राधा विभूतिरूपा या चन्द्रकान्ति: पुरा स्थिता ।
साद्य गौरांग निकटे दास वंश्यो-गदाधर: ॥
पूर्णानन्दा व्रजे यासीद्बलदेव प्रियाग्रणी:।
सापि कार्यवशादेव प्राविशत्तं गदाधरम्॥
(गौ॰ग॰154-155)
पूर्वकाल में अर्थात् द्वापर युगीय श्रीकृष्ण लीला में जो श्रीराधिका जी की भूषणस्वरूपा चन्द्रकान्ति थीं, वे ही इस दास वंश को अवलम्बन करके श्रीगदाधर दास रूप से प्रकट हुईं । व्रज में जो बलराम की प्रियतमा पूर्णानन्दा थीं, कार्यवशत: वे ही गदाधर दास में प्रविष्ट हुई थीं ।
श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद जी ने श्रीगदाधर दास जी के स्वरूप के संबंध में लिखा है – ये श्रीराधा जी की कान्ति हैं । श्रील गदाधर पण्डित गोस्वामी जिस प्रकार श्रीमती वृषभानुनन्दिनी रूपा हैं, उसी प्रकार श्रील गदाधर दास जी भी श्रीमती राधा जी की अंगशोभा हैं । ये राधाभावद्युति-सुवलित गौर के आभा स्वरूप हैं। गौरगणोद्देश दीपिका में ये वृषभानुनन्दिनी की विभूति रूप से निर्दिष्ट हुईं हैं । ये गौरहरि और नित्यानन्द जी दोनों के ही गणों में ही गिने जाते हैं। श्रीमन्महाप्रभु जी के लगभग सभी गण व्रज के मधुर रस के रसिक हैं जबकि नित्यानन्दगण शुद्ध भक्ति प्रधान सख्यादि रस के रसिक हैं। गदाधरदास जी नित्यानन्द जी के गण होने पर भी सख्यभावमय गोपाल (ग्वाले) नहीं थे, वे मधुर रस के रसिक थे। काटोया में उनकी गौर-अर्चा थी।
कलकत्ता से चार कोस उत्तर की तरफ भागीरथी के किनारे एड़िया दह नामक ग्राम में इनका जन्म स्थान है । श्रीमन्महाप्रभु जी के अन्तर्धान के पश्चात ये नवद्वीप से काटोया में चले आये थे और काटोया से इन्होंने एड़ियादह नामक ग्राम में आकर वास किया था। गौड़ीय-वैष्णव-अभिधान में इस प्रकार लिखा है कि नवद्वीप में रहते समय गदाधरजी शचीमाता और विष्णुप्रिया देवी जी की देख-रेख रखते थे तथा उनके अन्तर्धान के बाद वे काटोया चले गये। वहाँ जाकर उन्होंने गौरांगमूर्ति की प्रतिष्ठा की। इस समय काटोया में जो स्थान महाप्रभु जी के गृह रूप से प्रसिद्ध है,वह इन गदाधरदास जी का ही देवालय है।
श्रीमन्महाप्रभु जिस समय नीलाचल से गौड़देश होते हुये वृन्दावन जा रहे थे, उस समय महाप्रभु जी से मिलने की आकांक्षा से ये गौड़देश होते हुये शान्तिपुर आए थे और कुमारहट्ट में भक्तों के साथ मिलकर पाणिहाटि के श्रीराघव-भवन में भी गये थे। वहीं पर गदाधर दास जी का महाप्रभु जी के साथ मिलन भी हुआ था। महाप्रभु ने स्नेहाविष्ट होकर गदाधर जी के मस्तक पर अपने श्रीपादपद्म स्थापित किए थे –
“राघव-मन्दिरे शुनि श्रीगौरसुन्दर।
गदाधर दास धाइ’ आइला सत्त्वर ॥
प्रभुर परम प्रिय – गदाधर दास ।
भक्ति सुखे पूर्ण यांर विग्रह प्रकाश ॥
प्रभुओ देखिया गदाधर सुकृतिरे ।
श्रीचरण तुलिया दिलेन ता’न शिरे ॥”
(चै॰भा॰अ॰ 92-94)
[यह सुनकर कि गौरसुन्दर राघव मन्दिर में हैं, श्रीगदाधर दास जल्दी- जल्दी दौड़ते हुये वहाँ आए । श्री गदाधर दास महाप्रभु जी के बहुत प्रिय हैं, जो कि सर्वदा परिपूर्ण भक्ति सुख में रहते हैं । श्रीगदाधर जी के सुन्दर कार्यों को देखकर महाप्रभु जी ने उनके सिर पर अपने चरण रख दिये थे ।]
