मई २०१० में, पंजाब से कुछ भक्त कोलकाता आए और उन्होंने श्रील गुरुदेव से प्रचार के लिए उत्तर भारत आने का अनुरोध किया। पहले, श्रील गुरुदेव प्रचार के लिए उत्तर भारत में वर्ष में कम से कम ४-५ महीने बिताते थे। किन्तु पिछले पांच वर्षों से वे उत्तर भारत के क्षेत्रों में (चिकित्सक से परामर्श करने के लिए नई दिल्ली और चंडीगढ़ के अतिरिक्त) नहीं गए। पंजाब में कई भक्त उनके दर्शन के लिए अतिशय उत्सुक थे। उनमें से कुछ भक्त अपनी वृद्धअवस्था में, तो कुछ अपने पारिवारिक कर्तव्यों के कारण श्रील गुरुदेव के दर्शन के लिए उनके पास नहीं जा सके। श्रील गुरुदेव की आयु भी अधिक हो गई थी और उनका स्वास्थ्य भी पहले जैसा अच्छा नहीं था, इसलिए उनके लिए भी यात्रा करना कठिन था। किन्तु पंजाब के भक्तों की भावनाओं का सम्मान करते हुए, उनकी इच्छाओं की पूर्ति के लिए श्रील गुरुदेव ने सितंबर-अक्टूबर में वहाँ जाने और कार्तिक व्रत में कुछ दिन लुधियाना में रहने का उन्हें आश्वासन दिया।
कोलकाता मठ में जन्माष्टमी उत्सव में भाग लेने के बाद, सितंबर में श्रील गुरुदेव ने उत्तर भारत की यात्रा आरम्भ की। उन्होंने पहले नई दिल्ली और वहाँ से चंडीगढ़ में पदार्पण किया। चंडीगढ़ में उन्होंने कुछ भक्तों को हरिनाम और मंत्रदीक्षा भी प्रदान की और अनेक विशाल सभाओं में हरिकथा भी कही । प्रत्येक अवसर पर उन्होंने श्रीचैतन्य महाप्रभु की शुद्ध-कृष्ण-भक्ति की शिक्षा और अपने गुरुदेव की अलौकिक महिमा का कीर्तन किया। चंडीगढ़ से वे जालंधर पधारे। वहाँ पर उन्होंने श्रीचैतन्य महाप्रभु का विजय-विग्रह प्रकाशित किया। कुछ दिनों के बाद वे वहाँ से बठिंडा जाते समय मार्ग में मोगा नाम के एक स्थान पर एक सिख सज्जन के घर में कुछ घंटों के लिए रुके और उनके परिवार के सदस्यों पर प्रचुर परिमाण में आशीर्वाद का वर्षण किया।
श्रील गुरुदेव को वहाँ से बठिंडा पहुँचते-पहुँचते अंधेरा हो चुका था। स्थानीय भक्तों ने संकीर्तन और पुष्प वर्षा से उनका भव्य स्वागत किया। जब वे श्रीश्रीगुरु-गौरांग-राधा-वल्लभ के दर्शन के लिए नाट्य मंदिर की ओर जा रहे थे, एक वृद्ध व्यक्ति अचानक से भक्तों के बीच से निकलकर, हाथ जोड़ते हुए उनके सामने आ गए। श्रील गुरुदेव के मार्ग से थोड़ा पीछे हटने के लिए हम उनसे अनुरोध करने ही वाले थे कि इतने में श्रील गुरुदेव अपने हाथ को आगे बढ़ाकर बहुत स्नेह से उनकी पीठ सहलाते हुए कहने लगे, “अरे! आप? बहुत वर्षों से आप से मिलना नहीं हुआ। इससे पहले मुझे यहाँ आने का अवसर भी नहीं मिला था।” यह कहते हुए, श्रील गुरुदेव उस भक्त को बहुत समय से नहीं मिल पाने के लिए दुःख व्यक्त कर रहे थे, जैसेकि भक्तों और