्यन्त हो जाएगा।। उपरोक्त दोनों शक्तियों को एक कहना उचित नहीं है। क्योंकि अन्तरंगा शक्ति से उत्पन्न जीव कभी भी इस भौतिक संसार में नहीं आता। इसलिए हमारी उत्पत्ति तटस्था शक्ति से ही हुई। क्योंकि भगवान तटस्था शक्ति के भी स्वामी हैं इसीलिए वे हमारी आत्मा के भी स्वामी हैं। इसीलिए मेरा स्वयं पर कोई अधिकार नहीं है। तब मैं किससे सम्बन्धित हूँ? मैं भगवान से सम्बन्धित हूँ। इस प्रकार की भावना को आत्मनिवेदन कहते हैं अर्थात् मै केवल प्रभु का हूँ, मेरा इस भौतिक संसार से कोई सम्बन्ध नहीं है। किन्तु मात्र मुख से बोलना पर्याप्त नहीं है। यदि मैं वास्तव में इस भौतिक संसार से सम्बन्धित नहीं हूँ तो मैं किसी भी भौतिक अहंकार द्वारा इस संसार से सम्बन्ध नहीं रखूँगा। हमें व्यवहारिक रूप से अपने शरीर तथा इन्द्रियों को भगवान की सेवा में नियोजित करना चाहिए। शरणागति के बिना कोई भी जीव भागवत धर्म, प्रेम धर्म का पालन नहीं कर सकता। यदि किसी जीव की इस प्रकार की देहात्मबुद्धि (शरीर में ‘मैं’ बुद्धि) रहेगी, तब तक वह यह संसार समुद्र को पार नहीं कर सकता। उसे इस संसार में तब तक रहना होगा जब तक उसका जागतिक अहंकार बना रहेगा। अभी हम सब यहां भगवत चर्चा कर रहे हैं। किन्तु जैसे ही यहां से बाहर जाएंगे और यदि कोई हमें कुछ अपशब्द कहे तो हम उस पर आक्रमण कर देंगे। इस प्रकार की दुर्बलता के साथ बद्ध जीव किस प्रकार आध्यात्मिक जगत में प्रवेश कर सकते हैं।
दैन्य, आत्मनिवेदन, गोतृप्तवे वरण ।
‘अवश्य रक्षिबे कृष्ण’ विश्वास पालन ॥
हमारा पालन-पोषण करने वाला कौन है? क्या मैं स्वयं हूँ? या हमारे माता पिता? नहीं! परमपिता परमेश्वर ही हमारा पालन-पोषण करने वाले हैं। माता -पिता मात्र निमित्त हो सकते हैं, किन्तु वास्तव में भगवान ही हमारा पालन-पोषण करते हैं। वे हमारी शरीर से सम्बन्धित, मन की एवं आत्मा की आवश्यकताओं को पूरा करने वाले हैं। अन्य व्यक्ति इस कार्य में निमित्त हो सकते हैं किन्तु कारण नहीं। क्या हमारे देश की सरकार हमारी रक्षा करेगी? सरकार की रक्षा कौन करेगा यह भी निश्चित नहीं। माता-पिता की मृत्यु हो जाती है इसलिए वे हमारी रक्षा नहीं कर सकते। क्या पुत्र हमारी रक्षा करेगा? नहीं। एकमात्र भगवान ही हमारी रक्षा तथा पालन करते हैं। भगवान हमारी काम, क्रोध, लोभ, मोह, वासना तथा ईर्ष्या जैसे विगुणों से हमारी रक्षा करते हैं। वही हमारे एकमात्र रक्षक तथा मंगलकर्ता है। इसलिए हमें वह सब जो भक्ति के अनुकूल है उसे स्वीकार करना चाहिए तथा जो भक्ति के प्रतिकूल है उसे त्याग देना चाहिए। इससे भगवान प्रसन्न होते हैं। कोई यदि कहे कि शरीर की रक्षा के लिए खाना पड़ता है, तब तुम्हारे लिए शरीर प्रधान हो गया, यह शरीर किसका है, भगवान का है, भगवान् को जो भोग लगता है वह खाओ, खाने में इतना रुचि क्यों है?यदि भगवान को ही छोड़ दिया, मरने का बाद नरक में जाना पड़ेगा। यदि भगवान का भजन नहीं किया तो मनुष्य योनि प्राप्त करके क्या लाभ हुआ?
