गजेन्द्र मोक्ष प्रसंग दामोदर महीने में सुनने का विशेष महात्म्य है
हमारे गुरुवर्ग इसलिए
कार्तिक व्रत में दामोदर महीने में
गजेन्द्र मोक्ष प्रसंग विस्तार रूप से पाठ करते थे अभी
we have to think, say some glories, efficacy
of going through the topic of
Gajendra how he has been released from the grip of a crocodile
there is some teaching in it
which is essential for
the aspirant votaries who want
the ultimate goal of life
Gajendra, being attacked by a formidable crocodile
fought with that crocodile for one thousand years
after that…
in his previous birth, he was a devotee
being cursed by Agastya Rishi, he got this
body of the elephant and became the leader of the wild elephants
and after fighting for one thousand years
he was saying prayers, submitting payers to the Supreme Lord in
his previous birth has come to his mind
seems impossible, exhausted
completely exhausted by fighting one thousand years
and when he is submitting his prayers, seems impossible
but his eternal nature of the real self [got] troubled in the body, in the mind
he was saying prayers
correctly, how is it possible?
if anybody can do this,
as Gajendra is rescued from the crocodile, crocodile means
not a beast, crocodile means
illusory energy, external potency has enveloped us
the root cause of our suffering
is the forgetfulness of our relation with the Supreme Lord
by that, this illusory energy has enveloped
and we have forgotten our own real self
and with devoutness, with sincerity
if we can sing like this, you have to sing the glories of the Supreme Lord
with perturbation of the heart like Gajendra
when the Supreme Lord appears and graces Gajendra
and has given him
the ultimate goal of his life,
हम लोगों का तो होता ही नहीं, वो भाव नहीं आता
लेकिन तब भी आशा के अंदर में
वो जब भी देखते हैं कोई आशा नहीं है, आशा ही परमं दुःखं
तब भी जब हो जाय
गजेन्द्र के वचन सुनके भगवान प्रसन्न हो जाय
गजेन्द्र के जैसे दिल से नहीं करते ना
श्रीगजेन्द्र उवाच
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम्। पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम्।
योऽस्मात् परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम्॥
य: स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्वचिद् विभातं क्व च तत् तिरोहितम्।
अविद्धदृक् साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्ममूलोऽवतु मां परात्पर:॥
कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्नशो
लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु।
तमस्तदासीद् गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभु:॥
न यस्य देवा ऋषय: पदं विदु-
र्जन्तु: पुन: कोऽर्हति गन्तुमीरितुम्।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमण: स मावतु॥
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमङ्गलं
विमुक्तसङ्गा मुनय: सुसाधव:।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतात्मभूता: सुहृद: स मे गति:॥
न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा
न नामरूपे गुणदोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय य:
स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति॥
तस्मै नम: परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्यकर्मणे॥
नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि॥
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता।
नम: कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे॥
नम: शान्ताय घोराय गुढ़ाय गुणधर्मिणे।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च॥
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।
पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नम:॥
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नम:॥
नमो नमस्तेऽखिलकारणाय
निष्कारणायाद्भुतकारणाय।
सर्वागमाम्नायमहार्णवाय
नमोऽपवर्गाय परायणाय॥
गुणारणिच्छन्नचिदुष्मपाय
तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-
स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि॥
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय
मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि
प्रतीत-प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते॥
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैः
दुष्प्रापणाय गुणसङ्गविवर्जिताय।
मुक्तात्मभि: स्वहृदये परिभाविताय
ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय॥
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।
किं चाशिषो रात्यपि देहमव्ययं
करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम्॥
एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थं वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्ना:।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमङ्गलं
गायन्त आनन्दसमुद्रमग्ना:॥
तमक्षरं ब्रह्म परं परेशम्
अव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम्।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूर- मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे॥
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचरा:।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृता:॥
यथार्चिषोऽग्ने: सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिष:।
तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो
बुद्धिर्मन: खानि शरीरसर्गा:॥
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ् न स्त्री न षण्ढो न पुमान् न जन्तु:।
नायं गुण: कर्म न सन्न चासन् निषेधशेषो जयतादशेष:॥
जिजीविषे नाहमिहामुया किम्
अन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्
तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम्॥
सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम्।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम्॥
योगरन्धितकर्माणो हृदि योगविभाविते।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम्॥
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेगम्
शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये
कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने॥
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम्।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम्॥
गजेन्द्र स्तव सामाप्त इसी प्रकार से…
यह स्तव में आखिर में क्या बोलते हैं?