शिष्यों से मिलना उनका अपना दायित्व है और वे उसे निभाने में असमर्थ रहे। यह देखकर मैं स्तब्ध रह गया और सोचने लगा, ‘आश्चर्य की बात है! शिष्य को गुरु के दर्शन के लिए उनके पास आना चाहिए या गुरु को शिष्य के पास जाना चाहिए? श्रील गुरुदेव की आयु उस भक्त की तुलना में तो अधिक है! इसके अतिरिक्त, एक गृहस्थ भक्त के ऊपर केवल अपने छोटे परिवार का दायित्व होता है, और श्रील गुरुदेव के ऊपर तो उससे कहीं अधिक एक बड़े आध्यात्मिक परिवार का दायित्व है, जो परिवार विदेशों तक फैला हुआ है। फिर भी, वे पिछले कुछ वर्षों से उस भक्त से नहीं मिल पाने के लिए स्वयं को दोषी ठहरा रहे हैं?’ श्रील गुरुदेव निखिल भारतीय श्री चैतन्य गौड़ीय मठ के अध्यक्ष एवं सम्पूर्ण विश्व के एक आदरणीय आचार्य और संस्था के संस्थापक- आचार्य के सर्वाधिक प्रिय उत्तराधिकारी होने पर भी उन्हें उस पर बिंदु-मात्र भी अभिमान नहीं था। उन्होंने अपने आपको कभी एक विशेष व्यक्ति समझा ही नहीं, सदैव एक साधारण व्यक्ति ही माना। इतना ही नहीं, किसी भी श्रेणी के भक्त – कनिष्ठ, मध्यम या उत्तम – को उन्होंने अपने सम्मान का पात्र समझा। उनकी दृष्टि में कोई भी भक्त छोटा नहीं था ।
बठिंडा में, श्रील गुरुदेव लगभग प्रत्येक दिन संध्या आरती और संकीर्तन में सम्मिलित हुए और उन्होंने हरिकथा भी बोली। एक दिन, गुवाहाटी मठ के मठ-रक्षक श्रीमद् भक्ति प्रज्ञान आश्रम महाराज कुछ आसाम के भक्तों के साथ बठिंडा आए। वे श्रील गुरुदेव को कुछ दिनों के लिए गुवाहाटी में कार्तिक व्रत के अनुष्ठान के लिए आमंत्रित करना चाहते थे। हम उनके वहाँ आने के उद्देश्य को जानकर चिंतित हो गए कि कहीं श्रील गुरुदेव को पंजाब से गुवाहाटी तक की लंबी यात्रा करनी न पड़ जाए। इसलिए, हमने श्री आश्रम महाराज से अनुरोध किया कि वे श्रील गुरुदेव को गुवाहाटी जाने के लिए निमंत्रण न दें तो अच्छा है।
जैसे ही श्रीआश्रम महाराज ने आसाम के भक्तों के साथ श्रील गुरुदेव की भजन कुटीर में प्रवेश किया, श्रील गुरुदेव ने एक मनमोहक स्मित के साथ उनका स्वागत किया, और हमारी ओर देखते हुए कहा, “वे मुझे गुवाहाटी ले जाने के लिए आए हैं।” यह कहते हुए वे चुपके से हँसे । यद्यपि हम भी अंदर से हँस पड़े थे किन्तु बाहर से चेहरे पर हमने गंभीरता बनाए रखी। श्रील गुरुदेव श्री आश्रम महाराज की ओर मुड़कर उनसे पूछने लगे, “क्या मुझे गुवाहाटी जाना होगा?” श्रील गुरुदेव की ओर से यदि इस तरह का प्रस्ताव आए तो भला कौन ‘नहीं’ कहेगा? फिर भी, हमारे अनुरोध का सम्मान करते हुए, श्री आश्रम महाराज असमंजस में पड़ गए, न तो वे दृढ़ता-पूर्वक ‘हाँ’ कह पाए और न ही ‘ना’। उन्होंने इतना ही कहा, “यदि