जिस समय श्रीमन्महाप्रभु जी ने श्रीमन्नित्यानन्द प्रभु जी को नीलाचल से गौड़देश में प्रेम वितरण के लिये भेजा था, उस समय नित्यानन्द प्रभु के साथ रामदास, गदाधरदास, रघुनाथ वैद्य, कृष्णदास पण्डित, परमेश्वरी दास तथा पुरन्दर पण्डित इत्यादि भक्त थे । नीलाचल से नित्यानन्द प्रभु के साथ वापिस आते समय रास्ते में नित्यानन्द जी के पार्षदों के विभिन्न प्रकार के अद्भुत-अद्भुत भाव प्रकट हुये थे। नित्यसिद्ध व्रजजन गदाधर दास जी का अप्राकृत राधा-भाव है। गदाधर दास जी गोपीभाव में प्रमत्त होकर “दही ले लो दही” – ऐसी आवाज़ लगाते हुये ठहाका मारकर उच्च स्वर से हँसे थे । रामदास जी (अभिराम ठाकुरजी) गोपाल भाव में बीच रास्ते में त्रिभंग होकर 9 घंटे खड़े रहे थे तथा कृष्णदास, परमेश्वरीदास गोपालभाव में ‘है-है’ करते थे । पुरन्दर पण्डित पेड़ पर चढ़कर ‘मैं ही अंगद हूँ’– ऐसा कहकर पेड़ से कूद पड़े ।
“हइला राधिकाभाव – गदाधर दासे ।
दधि के किनिवे ? बलि अट्ट-अट्ट हासे ॥
कृष्णदास परमेश्वरी दास दुइजन ।
गोपाल भावे ‘है-है’ करे अनुक्षण ॥
(चै॰भा॰अ॰ 5/238-240)
श्रीमन्नित्यानन्द प्रभु जी ने गौड़ देश आकर गंगा के दोनों ओर के गावों में घूमते समय एक दिन गदाधर दास जी के घर पर आकर देखा कि गदाधर दास जी गोपीनाथ में विभावित होकर सिर पर एक गंगा जल का कलश लेकर ‘दूध लोगे दूध’ कहते हुये पुकार रहे थे । श्रीगदाधर का भाव देखकर गदाधर जी के मन्दिर की बाल-गोपाल मूर्ति को उठाकर वक्ष से लगाते हुये नित्यानन्द प्रभु नृत्य करने लगे –
गोपी भावे बाह्य नाहि गदाधर दासे ।
निरवधि आपना के गोपी हेन वासे ॥
(चै॰भ॰अ॰ 5/381)
[ श्रीगदाधर दास सदा गोपी भाव में रहते हैं । उन्हें बाहरी (सांसारिक) ज्ञान नहीं रहता है । वे हमेशा अपने आप को गोपी ही समझते हैं। ]
श्रीमाधवानन्द घोष जी ने गदाधर जी के घर पर दानखण्ड की लीला* का कीर्तन किया था ।{*दानखण्डलीला — दानकेलि-कौमुदी ग्रन्थ में वर्णित गान से संबन्धित} उनके ऐसा करने पर नित्यानन्द प्रभु का अद्भुत भावावेश प्रकाशित हुआ था, इसीलिये गदाधर का वह घर दानी लीलाक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है। एड़ियादह ग्राम में धर्म का विरोधी, हरिसंकीर्तन के प्रति विद्वेष करने वाला एक बड़ा पराक्रमशाली काज़ी वास करता था। गदाधर दास प्रेमानन्द में मत्त होकर रात्रि में उच्च-स्वर में हरिनाम संकीर्तन करते-करते उक्त काज़ी के घर में चले गये । उस समय काज़ी अपने साथियों के साथ बैठा था । गदाधर दास जी ने वहाँ पहुँचते ही काज़ी को हरिनाम करने के लिए आदेश किया । काज़ी पहले अवश्य क्रोधित हुआ परन्तु बाद में गदाधर दास जी का भाव देखकर शान्त हो गया तथा उनके आने का कारण पूछने लगा ।
उत्तर में गदाधर जी बोले – श्रीचैतन्य महाप्रभु व नित्यानन्द प्रभु जी ने जगत में अवतीर्ण होकर सबको ही हरिनाम करवाया, केवल मात्र तुमने हरिनाम नहीं किया था, इसीलिये मैं तुमको हरिनाम करवाने आया हूँ । हरिनाम करने से तुम्हारे सब पाप दूर हो जायेंगे। हिंसा स्वभाव का होने पर भी काज़ी हंसता हुआ गदाधर जी से को बोला, “कल मैं हरिनाम करूँगा कृपा करके आज तुम घर जाओ।”‘इससे गदाधर आनन्द से नृत्य करते हुये कहने लगे, “अरे कल क्यों, मैं कल हरिनाम करूँगा” – यह कहकर तो तुमने आज ही अपने मुख से ‘हरि’बोल दिया है। अब कभी भी तुम्हारा अमंगल नहीं होगा।
