पत्र-रत्न—1

श्रीश्रीगुरु-गौरांगो जयतः
तेजपुर, आसाम
16 फरवरी, 1948
प्रीति के पात्र,

क्रमशः, एक के पश्चात् एक, प्राचीन वैष्णवगण इस जगत् का परित्याग करके हमें परमार्थ के अनुशीलन में अपने मन को अधिक-से-अधिक नियुक्त करने के लिये संकेत दे रहे हैं।

हमारी आयु भी हमारी ही भाँति बहुत कम है, तब भी श्रीकृष्ण के चरण कमलों को प्राप्त करने के सुयोग, सुविधा और पथ की जानकारी होने पर भी हम श्रीकृष्ण के तीव्रतर भजन में नियुक्त नहीं हो रहे हैं।

वास्तव में जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों के कारण हमने अपने नित्य स्वरूप को भुलाकर गया हूँ तथा शरीर और घर आदि को अथवा उनसे सम्पर्कयुक्त मायिक वस्तुओं को ही अपना धन और सर्वस्व समझ लिया है। इस प्रकार हम अपने वास्तविक सर्वस्व अर्थात् अखिलरसामृत मूर्ति, श्रीकृष्ण की प्राप्ति से वञ्चित हो गये हैं।

जब तक अहंकार (भावना) का सम्पूर्ण परिवर्तन (शुद्धीकरण) नहीं होता, अर्थात् जब तक मायिक भावना अथवा प्रभु होने की मिथ्या भावना से मुक्त होकर अप्राकृत भावना अर्थात् दास होने की शुद्ध भावना हीं आ जाती, तब तक श्रीकृष्ण का वास्तविक अनुशीलन कर पाना सम्भवपर नहीं है।

मायिक-अभिमान (भावना) से युक्त होकर जो अनुशीलन किया जायेगा वह अनुशीलन जड़ीय होने के लिये बाध्य है। इस मायिक barrier को Transcend अर्थात् माया के इस आवरण को पार नहीं कर पाने तक परमात्म-अनुशीलन नहीं हो सकता। [मैं आत्मा हूँ,] आत्मा अप्राकृत है एवं वैकुण्ठीय वस्तु है, यह अनुभव होने पर प्राकृत वस्तुओं के प्रति लोभ अथवा कर्त्तव्य-बोध विलुप्त होने के लिये बाध्य हो जाता है।

‘तदीय-अभिमान’ अर्थात् ‘मैं उन श्रीकृष्ण का दास हूँ’—इस प्रकार का अप्राकृत अभिमान (भावना) जागृत होने पर श्रीकृष्ण और उनके निजजनगण अथवा उनसे सम्बन्धयुक्त प्रत्येक वस्तु ही प्रीति का विषय होगी। सम्बन्धज्ञान अर्थात् ‘श्रीकृष्ण मेरे प्रभु हैं तथा मैं उनका नित्य दास हूँ’—इस अनुभव के साथ श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण के निजजनों की सेवा करना ही हरिभजन है।

शुद्ध सम्बन्धज्ञान के उदित नहीं होने तक मिश्राभक्ति का अनुशीलन अर्थात् निज कर्मों के फल का भगवान् को समर्पण आदि ही हो सकता है। शुद्धभक्ति अत्यधिक कठिनाई से प्राप्त होती है, तथापि वही हमारी परम अन्वेषणीय वस्तु है। कर्मकाण्डी व्यक्ति साधारण जनगण के मन को मोहित करने के लिये अनेक प्रकार की बाहरी क्रियाओं का प्रदर्शन करते हैं तब भी ऐसी क्रियाओं के द्वारा श्रीकृष्ण का शुद्ध-अनुशीलन सम्भव नहीं हो पाता।

जब तक एक व्यक्ति यह अनुभव नहीं कर लेता कि वह आत्मा है, तब तक वह वैकुण्ठ-भजन अर्थात् कुण्ठा रहित भजन नहीं कर सकता। यदि हम गतानुगतिक अर्थात् भेड़चाल की वृत्ति का पालन करते हुए अथवा सामान्य से कार्यों के लिये ही इस बहुमूल्य जीवन को नष्ट करते हैं तो यह बुद्धिमानी नहीं होगी।