गोकुल महावन में स्तव सामाप्त किया
कहते हैं आप तो सब कुछ दे सकते हैं
आप धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष दे सकते हैं
ऐसा की अप्राकृत देह दे सकते हैं
आप के लिए कुछ असंभव नहीं है, जो कामना लेकर भजन करते हैं
उनको भी आप अप्राकृत देह देते हैं, ध्रुव जी को दिया
आप सब दे सकते हैं लेकिन मेरी प्रार्थना छोटी सी है
मैं ग्राह से मुक्ति चाहता हूँ
ग्राह का मतलब संसार से… मेरी प्रार्थना बहुत छोटी है
लेकिन क्या बोलते हैं?
वहाँ पर टिकाकार ने क्या लिखा?
भीतर में क्या प्रार्थना है?
भावानुरूप फल देंगे
जब भावानुरूप… भाव एक है दूसरा फल देंगे ऐसा नहीं
इसलिए वे कहते हैं
कि हम.. यह जो है..
आप धर्म,अर्थ, काम, मोक्ष सब कुछ दे सकते हैं
और मैं चाहता हूँ
जैसे कुम्भी, ग्राह से मुक्ति हो जाय
यहाँ पर लिखा है
विमोक्षणं ग्राह हईते, ऐई संसार हईते आमाके मुक्त करुन
अर्थात् नित्य सिद्ध देह, प्रेम भक्ति प्रदान करून
किसलिए? पहले बोल दिया कि आप
मुक्ति दे सकते हैं, नित्य सिद्ध देह दे सकते हैं, प्रेम भक्ति दे सकते हैं
लेकिन मेरी प्रार्थना… भीतर में
मैं तो योग्य नहीं हूँ
यह सब प्रार्थना करने के लिए
भीतर में उनको बोलने की हिम्मत नहीं है
मैं तो जानवर हूँ
लेकिन भीतर में आकांक्षा है ऐसा बोले कैसे?
कि मैं वही
अप्राकृत देह चाहता हूँ जो देह से
आपके साथ में रहके, आपके साक्षात् आपके धाम में रहकर कुछ सेवा करूँ
प्रेम भक्ति, भीतर में चाहता है, बाहर में ऐसा बोला
भगवान् तो भावग्राही जनार्दन
भावानुरूप देंगे
इसलिए कहते हैं
आखिर में
मुझे आप आकर उद्धार करेंगे
ग्राह से बचाएँगे,
फिर हस्ती देह लेकर मैं रहूँगा
और अपनी स्त्री, बच्चों को लेकर रहूँगा बहुत
दुनियादारी का भोग करूँगा, यह मेरी इच्छा नहीं है
यह तो अज्ञान से यह शरीर है
यह शरीर जो मिला है, भगवान को भूल गया इसलिए शरीर मिला है
यह शरीर तो अज्ञान है
अज्ञान में आबद्ध रहना तो बहुत बड़ा दुःख है
यह अज्ञान में रहने के लिए मैं नहीं चाहता हूँ
मैं तो भगवान् का नित्य दास हूँ
भगवान् को भूल गया तो संसार में आ गया
इसलिए फिर यह शरीर, आप ग्राह से मुक्ति करके शरीर दे देंगे
और आराम से हम भोग करेंगे
दुनिया का आदमी इस प्रकार
फायदे को.. दुनियादारी के फायदे को अच्छा समझ सकते हैं
लेकिन गजेन्द्र अगर यह कहे
भीतर में अज्ञान बाहर में अज्ञान, फायदा क्या है?
और सिर्फ मैं अज्ञान से मुक्ति नहीं चाहता हूँ
वैकुण्ठ का दरवाजा भी खुल जाय
मैं नित्य धाम में जाऊँगा
फिर कहते हैं आखिर में
मेरी तो कदिन्द्रियाँ हैं
मैं किस प्रकार से आपके पास जा सकता हूँ?
