भगवान स्वयं जीव-हृदय में परमात्मा रूप से वास करते हैं और समयानुसार इस जगत में विभिन्न रमणीय अवतार भी ग्रहण करते हैं एवं अपने नित्य-पार्षदों को बद्ध जीवों का चित्त परिवर्तन करने हेतु इस जगत में भेजते हैं, जिससे जीव भगवान में स्वेच्छा से शरणागत हो सकें।
प्रश्न – मेरी पुत्री ने आपके श्रीपादपद्मों में आश्रित होकर सन् 2001 में हरिनाम व सन् 2004 में मंत्र-दीक्षा प्राप्त की थी। क्योंकि इस वर्ष वह (हमारे देश में) कला महाविद्यालय (आर्ट्स कॉलेज) से स्नातक (ग्रेजुएट) होने जा रही है, इसलिए हाल ही में सम्पन्न हुई श्रीव्रजमंडल परिक्रमा में हमारे साथ नहीं आ सकी। दिसम्बर महीने के अंत में मेरे देशवाशी भक्तों ने मुझे सूचित किया कि वह असत्-संग में पड़ गई है। वह भक्तों का संग त्याग कर कॉलेज के सहपाठी युवक के साथ रहने के लिए किराये पर स्थान लेने की इच्छुक है। मैं उसके लिए बहुत चिंतित हूँ। सभी भक्त भी चिंतित हैं। मैं और मेरा पुत्र इस गंभीर परिस्थिति में उसकी सहायता करने के लिए उसे विस्तार से पत्र लिख रहे हैं। गुरु महाराज, यदि संभव हो तो कृपया आप भी पत्र के माध्यम से उसे कुछ उपदेश प्रदान करें। मुझे विश्वास है कि हरिकथा उसकी रक्षा करेगी। श्रील गुरुदेव -आपकी मातृभाषा में लिखा हुआ आपका पत्र मिला जिसे अंग्रेजी अनुवाद होने के पश्चात् ई-मेल से भी भेजा गया था।
मैंने आपके पत्र को पढ़ा और मुझे दुःख है कि कलकत्ता में रहने पर भी, भाषा की कठिनाई के कारण आप अपने हृदय के भाव मेरे समक्ष व्यक्त करने में असमर्थ हैं और वर्तमान में कोई भी ऐसा व्यक्ति यहाँ नहीं है जो आपके विचारों को अंग्रेजी में अनुवाद करके मुझे समझा सके।
यह सत्य है कि भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से आपका अपने पुत्र के साथ श्रीव्रजमंडल परिक्रमा में सम्मिलित होना संभव हो सका। श्रीकृष्ण की सम्मति के बिना, कुछ भी संभवपर नहीं है। भगवान् की इच्छा से मैंने कई बार आपके देश की यात्रा की और वहाँ के भक्तों का संग प्राप्तकर प्रसन्नता का अनुभव किया। मेरी स्वास्थ्य की स्थिति के कारण वर्तमान में मेरे लिए भारत से बाहर यात्रा करना निषेध है।
भगवान् बद्धजीवों की आपेक्षिक स्वतंत्रता में बाधा नहीं देते। हमारा वास्तविक स्वरूप है आत्मा, जो चिंतन करता है, जिसे अनुभूति होती है व जो इच्छाशील है। इस जगत में कोई भी मृत शरीर को व्यक्ति नहीं मानता। शरीर में जब तक चेतन सत्ता विद्यमान है, इसे व्यक्ति माना जाता है। यदि भगवान् अपनी शक्ति से जीवों को बलपूर्वक अपने सेवोन्मुख कर लें तो आत्मा एक जड़ वस्तु के समान हो जाएगा। इसी कारण से भगवान स्वयं जीव-हृदय में परमात्मा रूप से वास करते हैं और समयानुसार इस जगत में विभिन्न रमणीय अवतार भी ग्रहण करते हैं एवं अपने नित्य-पार्षदों को बद्ध जीवों का चित्त परिवर्तन करने हेतु इस जगत में भेजते हैं, जिससे जीव भगवान में स्वेच्छा से शरणागत हो सकें।