“To make the best of a bad bargain” Policy को ग्रहण करना ही हमारे लिये आवश्यक है।

आप लोग “केवल” हरिनाम ग्रहण कर रहे हैं, ऐसा जानकर मैं प्रसन्न हुआ। शास्त्र में विशेषतः हमारे पूर्व-पूर्व आचार्यों ने कर्म, ज्ञान, योग, याग (दान), व्रत और तपस्या आदि का परित्याग करके केवल हरिनाम करने के लिये उपदेश प्रदान किया है।

“हरेर्नाम, हरेर्नाम, हरेर्नामैव केवलम् ।
कलौ नास्त्येव, नास्त्येव, नास्त्येव गतिरन्यथा॥”

श्रीबृहन्नारदीय पुराण (38.126)
अर्थात् सत्ययुग में ध्यान, त्रेता युग में यज्ञ और द्वापर युग में अर्चन नामक भगवान् श्रीहरि की प्रसन्नता के लिये जो साधन बतलाए गये हैं तथा इनके अतिरिक्त भी अन्य जितने साधन हैं, वे सभी कलियुग में निरर्थक हैं। कलियुग में हरिनाम ही एकमात्र साधन है।

यदि एक व्यक्ति अन्य सभी प्रकार के साधनों के मोह का परित्याग करता है तथा श्रीनाम और नामी को अभिन्न जानकर,
उपरोक्त प्रसंग में यह कहा गया है कि जीवात्मा कृष्ण को भूल कर स्वतन्त्र रूप से माया को भोग करने की इच्छा करता है, इसके फलस्वरूप माया उसे भौतिक (स्थूल एवं सूक्ष्म) शरीर प्रदान करती है। जीवत्मा का अपनी इच्छा की पूर्त्ति के लिये माया द्वारा प्रदत्त शरीर को स्वीकार करना ही जीवात्मा और माया
के बीच समझौता (Bargain) है। आत्मा स्वरूपतः सत्-चिद्-आनन्दमय है, परन्तु असत्, अनित्य, निरानन्दमय शरीर में त्रितापों का भोग करता रहता है। सौभाग्यवश यदि जीव को साधुसङ्ग प्राप्त होता है तो उसे यह बोध होता है कि मायिक शरीर स्वीकार करना एक हानिकर समझौता (bad bargain) है, और तुरन्त वह इस बुरी स्थिति से बाहर भी नहीं आ सकता। साधु शास्त्रों के वचनों के अनुसार उसे इस परिस्थिति से बाहर निकलने का उपाय बताते हैं। वह उपाय है, कृष्णोन्मुख होना अर्थात् शास्त्र एवं साधु के निर्देशानुसार अपने मन, वचन एवं समस्त क्रियाओं को कृष्ण की सेवा में नियुक्त करना।

भौतिक देह रूपी बुरी परिस्थिति में रहते हुए भी एक बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा कृष्णानुशीलन (कृष्ण भक्ति) नामक उपाय को पालन करने की नीति ही ‘To make the best of bad bargain’ कहलाती है।

एकान्तिक रूप से श्रीनाम भजन करता है, तो इसकी अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट भजन और अतिशीघ्र फल प्रसव करने वाला अन्य कोई भी साधन नहीं है। श्रीनाम संकीर्तन ही सैंकड़ों प्रकार के भक्ति के अङ्गों में सर्वश्रेष्ठ है। श्रीनाम भजन ही श्रीचैतन्यदेव की शिक्षा का सार है। श्रीभगवान् को पुकारना ही श्रीनाम भजन है। श्रीभगवान् को पुकारने का अभिनय करके अन्य विचारों का आवाहन करना श्रीनाम भजन नहीं है। वह केवल नामापराध है। यदि आप दोनों निरन्तर प्रेमपूर्वक श्रीकृष्ण नाम का अनुशीलन करेंगे, तभी मैं स्वयं को कृतार्थ मानूँगा तथा आप लोगों का गुरुदास्य सफल होगा।

श्रीगौरजन किंकर
श्रीभक्तिदयित माधव