भगवान की कृपामयी मूर्ति गुरुदेव ने मुझे स्वयं आकर दर्शन दिये थे। मुझे उनके पास जाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। वे स्वयं मुझ पर कृपा करने आये थे। उनके आने से पहले मैं भौतिक जीवन में इधर उधर भटक रहा था। जब मैं गुरुदेव से मिला तो मैने उनसे दो प्रश्न पूछे।
मैंने गुरुदेव से पहला प्रश्न किया कि, “मैं अपने ज्ञान के अनुसार भगवान की यथायोग्य पूजा करता हूँ, मैंने अपने कक्ष में भगवान के कुछ चित्र रखे हैं जिनके के समक्ष बैठकर मैं ध्यान करता हूँ। मेरी यह धारणा है कि भजन करने का अर्थ है ‘ध्यान करना’। एक घंटे तक ध्यान करने के पश्चात मुझे ऐसा अनुभव होता है कि जैसे अभी भगवान मेरे सामने प्रकट हो जाएंगे तत्पश्चात मुझे अपने माता पिता भाई, बहन तथा अन्य सम्बन्धियों को छोड़कर उनके साथ जाना होगा। जैसे ही मेरे मन में इस प्रकार का विचार आता है मैं अविलम्ब ध्यान करना बन्द कर देता हूँ। किन्तु कुछ समय पश्चात मैं फिर से ध्यान करने के लिए बैठता हूँ तथा फिर से मेरे मन में परिवार को छोड़ने का विचार मन में आता है तथा मैं ध्यान करना बन्द कर देता हूँ। यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है।
आप कृपा करके बतलाए की मन में परिवार से वियोग की भावना को लेकर मैं किस प्रकार भजन करूं?”
यद्यपि मेरा प्रश्न मूर्खतापूर्ण था तथापि गुरुदेव ने मुझे प्रोत्साहित करने के लिए कहा, कि यह एक बहुत अच्छा प्रश्न है। तब उन्होंने मेरे प्रश्न का उत्तर एक उदाहरण के माध्यम से दिया। “एक बार कुछ राजहंस समुद्र से मानसरोवर की ओर जा रहे थे। रास्ते में एक तालाब था जो कि कुछ बत्तखों का निवास स्थान था। वे उस तालाब की छोटी मछलियों तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के कीटों को खाकर अपना जीवन निर्वाह करते थे। जब इन बत्तखों ने अपने ऊपर की ओर उड़ते हुए उन राजहंसों को देखा तो वह उनकी सुन्दरता देखकर मंत्रमुग्ध हो गए। वे सोचने लगे राजहंस दिखने में तो हमारे जैसे ही हैं, किन्तु यह अत्यन्त सुन्दर है। ये जिस स्थान पर वास करते हैं यदि हम भी वहाँ वास करने जाएं तो हम भी इनकी भान्ति सुन्दर दिखलाई देंगें। यह विचार कर, वे अत्यन्त करुण भाव से उनकी ओर देखने लगे। सूर्य की किरणें जब उन राजहंसों के पंखों पर पड़ती तो उनकी चमक और बढ़ जाती। उनमें से एक राजहंस की दृष्टि उन बत्तखों पर पड़ी तो उसने सोचा यह दिखने में तो हमारी ही भान्ति हैं, किन्तु इनकी अवस्था बहुत दयनीय है। उन बत्तखों की इस प्रकार की दयनीय अवस्था को देखकर राजहंसों के मन में उनके प्रति दया भावना आ गई तथा वह राजहंस विमान की भान्ति वृत्ताकार स्थिति में नीचे उतर कर उन बत्तखों के समक्ष उपस्थित हुआ। सभी बत्तखें उसकी सुन्दरता को देख कर आश्चर्य चकित थे। उन बत्तखों ने उस से पूछा:-
बत्तख – “आप कहां के निवासी हैं?”
राजहंस – “हम मानसरोवर के निवासी हैं।”
बत्तख – “आप कहां गए थे”?
राजहंस – “हम समुद्र की ओर गए थे और अब मानसरोवर की ओर लौट रहे हैं।”
बत्तख – “आपका निवास स्थान किस प्रकार का है?”
राजहंस – “वह अत्यन्त सुन्दर है।”
बत्तख – “क्या हम वहाँ जा सकते हैं।”
राजहंस – “मैं यहां तुम सबको ले जाने लिए ही आया हूँ। तुम सब मेरे साथ चलो।”
बत्तख – “किन्तु हम आपकी तरह लम्बी दूरी तक नहीं उड़ सकते।”
उनकी बात सुनकर राजहंस ने बड़ी सहजता पूर्वक उन्हें अपनी पीठ पर बैठने का प्रस्ताव दिया तथा उन सबको मानसरोवर ले जाने के लिए तत्पर हो गय। बत्तखें जाने से पहले विचार लगीं। बंगाल में एक कहावत है, ” भाबिया करियो काज, करिया भाबियो ना।” अर्थात् कोई भी कार्य करने से पहले अच्छे प्रकार से विचार विमर्श कर लेना चाहिए और यदि कोई कार्य पूरा कर लिया है तो फिर उसके लिए चिन्ता नहीं करनी चाहिए। यही सोचकर सभी बत्तखें, राजहंसों के साथ जाने से पहले आपस में विचार विमर्श करने लगीं। वह आलोचना करने लगे कि वहाँ पहुंचकर क्या खाएंगे?