आप वहाँ जाएंगे, तो सब भक्त प्रसन्न होंगे।” उनका इतना कहना ही इस वार्तालाप को यहीं समाप्त कर गुवाहाटी के लिए टिकट बुक करने के लिए पर्याप्त था। भक्तों की प्रसन्नता के लिए श्रील गुरुदेव कुछ भी करने के लिए सब समय प्रस्तुत रहते थे। भक्त उनके अत्यंत प्रिय हैं और भक्तों का आनंद वर्धन करना ही उनका एकमात्र लक्ष्य है। वे उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपने स्वास्थ्य, वृद्धावस्था और अन्य सेवा कार्यों में व्यस्त दिनचर्या को भी अनदेखा कर देते।
” यह प्रसंग मुझे एक और घटना का स्मरण दिलाता है जो कई वर्ष पहले हुई थी। सन् २००२ में, १३ दिसंबर से मुंबई में और उसके बाद बेंगलुरु में श्रील गुरुदेव का दो सप्ताह का प्रचार कार्यक्रम आरम्भ होने वाला था। किन्तु उससे कुछ ही दिन पहले, उनको अपने heart की अत्यावश्यक चिकित्सा के लिए नई दिल्ली के बत्रा अस्पताल में भर्ती होना पड़ गया। उनके अस्पताल में रहते समय, ८ दिसंबर, रविवार को रात ८.३० बजे, मुंबई के कुछ भक्त वहाँ के प्रचार केंद्र में एकत्रित हुए और उन्हें फ़ोन कर उनसे अनुरोध किया कि जब तक उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं हो जाता, तब तक वे अपने सारे प्रचार कार्यक्रमों को रद्द कर दें, यहाँ तक कि उनके मुंबई जाने का कार्यक्रम भी । श्रील गुरुदेव और श्रीमधुसूदन महाराज (इस वार्तालाप में ‘श्रीमहाराज’ नाम से सम्बोधित है) के बीच हुआ निम्न लिखित वार्तालाप दर्शाता है कि किस प्रकार श्रील गुरुदेव भक्तों की प्रसन्नता के लिए उनसे मिलने के लिए सदैव उत्सुक रहते ।
श्रीमहाराज: “गुरुजी, कृपया [मुंबई के प्रचार कार्यक्रम के बारे में चिंता नहीं कर] आप विश्राम करें।”
श्रील गुरुदेव (स्नेह-पूर्वक): “विश्राम का अर्थ क्या है? यदि मैं पूरा दिन सोता रहूँगा, तो जागतिक विचार मुझे घेर लेंगे। कीर्तन और हरिकथा में ही वास्तविक विश्राम है।”
श्रीमहाराज: “आपके स्वास्थ्य की स्थिति को जानकर मुंबई के भक्त चिंतित हैं। अभी आपको विश्राम की आवश्यकता है। इसलिए भक्तों ने आपको एक पत्र लिखा है जिसमें उन्होंने आपसे अनुरोध किया है कि आप मुंबई के प्रचार कार्यक्रम को इस बार रद्द कर आराम करें। उस पत्र में उन्होंने अपने-अपने हस्ताक्षर भी किए हैं। हम शीघ्र ही उस पत्र को फैक्स के द्वारा आपको भेज देंगे।”
श्रील गुरुदेव (अत्यंत स्नेह-पूर्वक, हँसते हुए): “वे बाहर से ऐसा बोलते हैं किन्तु अंदर से चाहते हैं कि मैं वहाँ आऊँ । मेरे नहीं जाने से वे निराश हो जाएंगे। हमें अपने शरीर की चिंता नहीं कर भक्तों की भावनाओं को ध्यान में रखना चाहिए। वहाँ के भक्त सम्पूर्ण वर्ष [मेरे वहाँ आने की] प्रतीक्षा करते हैं। यदि मैं एक दिन के लिए भी वहाँ चला जाता हूँ, तो भी वे बहुत प्रसन्न हो जाएंगे। वे मुझे देखना चाहते हैं। भक्तों की भावनाओं के विषय में मुझे सोचना चाहिए। नहीं तो, यह [मेरे भजन पर] प्रतिकूल प्रभाव ला सकता है।”