आपके लिए महान भक्त प्रह्लाद महाराज के जीवन-चरित्र का अध्ययन लाभदायक होगा। अपने पुत्र विरोचन की मनोवृत्ति परिवर्तित कर उसे भगवद्-भजन के उन्मुख कराने हेतु प्रह्लाद महाराज ने अनेक प्रयास किए थे, किन्तु वह असफल रहे और उनका पुत्र एक असुर बन गया। किन्तु प्रह्लाद महाराज इस घटनाक्रम से विचलित नहीं हुए, यह विचार करते हुए कि विरोचन अपने पूर्व पाप-कर्मों से अर्जित दुष्कृति के कारण, उनकी शिक्षाओं को ग्रहण करने में असमर्थ रहा। उन्होंने विचार किया कि पुत्र के नित्य मंगल हेतु उन्होंने अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है किन्तु अपने ही पूर्व बुरे संस्कारों के कारण पुत्र उनकी शिक्षा को अंगीकार नहीं कर सका। भगवान् व उनके शक्तिसंपन्न पार्षद भी जब जीव की मनोवृत्ति को बल पूर्वक परिवर्तित करने के प्रयास का प्रदर्शन नहीं करते, तो हम यह कैसे कर सकते हैं? हमारा कर्तव्य है कि हम अपने आदर्श चरित्र द्वारा बद्ध जीव की मनोवृत्ति को परिवर्तित करने में उनकी सहायता करें जिससे वे शरणागत होकर भगवद् भजन कर सके। किन्तु इसे क्रियान्वित करने के लिए हमें दृढ़ प्रतिज्ञ नहीं होना है क्योंकि हमारी अभिलाषा यदि फलप्रद नहीं हुई तो हम विचलित हो सकते हैं।
दो मार्ग हैं—(1) नित्य मंगल का मार्ग (श्रेय पथ) और (2) इन्द्रिय तृप्ति का मार्ग (प्रेय पथ)। संसार रूपी इस कारागार में, 1000 में से प्रायः 999 जनगण इन्द्रिय तृप्ति के मार्ग पर चलते हैं। केवल कुछ ही व्यक्ति श्रेय पथ के अधिकारी होते हैं। आरंभ में इस पथ में इन्द्रिय-संयम आदि विषमय प्रतीत होने पर भी अंततः इसका परिणाम अमृतमय है। और उससे विपरीत प्रेय पथ प्रारंभ में अमृतमय प्रतीत होने पर भी उसका परिणाम भयंकर विषमय है। परम भाग्यशाली साधक ही नित्य मंगल प्रद श्रेय पथ को स्वीकार करते हैं।
मनुष्य-जन्म की विशेषता है कि उसमें अच्छे-बुरे, सत्-असत् में भेद करने की क्षमता है। भगवान् ने यह बहुमूल्य मनुष्य-जन्म हरि-भजन के उद्देश्य से प्रदान किया है न कि पशु-पक्षियों की भांति आहार, निद्रा, भय, मैथुन आदि में रत रहने के लिए। आपकी कन्या भाग्यशाली है कि उसने नित्य मंगल के मार्ग को स्वीकार किया है। अनित्य विषय भोगों के प्रति आपकी पुत्री का आकर्षण उसके नित्य मंगल के लिए हानिकारक है। जो भी विषय-भोग के मार्ग पर चलते हैं, अन्ततः गंभीर रूप से पछताते हैं। किन्तु तब तक अतिशय देरी हो चुकी होती है। सभी बद्ध जीव विषय-भोगों—कर्णेंद्रिय, चक्षु, जिह्वा, गंध और स्पर्श इन्द्रियों के तर्पण, के पीछे भाग रहे हैं। श्रीकृष्ण बहिर्मुख जीव, माया शक्ति के संसर्ग के कारण, सांसारिक विषय भोग को ही अपनी आवश्यकता समझता है।
कीट-पतंगों की नेत्र इन्द्रिय अति प्रबल होती है। अग्नि के तेज से आकर्षित होकर, भोग की इच्छा से वे अग्नि में कूद पड़ते हैं और जल कर भस्म हो जाते हैं। अज्ञानी दुर्भाग्यशाली व्यक्ति इन्द्रिय भोग के विषमय परिणाम का विचार नहीं करते हुए उचित या अनुचित उपाय से उसके पीछे भागते हैं। रूप, रस, मधुर-शब्द, सुकोमल-स्पर्श और सुगंधि आदि समस्त आनंद का वास्तविक अस्तित्व भगवान् श्रीकृष्ण में है। बद्ध जीव, वास्तव में, श्रीकृष्ण की छाया-शक्ति, माया, के पीछे धावित होते हैं व अंत में निराशा ही प्राप्त करते हैं। एक निष्कपट साधक को अपने जीवन के चरम लक्ष्य—अहैतुकी श्रीकृष्ण-भक्ति—के प्रति सचेत रहना आवश्यक है।
परम करुणामयी श्रीश्रीगुरुगौरांग आप सभी पर कृपा करें।
आप सभी को मेरा स्नेह।