उन्होंने राजहंसों से पूछा, ” यह तो ठीक है कि आप हमें अपने स्थान पर ले जाएंगे। किन्तु क्या हमें वहाँ पर खाने के लिए झीलों तथा तालाब में उपस्थित मछलियां तथा अन्य अन्य प्रकार के कीट इत्यादि मिलेंगे?
राजहंसों ने उत्तर दिया कि वहाँ इस प्रकार के तुच्छ खाद्य पदार्थ नहीं मिलते। हम कमल के फूल की नाल (तना) के रस (मृणाल) पीकर जीवन यापन करते हैं।
यह सुनकर बत्तखों ने उत्तर दिया कि, ‘ अरे नहीं, यदि वहाँ मछलियां तथा कीट इत्यादि खाने को नहीं मिलेंगे तो हम आप के स्थान पर नहीं जाएंगे।
इस प्रकार बत्तखों को उनकी तुच्छ खाद्य पदार्थों की आसक्ति ने उन्हें एक अच्छे स्थान पर जाने से रोक दिया। इसी प्रकार अनित्य सम्बन्ध तथा अस्थाई वस्तुओं के प्रति हमारी आसक्ति हमें भगवान के पास जाने से रोकती है। किन्तु यदि भगवान हमारे समक्ष आते हैं तो हमें उन सभी अनित्य सम्बन्धों तथा अस्थाई वस्तुओं को त्याग कर उनके पास जाना होगा जिनमें हमारी आसिक्त है। इस जगत के अनित्य सम्बन्धों तथा अस्थाई वस्तुओं में आसक्ति दुःसंग है। यदि हम शुद्ध रूप से साधु संग करेंगे तो हमारी चित्तवृत्ति परिवर्तित हो जाएगी। हम यह विचार करते हैं कि हमारा स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर ही वास्तविकता में हम हैं और इसलिए हम इस संसार की अनित्य वस्तुओं के प्रति सदा लालायित रहते हैं। ऐसे चिन्तन का क्या लाभ? वास्तविकता में हम आत्मा है शरीर नहीं, इस प्रकार का ज्ञान हमें कौन उपलब्ध करा सकता है? एक साधु ही हमें इस प्रकार का ज्ञान उपलब्ध करवा सकता है। एक सन्त अपनी वीर्यवती हरिकथा के द्वारा हमारी इस भौतिक संसार की आसक्ति रूपी गांठों को काटते हैं। ततो दु:सङ्गमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान्। सन्त एवास्य छिन्दन्ति मनोव्यासङ्गमुक्तिभि: ॥ (श्रीमद् भागवतम ११.२६.२६)। जो व्यक्ति असुकृति शाली भजन करने की इच्छा उत्पन्न नहीं हो सकती। किन्तु जो व्यक्ति सुकृति शाली अर्थात् जिनमें इस प्रकार के संस्कार होते हैं, उसी की भजन करने की योग्यता होती है। यदि कोई व्यक्ति ज्ञात या अज्ञात रूप से भगवान की सेवा करता है, तो उसका आत्मा पर प्रभाव पड़ता है तथा उसके मन में इस प्रकार के प्रश्न आते है कि, “मैं कौन हूँ?” “अथातो ब्रह्म जिज्ञासा” इत्यादि। मेरे माता-पिता भाई-बहन इत्यादि सभी प्रियजन अस्थाई हैं? “वे कहाँ से आए हैं?” तथा मृत्यु के पश्चात कहाँ जाएंगे? इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर प्राप्ति के लिए हमारी साधु संग करने की इच्छा उत्पन्न होगी।
इसलिए श्रील गुरुदेव मेरे सभी प्रश्नों का उत्तर देने के लिए मेरे निवास स्थान पर आए। उन्होंने मेरे सभी प्रश्नों का उत्तर दिया। मैं उनसे प्रश्न पत्रों के माध्यम से पूछता था तथा वे भी मेरे सभी पत्रों का उत्तर देते थे। गुरुदेव ने मुझे श्री भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित “जैव धर्म” नामक ग्रन्थ पढ़ने के लिए कहा। उस पुस्तक में विभिन्न प्रकार के प्रश्नों का उत्तर सहित वर्णन है। उस पुस्तक को पढ़ने के पश्चात मेरी सभी अध्यात्मिक शंकाएं दूर हो गईं। इसीलिए गुरुदेव ने मुझे प्रथम “जैव धर्म” ग्रन्थ पढ़ने के लिए कहा था। जब मैंने अपने परिवार को छोड़कर श्री गुरु महाराज के पास आने का निर्णय किया तब मैं कोलकाता के निकट बैरकपुर नामक स्थान पर रहता था। मैं वहाँ अपनी बहन के पति के साथ रहता था। तब मैं गुरुदेव के दर्शन के लिए आता था। वे तब कोलकाता के 8, हाजरा रोड़ नामक स्थान पर रहते थे। प्रथम मैं वहाँ कृष्ण प्रसाद प्रभु से