जो अखिलधीगुणाय
भगवान् के जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध
यह जो भगवान् को जनाते हैं
वो शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध यह जड़िय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध नहीं हैं
साधारण common sense
प्राकृत इन्द्रियों द्वारा
जो हम लोग दुनिया का प्राकृत शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध भोग करते हैं
यह सब बंधन का कारण है
इनका अवाप्यवर्तमने [प्राप्य नहीं हैं]
जो यह कदिन्द्रियाँ [द्वारा] हम तो ऐसा ही भोग करते थे
हमारी इन्द्रियाँ कदिन्द्रियाँ हैं
हम कैसे भगवान को प्राप्त करेंगे?
जो अप्राकृत इन्द्रियाँ शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध जब यहाँ पर धियमान हैं
तो भगवान के सम्बन्ध में वो क्या होगा?
अप्राकृत इन्द्रियों द्वारा अप्राकृत शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध
हम लोग के अंदर में शब्द,स्पर्श, रूप, रस, गंध के लिए मांग है
लेकिन जब भगवान को भूल गए तब माया में आ गए
देखने में आनन्द है लेकिन आनन्द का अभाव है
रेगिस्तान में मृगतृष्णा देखने के माफिक
प्राकृत इन्द्रियों के लिए शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध के लिए किसलिए हम उतावला हुए?
हमारी यह प्राकृत इन्द्रियों की अप्राकृत इन्द्रियाँ हैं
उनके विषय हैं, भगवान्
भगवान् का नाम नहीं लिया
इसलिए
मेरी क्या बुद्धि है? मैं कैसे कहूँगा?
मैं किसके पास शरणागत हो रहा हूँ?
शुद्ध-भक्ति योग द्वारा योगी
तमाम कर्म और इतर वाञ्छा को नाश कर देते हैं
जो असली शुद्ध-भक्त हैं वो हर वक्त
प्रेम अर्थात्
वो जो है शरणागति की सम्पद लेकर,
वो बहुत बड़ी सम्पद है
एकांत अनन्य भक्त
यस्य न कञ्चनार्थं वाञ्छन्ति
कुछ भी नहीं चाहते हैं दुनिया का
वो भगवान का महात्म्य कीर्तन करके आनन्द में निमग्न रहते हैं
यह सब बात बोलते हैं इसलिए भीतर में उनकी आकांक्षा क्या है?
मैं जो अनन्य भक्त होकर
भगवान का महात्म्य कीर्तन करके आनन्द में निमग्न हो जाऊँ
लेकिन भीतर में दीनता भाव है
दीनता भाव है, मेरा तो इतना अधिकार नहीं है
इसलिए
मैं केवल जानता हूँ यह विश्व देख रहा हूँ, मेरी प्राकृत इन्द्रियों से
यह विश्व भगवान् स्वयं ही है
और विश्व को छोड़ के भी भगवान् की सत्ता है
भगवान् विश्व
Bhagavan is this world,
is the manifestation of the external potency of Supreme Lord
therefore this viśva also indicates the Supreme Lord
but the Supreme Lord is imminent as well as transcendental
Supreme Lord is not this
Supreme Lord is this again He is not this
if you touch this viśva, you cannot touch the Supreme Lord
but The Supreme Lord is imminent He is everywhere in this world
and also, transcendental and He is self-effulgent
and He is the cause of all causes
and He is the knower of all this viśva
what is going on in this world, everything He knows, He is omniscient
and He is residing in the heart of every Jiva
I am submitting to the Supreme Lord
not to any demigods
all neti neti, all these
I am not submitting to these demigods, all these are like
from the fire, sparks are coming and going to the fire
like this all these things are coming from the Supreme Lord
everything, He is the cause of all causes, and going in Him
I am submitting to that Supreme Lord
not to these insignificant
partial manifestation of this…
demigods
now my submission to you
I.. I am now
enveloped by the illusionary energy and forgotten You
how can I know You? I am been enveloped
only this maya can leave us when I take absolute shelter to You
daivī hy eṣā guṇa-mayī mama māyā
duratyayā mām eva ye prapadyante
māyām etāṁ taranti te
(Gita 7.14)
when we take absolute shelter…
I have got no capacity to take shelter to You. I do not know anything.
