दिव्यता तथा दिव्य सेवा
व्यास उवाच
इति सम्प्रश्नसंहृष्टो विप्राणां रौमहर्षणिः।
प्रतिपूज्य वचस्तेषां प्रवक्तुमुपचक्रमे ।। 1 ।।
व्यास: उवाच= व्यास ने कहा; इति= इस प्रकार; सम्प्रश्न = पूर्ण जिज्ञासा; संहृष्ट: = पूर्णतया सन्तुष्ट; विप्राणाम् = वहाँ के मुनियों का; रौमहर्षणिः= रोमहर्षण के पुत्र, उग्रश्रवा; प्रतिपूज्य=धन्यवाद देकर; वचः = शब्द; तेषाम् =उनके; प्रवक्तुम= उन्हें उत्तर देने के लिए; उपचक्रमे=प्रयत्न किया।
अनुवाद-
रोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा (सूत गोस्वामी) ने ब्राह्मणों के सम्यक् प्रश्नों से प्रसन्न होकर उन्हें धन्यवाद दिया और वे उत्तर देने का प्रयास करने लगे।
तात्पर्य-
नैमिषारण्य के मुनियों ने सूत गोस्वामी से छह प्रश्न पूछे और अब वे एक एक का उत्तर दे रहे हैं।
सूत उवाच
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेत कृत्यं
द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुस्तं
सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥2॥
सूत: उवाच—सूत गोस्वामी ने कहा; यम्—जिसको; प्रव्रजन्तम्—संन्यास लेते समय; अनुपेतम्—जनेऊ (यज्ञोपवीत) संस्कार किये बिना; अपेत—संस्कार न करके; कृत्यम्—करणीय कर्तव्य; द्वैपायन:—व्यासदेव ने; विरह—वियोग से; कातर:—भयभीत होकर; आजुहाव—पुकारा; पुत्र इति—हे पुत्र; तत्-मयतया—इस प्रकार लीन होकर; तरव:—सारे वृक्षों ने; अभिनेदु:—उत्तर दिया; तम्—उसको; सर्व—समस्त; भूत—जीवों के; हृदयम्—हृदय; मुनिम्—मुनि को; आनत: अस्मि—नमस्कार करता हूँ ।
अनुवाद
श्रील सूत गोस्वामी ने कहा : मैं उन महामुनि (शुकदेव गोस्वामी) को सादर नमस्कार करता हूँ जो सबों के हृदय में प्रवेश करने में समर्थ हैं। जब वे यज्ञोपवीत संस्कार अथवा उच्च जातियों द्वारा किए जाने वाले अनुष्ठानों को सम्पन्न किये बिना संन्यास ग्रहण करने चले गये तो उनके पिता व्यासदेव उनके वियोग के भय से आतुर होकर चिल्ला उठे, “हे पुत्र,” उस समय जो वैसी ही वियोग की भावना में लीन थे, केवल ऐसे वृक्षों ने शोकग्रस्त पिता के शब्दों का प्रतिध्वनि के रूप में उत्तर दिया।
तात्पर्य-
वर्ण तथा आश्रम प्रथा में अनुयायियों द्वारा पालन करने के लिए अनेक कर्तव्य निर्दिष्ट किये गये हैं। ऐसे कर्तव्यों में निर्देष है कि वेदों का अध्ययन करने वाले जिज्ञासु को प्रामाणिक गुरु के पास जाकर अपने को शिष्य के रुप में स्वीकार करने की प्रार्थना करनी होती है। जो प्रामाणिक गुरुओं अथवा आचार्य से वेदों का अध्ययन करने के लिए सुयोग्य हैं, जनेऊ (यज्ञोपवीत) उनका प्रतीक है। श्री शुकदेव गोस्वामी ने ये संस्कार नहीं किये, क्योंकि वे जन्म से ही मुक्तात्मा थे।
सामान्य रूप से मनुष्य साधारण जीव के रूप में जन्म लेता है और शुद्धीकरण संस्कारों के द्वारा उसका दुबारा जन्म होता है। जब उसे नया प्रकाश दिखता है और वह आध्यात्मिक उन्नति के लिए दिशा खोजता है, तो वेदों के उपदेश हेतु वह गुरु के पास जाता है। गुरु केवल निष्ठावान जिज्ञासु को ही शिष्य रूप में अपनाते हैं और उसे जनेऊ (यज्ञोपवीत) प्रदान करते हैं। इस प्रकार से मनुष्य दूसरी बार जन्मता है या द्विज बनता है। द्विज बनने के बाद वह वेदों का अध्ययन करता है और वेदों में पटु होने पर वह विप्र बनता है। विप्र या योग्य ब्राह्मण परम ब्रह्म का साक्षात्कार करता है और तब तक आध्यात्मिक जीवन में उन्नति करता रहता है, जब तक वह वैष्णव अवस्था तक नहीं पहुँच जाता। वैष्णव अवस्था यह किसी ब्राह्मण के लिए स्नातकोत्तर अवस्था है। प्रगतिशील ब्राह्मण को निश्चित रूप से वैष्णव बनना चाहिए, क्योंकि वैष्णव ही स्वरूपसिद्ध विद्वान ब्राह्मण होता है।
श्रील शुकदेव गोस्वामी प्रारम्भ से ही वैष्णव थे, अत: उन्हें वर्णाश्रम-धर्म के संस्कारों की कोई आवश्यकता न थी। वर्णाश्रम-धर्म का चरम लक्ष्य अपरिष्कृत मनुष्य को भगवान् के शुद्ध भक्त या वैष्णव में बदलना है। अत: जो व्यक्ति उत्तम अधिकारी वैष्णव द्वारा स्वीकृत किए जाने पर वैष्णव बन जाता है, चाहे उसका जन्म या पूर्व कर्म कैसे भी रहे हों, उसे ब्राह्मण माना जाता है। श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस सिद्धांन्त को स्वीकर किया था और श्रील हरिदास ठाकुर को नामाचार्य बनाया था, यद्यपि हरिदास ठाकुर का जन्म एक मुसलमान परिवार में हुआ था। निष्कर्ष यह है कि श्रील शुकदेव गोस्वामी जन्म से ही वैष्णव थे, अत: वे ब्राह्मणत्व से समन्वित थे। उन्हें किसी प्रकार के संस्कार करने की आवश्यकता न थी। कोई भी निम्नकुल में उत्पन्न व्यक्ति, चाहे वह किरात हो, या हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कश, आभीर, शुम्भ, यवन, खस, या इनसे भी निम्न हो, वैष्णवों की कृपा से उसका उद्धार हो जाता है और वह सर्वोच्च दिव्य पद को प्राप्त करता है। श्रील शुकदेव गोस्वामी श्री सूत गोस्वामी के गुरु थे, अत: वे नैमिषारण्य के मुनियों के प्रश्नों के उत्तर देने के पूर्व अपने गुरु को नमस्कार करते हैं।