मिला जिनका भविष्य में आश्रम महाराज नाम हुआ। जब मैं वहाँ गुरुदेव से मिला तब मैंने उनसे दूसरा प्रश्न किया कि, “मैं समझ चुका हूँ कि यह संसार अनित्य है।” यह सोच कर मेरा संसार के प्रति उदासीन भाव आता है। किन्तु मेरी अभी भी मेरी इस संसार में भोग करने की वृत्ति गई नहीं है। अभी मेरा क्या कर्तव्य है? क्या मुझे ऐसी अवस्था में संसार त्याग देना चाहिए? यदि मैं अभी अपने पारिवारिक जीवन को त्याग देता हूँ तथा भविष्य में मुझे किसी कारण से प्रतिगमन करना पड़े तो लोग मेरा उपहास करेंगे। तो क्या मेरे लिए सांसारिक जीवन को त्यागना सही है या नहीं?
गुरु जी ने मेरे प्रश्न का उत्तर दिया कि, “बद्ध जीव में अनेक प्रकार की कमियां हो सकती हैं किन्तु सर्वशक्तिमान भगवान में कोई कमी नहीं है। जो कोई जीव उनका आश्रय ग्रहण करता है वे अवश्य ही उसकी रक्षा करते हैं। एक माया बद्ध जीव स्वयं की शक्ति द्वारा भगवान की माया शक्ति से स्वयं की रक्षा नहीं कर सकता। तुम्हें अवश्य ही भगवान का आश्रय ग्रहण करना चाहिए।”
श्रील गुरुदेव का उत्तर सुन कर मुझे थोड़ा प्रोत्साहन मिला। मैंने गुरुदेव से कहा, मेरे पिता का मेरे प्रति अत्यधिक वात्सल्य भाव है। उन्होंने मेरा पालन पोषण अत्याधिक चेष्टा तथा प्रीति पूर्वक किया है। यदि मैं उनका इस स्थिति में त्याग करता हूँ तो क्या मुझसे कोई पाप या अधर्म तो नहीं होगा?
मेरा प्रश्न सुनकर गुरुदेव ने गीता का एक श्लोक उच्चारण किया:-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मां शुच: ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता 18.66)
अर्थात् भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं की तुम इस संसार के सभी धर्म जैसे कि वर्णाश्रम धर्म, कर्म योग, ज्ञान योग इत्यादि का त्याग करो तथा पूर्णतया मेरा आश्रय ग्रहण करो। मैं स्वयं तुम्हारी सभी प्रकार के पापों तथा अनर्थों से रक्षा करूंगा। तुम क्यों व्यर्थ चिन्ता करते हो।
श्रील गुरुदेव का उत्तर सुनने के पश्चात मैंने घर छोड़ने का मन बना लिया। मैंने गुरुदेव से कहा यदि मैं अपना बिस्तर साथ लेकर आऊंगा तो मेरे परिवार के लोग मुझे पकड़ लेंगे। गुरुदेव ने उत्तर दिया, तुम्हें बिस्तर लाने की कोई आवश्यकता नहीं तुम मात्र पहनने के लिए कुछ वस्त्र लेकर आ सकते हो। कोलकाता शहर में हमारे कई सम्बन्धी तथा परिवार के लोग रहते थे। किन्तु उनसे मेरा अधिक मिलना नहीं होता था। मेरी इस प्रकार की रुचि भी नहीं थी। कुछ दो चार बंधुओं के साथ ही मिलना होता था।
उसके पश्चात मैं घर गया और जब मैं अपने साथ ले जाने वाले वस्त्र बांध रहा था तब मेरी एक बहन ने मुझे देख लिया तथा मेरे पिताजी को इस विषय में सूचित किया। मेरे पिताजी ने मुझसे प्रश्न किया, “तुम इन वस्त्रों को लेकर कहां जा रहे हो।”
मैंने कहा, “एक मित्र के घर जा रहा हूँ, वहाँ जाने से मेरा लाभ होगा।”
हमारा वास्तविक मित्र या बन्धू तो साधु होता है, जो हमें इस संसार के भौतिक क्लेशों से निकालकर भगवान के साथ हमारा साक्षात्कार करवाता है। इस आधार पर मैंने अपने पिताजी को मिथ्या नहीं बोला था। किन्तु उन्होंने सोचा कि मैं एक सांसारिक मित्र के पास किसी संसारिक लाभ के लिए जा रहा हूँ। इसी कारण से उन्होंने मुझे रोकने की चेष्टा नहीं की। कुछ समय पश्चात उन्हें यह पता चला कि मैं घर परिवार त्याग कर एक मठ में ब्रह्मचारी के रूप में रह रहा हूँ। उसके पश्चात मेरे पिता ने मुझे दो पत्र भेजे। जब पिताजी का पहला पत्र आया तो मैंने गुरु जी से पूछा, “क्या मैं पिताजी के द्वारा भेजे इस पत्र का उत्तर दे सकता हूँ?”