but whatever
whatever You think
mārobi rākhobi-jo icchā tohārā nitya-dāsa prati tuwā adhikārā
I do not know anything, I am taking shelter to You
You can kill me, You can protect me, whatever You want
this sort of śaraṇāgati
now
श्रीशुक उवाच
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं
ब्रह्मादयो विविधलिङ्गभिदाभिमाना:।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात्
तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत्॥
शुकदेव कहते हैं
यह गजेन्द्र कोई मूर्ति के बारे में नहीं बोला
वर्णन नहीं किया
निर्विशेष कोई विशेष जो कुछ दुनिया में हैं सब कुछ नाकच कर दिया
परमतत्त्व वर्णन किया
जितने प्रकार के रूप हैं, दुनिया में ब्रह्मादि उनके पास मैं शरणागत नहीं हो रहा
इसलिए ब्रह्मादि कोई देवता नहीं आए
उनकी रक्षा करने के लिए
यहाँ पर टिकाकार ने लिखा
निर्विशेष बोल दिया
निर्विशेष, कोई विशेष दुनिया में जितने हैं
वो ब्रह्मा के दिन में सृष्टि होते हैं, ब्रह्मा की रात में लय हो जाते हैं
ब्रह्मा की आयु खत्म होने से ब्रह्मा भी खत्म हो जाते हैं
यह सब खत्म होनेवाली वस्तु के पास में मैं शरणागत नहीं होता हूँ
यह तो तुच्छ
अभी जब
आखिर में बोलके शरणागत हो गया
भगवान् जो ख़ुशी करे
मारे, रक्षा करे जो ख़ुशी करे मैं नहीं जनता
तब ब्रह्मादि देवता समझे
देखो भगवान की प्राप्ति इतनी सस्ती नहीं है
ये हम लोगों को एकदम तुच्छ कर दिया
हम लोग कोई हंस वाहक है,
कोई ऐरावत वाहक है.. हमारी भी मर्यादा है ना!
जो हंस वाहक, ऐरावत वाहक कुछ बोलने से तो हम लोग जाते
कुछ.. हम लोगों को एकदम तुच्छ
ignore किया, insignificant
एकदम..
फल्गु समझता है, ऐसा बोलता है
हम लोग नहीं जाएँगे, हम लोगों का नाम नहीं लिया ना
भगवान की प्राप्ति इतनी सस्ती नहीं है, वो गजेन्द्र मरे
मर ने दो… ऐसा
अभी भगवान ने क्या किया?
उसके बाद.. उस प्रकार यह लोग भावना लेकर चुप हो गए
भीतर में अभिमान, उदासिन्य प्रकाश कीया
उस वक्त
भगवान् सर्व स्वरुप, सर्व वेद देवमय श्रीहरि आविर्भूत हो गए
आविर्भूत नहीं होकर भी गजेन्द्र को उद्धार कर सकते थे
लेकिन गजेन्द्र भक्त हैं
भगवान् के स्वरुप को नहीं देखने से
गजेन्द्र को आनंद होगा नहीं , चाहते हैं भीतर में
मैं तो उनके वैकुण्ठ धाम में, उनके पाद-पद्म में पहुँचु
सिर्फ ग्राह से मुक्ति नहीं चाहता हूँ, भीतर में ऐसा भाव है
इसलिए वही सर्वस्वरूप भगवान्
समझे मुझे, भगवान् ही….
भगवान् को ही लक्ष किया
गुण वर्णन किया, भगवान प्रकट हो गए
स्वयं आ गए, किसलिए?
भक्त.. जब तब भगवान स्वयं नहीं आते, भक्त को सुख नहीं होता
ऐसे तो रक्षा कर सकते हैं, रक्षा तो भाव नहीं है
भाव है भगवान् के पादपद्म की सेवा, भगवान् का दर्शन
भगवान् के धाम में जाना है ऐसा भाव है
भक्त का इस प्रकार होता है
इसलिए भगवान प्रकट हो गए और
यह जो देवता, देवता लोग अप्रसन्न हो गए, हम को कुछ
हमको हंस-वाहक नहीं बोला, ऐरावत वाहक नहीं बोला, कुछ भी नहीं बोला
फल्गु ऐसा बोल दिया
देखिये जिसने विष्णु की आराधना की, उसने हर एक की आराधना की
वास्तव में उसने हर एक का देन परिशोध किया
जो भगवान की आराधना करते हैं
वो हर एक को ही सम्मान देते हैं, हर एक की ही सेवा करते हैं
भगवान् की सेवा छोड़कर किसी की सेवा नहीं होती है
पेड़ के जड़ में पानी देने से पेड़ के सारे हिस्से में पहुँच जाता है
पेट में डाला इन्द्रियों की तृप्ति होती है
भगवान् की सेवा से हर एक की सेवा होती है, भगवान की सेवा नहीं की?