श्रीमहाराज: “किन्तु गुरुजी, यहाँ के भक्त हृदय से चाहते हैं कि आप विश्राम करें।”
श्रील गुरुदेव (श्रीमहाराज को मनाते हुए): “यहाँ (दिल्ली में ) बहुत ठंड है, मैं वहाँ नगर संकीर्तन में नृत्य नहीं करूँगा, गाड़ी में बैठकर ही जाऊँगा।”
श्रील गुरुदेव अपनी इच्छा के अनुसार कोई भी कार्य करने के लिए सम्पूर्ण रूप से स्वतंत्र होते हुए भी जिन मधुर और स्नेह- पूर्ण वाक्यों के द्वारा वे श्रीमहाराज को मनाने का प्रयास कर रहे थे, उसे सुनकर वहाँ उपस्थित हम सब मुग्ध हो गए और छुप-छुप के हँस रहे थे।
श्रीमहाराज: “क्या आपको सीने में लगातार दर्द रहता है ?”
श्रील गुरुदेव: “जब भी मैं कीर्तन करता हूँ या उच्च स्वर से हरिकथा
बोलता हूँ, नृत्य करता हूँ या सीढ़ी चढ़ता हूँ, मुझे दर्द का अनुभव होता है।”
श्रीमहाराज (प्यार से, जैसे कि शिकायत कर रहे हों): “आप तो उच्च स्वर से हरिकथा बोलते हैं। ”
श्रील गुरुदेव: “किसी-किसी व्यक्ति का स्वर कुछ ऐसा होता है। जब श्रील श्रीधर महाराज कुछ बोलते थे, तो हमें अपने कानों को उनके मुख के पास रखना पड़ता था (हँसते हुए) और हमारे गुरुजी उच्च स्वर से हरिकथा बोलते थे। हरिकथा बोलते-बोलते जब ऐसा भाव उदित होता है, तब स्वयं को रोक पाना बहुत कठिन हो जाता है। उच्च स्वर से बोलने से, दुष्ट मन नियंत्रण में आता है। मेरा मन दुष्ट है ना! इसलिए मैं उच्च स्वर से बोलता हूँ।”
श्रीमहाराज: “बेंगलुरु के भक्तों की भी इच्छा है कि आप विश्राम करें और अभी वहाँ ना जाएं । ”
श्रील गुरुदेव: “यदि मैं वहाँ नहीं जाता हूँ तो और भी बड़ी समस्या है। कुछ भक्तों ने धन का योगदान दिया था जिसे मैंने वहाँ के कार्यक्रम के लिए दिया है। कुछ और भक्त वहाँ सेवा में भी लगे हुए हैं, मेरे नहीं जाने से वे सब निराश हो जाएंगे। आप (मेरे स्वास्थ्य की) चिंता मत कीजिए।
इतना कहकर श्रील गुरुदेव ने इस वार्तालाप को विश्राम दिया। इससे स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि श्रील गुरुदेव भक्तों की इच्छाओं को पूरा करने के लिए कितने उत्सुक रहते थे, भले ही इससे उनके स्वास्थ्य पर गंभीर असर पड़ रहा हो। उन्होंने सदैव भक्तों की भावनाओं का सम्मान किया। भले ही वह भक्त हमारी दृष्टि से कोमल श्रद्धा वाले हों किन्तु एक उत्तम-भागवत होने के कारण उन्होंने अपने अतिरिक्त अन्य सभी को वैष्णव माना। निश्चित रूप से, वे एक अतुलनीय आचार्य-रत्न हैं !