गुरुजी ने उत्तर दिया, “नहीं, पिताजी के भेजे पत्र का उत्तर नहीं देना। उत्तर देने से तुम्हें फिर घर जाना पड़ेगा। तुम मठवास नहीं कर पाओगे। इसलिए उत्तर देने की आवश्यकता नहीं।”
कुछ दिन के पश्चात पिता जी का दूसरा पत्र आया। मैंने दोबारा गुरुदेव को जाकर पूछा क्या, “मैं उत्तर दे सकता हूँ।” गुरुदेव ने मुझे पहले के भान्ति ही उत्तर नहीं देने के लिए कहा। बद्ध जीव होने के कारण मेरे हृदय की दुर्बलता थी जिस कारण उत्तर ना देने की स्थिति में मेरे मन में अनेक प्रकार की प्रतिक्रिया होने लगी। किन्तु गुरुदेव का आदेश होने के कारण मैं कुछ नहीं कर सकता था। हम मठ में अपने परिवार तथा परिजनों को त्याग कर आए थे। इसलिए यदि हम मठ में आकर ठीक प्रकार से भजन नहीं करेंगे तो माता-पिता द्वारा लिए गए ऋणों को हम उतार नहीं पाएंगे। कोलकाता मठ में गोविन्द प्रभु रहते थे। उन्होंने हमें समझाया कि यदि तुम ठीक प्रकार से भजन करोगे तो माता-पिता के ऋण को उतार सकते हो। यदि मठ में आकर भी हम भजन नहीं कर सके तो माता-पिता को छोड़ने का पाप लगेगा। इसलिए मठ में उपस्थित सभी वैष्णव के पास जाकर आशीर्वाद लेना ताकि ठीक प्रकार से भजन कर सकें। भगवान से हमारा नित्य सम्बन्ध है। वही हमारे वास्तविक माता-पिता, बन्धु तथा गुरु हैं। यदि कोई व्यक्ति शुद्ध वैष्णवों के संग में रहकर ठीक प्रकार से भजन करता तो वह स्वयं मंगल प्राप्ति तो करता ही है साथ ही साथ उसके परिवार तथा माता-पिता भी मंगल प्राप्ति करते हैं। शुद्ध रूप से भजन करने वाला व्यक्ति अपने कुल की इक्कीस पीढ़ियों का उद्धार करता है।
जब भगवान नृसिंह देव ने भक्त प्रह्लाद को वर मांगने के लिए कहा तो प्रह्लाद ने उत्तर दिया कि कृपा करके आप मेरे पिता की रक्षा करें। उन्होंने आपके साथ युद्ध करके आपके चरणो में अपराध किया है। भगवान नृसिंह ने कहा, “तुम्हारे पिता ने मेरे दर्शन किए, मैंने स्वयं उनको अपने हाथों से मृत्यु दण्ड प्रदान किया, उन्हें अपनी गोद पर लेटाया, उनकी आंतो को निकाल कर अपने गले में पहना। क्या वह अभी भी अशुद्ध हैं? हे प्रह्लाद, तुम्हारे इस जन्म के माता पिता के साथ-साथ तुम्हारे पूर्व जन्म के इक्कीस माता पिता को भी मुक्ति प्राप्त होगी।
मैंने गुरुदेव को अनेक कष्ट दिए थे। किन्तु फिर भी गुरुदेव ने मुझे अपार स्नेह प्रदान किया। एक बार सारभोग गोड़ीय मठ में एक वार्तालाप करते हुए मैंने गुरुदेव से कहा कि मैं मठ में स्वयं को समायोजित करने में असमर्थ पाता हूँ। इसीलिए मुझे लगता है कि मुझे सांसारिक जीवन में प्रतिगमन करना होगा। मेरे यह शब्द सुनकर गुरुदेव दु;खी होकर क्रन्दन करने लगे। यह दृश्य देखकर मेरे मन को अत्यन्त पीड़ा हुई। उनका मेरे प्रति प्रगाढ़ वात्सल्य भाव था। उनके इस वात्सल्य प्रेम की कोई सीमा नहीं थी। किन्तु मैं बद्ध जीव हूँ। मैंने गुरुदेव के चरणों में अनेक अपराध किए हैं।