फजूल बात बोलते हैं, वास्तव में उसने ही सेवा की
हरि भक्ति आछे जार सर्व देव बंधु तार
देवता तो दोस्त बनने चाहिए, मन में दुःख नहीं होना चाहिए
तं तद्वदार्तमुपलभ्य जगन्निवास:
स्तोत्रं निशम्य दिविजै: सह संस्तुवद्भि:।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान-
श्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्र:॥
जगन्निवास हरि ने गजेन्द्र को इस प्रकार देखा, आर्त देखा
और जो देववृन्द भी स्तव किए भगवान का
तब भगवान्
विष्णु को तो देवता आराधना करते ही हैं, स्तव करते ही हैं
और गजेन्द्र को इस प्रकार आर्त देखकर उनके सामने में ही
भगवान् इच्छातुल्य वेगवान गरुड़
गरुड़ की पीठ पर आरोहण करके
चक्र लेकर आयुध हस्त
गजेन्द्र to satisfy Gajendra, Supreme Lord is appearing
how? because Supreme Lord, if He desires can rescue
but Gajendra śuddha-bhakta will not be satisfied
if I do not appear
he wants to see Me, he wants to
perform puja, he wants to offer something to My lotus feet
and He wants to get service of the lotus feet, get the transcendental realm
and he wants to see Me
otherwise, he will not be satisfied
it is the inner thought
To satisfy the śuddha-bhakta
through Garuda
with the names
showing that I have got to rescue
why you are thinking? I have so much love for you
by seeing the Gajendra with so much,
in a very extremely injured state
and
I am taking the shelter of lotus feet of the Supreme Lord
by that for śaraṇāgati
Garuda, by mounting over the Garuda
Narayan came with the raised
disc, Sudarśana-cakra
सोऽन्त:सरस्युरुबलेन गृहीत आर्तो दृष्ट्वा
गरुत्मति हरिं ख उपात्तचक्रम्।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छ्रा-
न्नारायणाखिलगुरो भगवन् नमस्ते॥
(भा. 8.3.32)
गजेन्द्र देखकर आनंदित हुआ, भगवान् को
लेकिन बंधन का तो बहुत दुःख है उनको ग्राह कितना कष्ट दे रहा है
सरोवर के अंदर में जो कुम्भीर वो जो ग्राह
उसको खींच रहा है, कष्ट दे रहा है
पीड़ित होकर भी
वही भगवान् को देखकर आनंदित हुआ
लेकिन उद्धत चक्र हैं
उद्धत चक्र होकर भगवान् प्रकट हुए
देखकर कैसे सेवा करेंगे?
एक सुंड से एक पद्म को लेकर फेंक दिया
मैं तो और कुछ भी नहीं कर सकता.. फेंक दिया भगवान के चरणों में
भगवान् तो भाव देखते हैं, हे नारायण! हे कुलगुरो!
हे भगवन! मैं आपको नमस्कार करता हूँ
यहाँ पर तो समय कम होता है
छलांग मार दी, गरुड़ भी जल्दी नहीं आ सकते
आकर उसके सामने में आए
सामने में आकर गजेन्द्र को ग्राह के साथ में खींच के ले आये
and split the jaws, the mouth of the crocodile
by that Sudarśana-cakra
अनंतर दृष्ट्वा
देवगणेर सम्मुखे before the demigods, you have neglected
I have killed, I am killing this crocodile
mouth jaw with Sudarśana-cakra, split
and realiesed Gajendra
there is no time, time is less
but who is Gajendra?
how he has been,
he has got this birth what for? what are the incidents?
what is the history behind this
and all these, that
who is grāha? for that tomorrow we shall listen