एइ त बलिया हरि आपन बदने ।
आर तोर अमंगल नाहि कोन क्षण ।
यखन करिला हरिनामेर ग्रहण ॥
(चै॰च॰अ॰ 5/409-410)
गदाधर दास जी ने अपनी अलौकिक शक्ति के प्रभाव से दुर्दान्त काज़ी का उद्धार किया। गदाधर दास के कृष्णावेश के द्वारा ही ये असम्भव कार्य सम्भव हुआ था ।
हेनमत गदाधर दासेर महिमा ।
चैतन्य पार्षद मध्ये यांहार गणना ॥
प्रेम भक्ति रसमय गदाधर दास ।
यांर दर्शन मात्र सर्वपाप नाश ॥
श्रील कविराज गोस्वामी जी ने श्रीचैतन्य चरितामृत में गदाधर जी के सम्बन्ध में जो लिखा है, वह नीचे उद्धृत हुआ है –
श्रीराम दास आर श्रीगदाधर दास ।
चैतन्य गोसाञिर भक्त रहे तांर पाश ॥
नित्यानन्दे आज्ञा दिला यबे गौड़ याइते ।
महाप्रभु एइ दुइ दिला तांर साथे॥
गदाधर दास गोपी भावे पूर्णानन्द ।
यार घरे दान केलि कैला नित्यानन्द ॥
(चै॰च॰आ॰ 11/13,14,17)
[ श्रीरामदास और गदाधर दास, श्रीचैतन्य महाप्रभु के भक्त थे और हमेशा उनके पास ही रहते थे । जब गौड़देश जाने के लिये नित्यानन्द जी को आज्ञा दी तब महाप्रभु जी ने इन दोनों को साथ ही भेजा था । श्रीगदाधर दास गोपीभाव में परिपूर्ण आनन्द का आस्वादन करते रहते हैं । ये वे ही गदाधर हैं, जिनके घर श्रीनित्यानन्द जी ने दानकेलि क्रीड़ा की थी । ]
नित्यानन्द आज्ञा दिल याह गौड़देशे ।
अनर्गल प्रेम भक्ति करिह प्रकाशे ॥
रामदास गदाधर आदि कत जने ।
तोमार सहाय लागि दिलुँ तोमार सने ॥
(चै॰च॰म॰ 15/42-43)
[ अर्थात् श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने श्रीनित्यानन्द जी को आज्ञा दी कि आप गौड़देश में जाओ और निरन्तर शुद्ध प्रेम-भक्ति का प्रचार-प्रसार करो । श्रीरामदास, श्रीगदाधर दास आदि जितने भक्त हैं, इन सबको मैं तुम्हारी सहायता के लिये देता हूँ । ]
नित्यानन्द प्रभु जी के आदेशानुसार जिस समय रघुनाथ दास गोस्वामी जी ने पाणिहाटि गाँव में वैष्णव सेवा के लिये चिड़वा व दही का महोत्सव किया था, उस समय गदाधर दास जी भी वहां उपस्थित थे । श्रीयदुनन्दन चक्रवर्ती श्रीगदाधर दास के शिष्य हैं, यह भक्तिरत्नाकर ग्रन्थ देखने से जाना जाता है ।
श्रीयदुनन्दन चक्रवर्ती विज्ञवर ।
यांर इष्ट देव-प्रभु दास गदाधर ॥*
(भक्तिरत्नाकर 9/352)
{*श्रीयदुनन्दन चक्रवर्ती एक उत्तम विद्वान हैं। उनके इष्टदेव श्रीगदाधर दास हैं।}
कार्तिक मास में कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि के दिन श्रीगदाधर दास जी का तिरोभाव हुआ । गदाधर दास जी के तिरोभाव के उपलक्ष्यमें विराट महोत्सव श्रीनिवासाचार्य प्रभु की अध्यक्षता में अनुष्ठित हुआ था, उसमें तत्कालीन अनेक वैष्णवों ने योगदान किया था। यह उत्सव भी खेतुरी महोत्सव के समान वैष्णव समाज में प्रसिद्ध है –
“कि बलिब कार्तिकेर कृष्णाष्टमी दिने ।
मोर प्रभु अदर्शन हैला एखाने ॥”
(भक्तिरत्नाकर 9/362)
काटोया में श्रीमहाप्रभु जी की आवास स्थली में ही केशव भारती जी की समाधि है तथा उनके पास ही गदाधर दास जी का समाधि स्थान है ।