आज हमारे गुरुदेव का जन्म शताब्दी दिवस है। गुरुदेव का आगमन क्यों हुआ? उनका आगमन महाप्रभु की इच्छा पूर्ति करने के लिए हुआ था। महाप्रभु की इच्छा थी की सर्वत्र कृष्ण भक्ति का अभ्यास तथा प्रचार हो। श्रीमन महाप्रभु ने श्रीला हरिदास ठाकुर तथा नित्यानन्द प्रभु को सर्वत्र शुद्ध भक्ति का प्रचार करने का आदेश दिया था। नित्यानन्द प्रभु कहते हैं,
प्रभुर आज्ञा, मांगी एइ भिक्षा,
बोलो कृष्ण, भजो कृष्ण करो कृष्ण शिक्षा ।
अर्थात् गुरु के आदेश से हम आप सब जीवों से भगवान कृष्ण के पवित्र नाम का जाप करना, भगवान कृष्ण की पूजा करना तथा भगवान कृष्ण की शिक्षाओं को अंगीकार करने की भिक्षा मांगते हैं।
श्री नित्यानन्द प्रभु तथा श्रील हरिदास ठाकुर का मुख्य उद्देश्य श्रीमन महाप्रभु की इच्छाओं की पूर्ति करना था। इसी प्रकार यदि हम भी अपने गुरुदेव के मनोभिष्ट को हृदय से प्रीति पूर्वक पूरा करने का प्रयास करेंगे तो उसी को वास्तविक रूप में भगवान तथा वैष्णवों की सेवा कहा जाएगा। श्रीला गुरुदेव का जन्मशताब्दी महोत्सव मनाने का मुख्य उद्देश्य क्या है? मुख्य उद्देश्य है गुरुदेव के मनोभिष्ट को पूर्ण करना। श्रीला गुरुदेव का मनोभिष्ट क्या है? उनका मनोभिष्ट है अपनी निस्वार्थ सेवा चेष्टा के द्वार श्री भगवान तथा वैष्णवों को सन्तुष्ट करना। इसीलिए हमारा मुख्य उद्देश्य है भगवान तथा वैष्णव की सेवा करना तथा अन्य भक्तों की भगवान तथा वैष्णवों की सेवा करने में सहायता करना। यही हमारे श्रीला गुरुदेव के जन्म शताब्दी महोत्सव मनाने का मुख्य उद्देश्य है। मात्र एक अनुष्ठान के रूप में या किसी सांसारिक त्योहार के रूप में इस उत्सव को मनाना हमारा मुख्य उद्देश्य नहीं है। अनुष्ठान का वास्तविक अर्थ होता है बिना किसी छल कपट के गुरु, वैष्णव तथा भगवान की सेवा में स्वयं को पूर्णतया समर्पित करना। तभी गुरुदेव की भी सन्तुष्टि होगी तथा अन्य लोग भी सन्तुष्टि की प्राप्ति करेंगे।
मुनि वेदव्यास ने अनेक ग्रन्थों की रचना की। जिसमें उन्होंने धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के बारे में विस्तारपूर्वक वर्णन किया। किन्तु यह सब करने पर भी उन्हें मन में शान्ति की प्राप्ति नहीं हुई। तब उन्होंने अपने गुरुदेव नारद गोस्वामी के आदेश पर श्रीमद् भागवतम् की रचना की तो भगवान को अति प्रसन्नता हुई।श्रीमद्भागवत लिखने के पीछे उनका उद्देश्य क्या था? श्रीमन चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं भगवत धर्म का आचरण तथा प्रचार किया। हम सदा इस संसार की वस्तुओं जैसे कि धन, नाम, प्रतिष्ठा तथा पद इत्यादि के लिए लालायित रहते हैं तथा इन वस्तुओं लिए एक दूसरे के साथ लड़ाई-झगड़ा भी करते रहते हैं। किन्तु क्या मृत्यु के समय यह सब वस्तुएं हमारे साथ जाएंगीं? अगले क्षण हम जीवित रहेंगे या नहीं इसका कोई आश्वासन नहीं है। यदि हम सदैव इन वस्तुओं में आसक्त रहेंगे, तो मृत्यु के समय हमारे मन में यही सब विचार आएंगे। हमें मनुष्य जन्म में प्राप्त इस बहुमूल्य समय को एक क्षण के लिए भी व्यर्थ नहीं करना चाहिए। अन्यथा हमारे साथ क्या जाएगा? भगवान के नित्य धाम अर्थात् ब्रज धाम तथा वैकुण्ठ धाम के निवासियों का एकमात्र लक्ष्य अपनी सेवा चेष्टाओं द्वारा भगवान श्री कृष्ण को प्रसन्न करना होता है। जिस स्थान पर सभी के स्वार्थ का केन्द्र बिन्दु एक ही होगा वहाँ पर किसी भी प्रकार का कलह या क्लेश नहीं होगा। जिस प्रकार अलग-अलग छोटे-बड़े गोल वृत्त का केन्द्र बिन्दु यदि एक हो तब वह एक दूसरे को आपस में नहीं काटेंगे। ठीक उसी प्रकार यदि हम सभी का लक्ष्य एकमात्र भगवान की सन्तुष्टि हो तो किसी भी प्रकार के कलह की कोई सम्भावना नहीं होगी। किन्तु संसार के लोग भगवान को भूल कर स्वार्थी बन गए हैं। सभी का लक्ष्य एक ना होकर अपने-अपने स्वार्थ की पूर्ति करना है जिस कारण से परिवार में, देशों में तथा राष्ट्रों में सदा कलह तथा मतभेद बने रहते हैं। इसीलिए यह सारा संसार एक दावाग्नि (जंगल की आग) के समान है। यदि साधु बनने के पश्चात भी हम एक दूसरे के साथ इसी प्रकार आपस में मतभेद तथा द्वेष भावना रखेंगे तो हमें क्या प्राप्त होगा? यदि कोई व्यक्ति भगवान के शरणागत होता है तो क्या भगवान उसकी रक्षा नहीं करेंगे? यदि हम यह विचार करेंगे कि भविष्य में मेरे साथ क्या होगा पता नहीं, इसीलिए मैं अधिक से अधिक धन संचित करके रखूँगा। तो क्या धन हमारी रक्षा करेगा, भगवान नहीं? ऐसी परिस्थिति में भगवान हमारे पास क्यों आएंगे? वे मूर्ख नहीं हैं।
उदाहरण के लिए यदि हम बिना किसी स्वार्थ के किसी ऐसे व्यक्ति की सेवा करें जो दुष्ट प्रवृत्ति का है। तो ऐसे दुष्ट प्रवृत्ति वाले व्यक्ति के मन में भी यह विचार आएगा कि यह व्यक्ति निस्वार्थ भावना से मेरी सेवा कर रहा है। इसने अभी तक भोजन ग्रहण किया, तो मैं कैसे भोजन ग्रहण कर सकता हूँ? मैंने अच्छे वस्त्र पहने हैं, इसलिए इस व्यक्ति को भी अच्छे वस्त्र मिलने चाहिए। कहने का अभिप्राय यह है कि निस्वार्थ सेवा को देखकर यदि उस दुष्ट प्रवृत्ति वाले सांसारिक व्यक्ति के मन में दया आ सकती है, तो क्या भगवान जो अनन्त ब्रह्माण्डों के रचयिता तथा उनकी रक्षा करने वाले हैं, क्या वे हमारी निस्वार्थ सेवा चेष्टाओं देखकर कुछ नहीं करेंगे? वे अवश्य ही हमारी रक्षा करेंगे। यदि भगवान की इच्छा है कि हमारी मृत्यु हो जाए तो होने दो। श्रीला भक्ति विनोद ठाकुर ने अपने एक कीर्तन में लिखा है:-
मारबि राखबि, जो इच्छा तोहारा,
नित्य दास प्रति तुया अधिकारा ।
अर्थात् हे भगवान, मैं आपका नित्य दास हूँ। आपको मेरे प्रति कुछ भी करने का अधिकार है। अब आपकी इच्छा है, आप चाहे मुझे जीवन प्रदान करें या मृत्यु प्रदान करें।
इसीलिए हमें स्वयं को भगवान की इच्छाओं के अनुरूप प्रस्तुत करने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए। हमें अवश्य ही भगवान की इच्छाओं को स्वीकार करना चाहिए। हमें भगवान तथा श्री गुरुदेव जो की भगवान का ही कृपा अवतार हैं, दोनों के पूर्ण रूप से शरणागत होना चाहिए। यदि इनमें हमारा विश्वास नहीं है तो हम स्वयं से ही छल कर रहे हैं। किन्तु गुरुदेव सदैव हमारी रक्षा करते हैं।
विदेश प्रचार में जाने से पूर्व जब मैं श्रीला भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज से मिला तब मैं मन में विचार कर रहा था कि वे अवश्य ही मुझे विदेश प्रचार में जाने से रोकेंगे। क्योंकि विदेशों में लोग भोजन के बाद हाथ धोना, मल त्याग के बाद हाथ धोना या स्नान करना इत्यादि जैसे नियमों का पालन नहीं करते। किन्तु इसके विपरीत उन्होंने मुझे विदेश प्रचार में जाने का आदेश दिया। जम्मू के भक्त मुझे पश्चिमी देशों में जाकर प्रचार करने का बहुत आग्रह कर रहे थे। इसीलिए मैने श्रीला पुरी गोस्वामी महाराज से तीन बार पूछा की मुझे विदेश प्रचार में जाना चाहिए या नहीं। किन्तु प्रत्येक बार उन्होंने मुझे विदेश प्रचार में जाने का आदेश दिया तथा तीसरी बार उन्होंने यह आदेश मुझे पत्र लिखकर दिया।
तब मैंने उनसे विनम्रता पूर्वक पूछा, “मैं अपना परिवार छोड़कर मठ वास करने के लिए आया हूँ। पश्चिमी देशों में माया का बहुत अधिक प्रभाव तथा आकर्षण है। यदि मैं वहाँ जाता हूँ तथा मेरा आध्यात्मिक पतन हो जाता है, तो मुझे माता पिता का ऋण तथा उन्हें छोड़ने का पाप दोनों ग्रहण करने पड़ेंगे। क्या मेरा आध्यात्मिक पतन होने पर आप मेरा उत्तरदायित्व लेंगे?
तब श्रीला पुरी गोस्वामी महाराज ने उत्तर दिया कि, ” तुम्हारे गुरुदेव तुम्हारा उत्तरदायित्व लेंगे। तुम जाओ तथा प्रचार करो।”
श्रीला महाराज के आदेश का पालन करने के लिए मैंने विदेश जाने का कार्यक्रम बनाया। जाने से पूर्व कलकत्ता में रहने वाले दो व्यक्ति मुझसे मिलने के लिए आए। उन्होंने कहा, “आप विदेश यात्रा पर क्यों जा रहे हैं? वहाँ के लोगों के पास हरि कथा सुनने के लिए थोड़ा सा भी समय नहीं है। वे केवल सप्ताह के अन्त में हरिकथा सुनने के लिए कुछ समय निकाल पायेंगे। बाकी समय वे धन उपार्जन करने में व्यस्त रहते हैं।”
किन्तु मैं अपने शिक्षा गुरु श्रीला भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज की आज्ञा पालन करने के लिए पश्चिमी देशों में प्रचार करने के लिए गया। मैं जहाँ भी गया वहाँ भक्त गण मुझे चारों ओर से आकर घेर लेते। इस प्रकार उन्होंने पतित होने से मेरी रक्षा की। यदि किसी को भक्तों का संग मिल जाए तो उसकी पतित होने की सम्भावना कम हो जाती है।
आज मेरे परम आराध्यतम श्री गुरुदेव का आविर्भाव तिथि है। वे नित्य वस्तु है। इसीलिए हमें सदैव उनका स्मरण करना चाहिए। मैंने गुरुदेव के चरणों में अनेक अपराध किए हैं। किन्तु उनका मेरे प्रति प्रगाढ़ वात्सल्य भाव था। उन्होंने सदैव मेरे नित्य मंगल के लिए ही सोचा। आज उनकी प्रकट तिथि पर मैं उनके चरण कमलों में शाष्टांग दण्डवत प्रणाम करता हूँ। मुझसे बोध तथा अबोध स्थिति में जो अपराध हुए, उसके लिए गुरुदेव के चरण कमलों में क्षमा याचना करता हूँ। आप सभी भक्तजन भी मेरे नित्य कल्याण के लिए गुरुदेव से प्रार्थना करें। किसी भी क्षण यह शरीर नष्ट हो सकता है। इसीलिए यहां जितने भी वैष्णव जन हैं उन सभी से प्रार्थना है की वे गुरुदेव से मेरे लिए प्रार्थना करें। वैसे तो श्रीला गुरुदेव अत्यन्त दयालु हैं। किन्तु सम्भवत वे आप सब की प्रार्थना पर मेरे सभी अपराधों को क्षमा करके, मुझे अपने चरण कमलों में अहैतुकी भक्ति प्रदान करें।