Harikatha

श्रील भक्ति गौरव वैखानस गोस्वामी महाराज की महिमा

आज विशेष तिथि है, इसलिए हमें कृपा-प्रार्थना करनी चाहिए। आज श्री चैतन्य मठ एवं गौड़ीय मठ के संस्थापक, नित्यलीला-प्रविष्ठ ओम विष्णुपाद 108 श्री श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद आश्रित, दीक्षित एवं त्रिदंड संन्यास प्राप्त परमपूज्यपाद परिव्राजकाचार्य श्रील भक्ति गौरव वैखानस गोस्वामी महाराज की शुभ आविर्भाव तिथि है। वे सदैव मेरे प्रति कृपालु थे किन्तु मुझे उनकी सेवा करने का अधिक अवसर नहीं मिला।

एक बार, गुरुजी के साथ, मैं बरहमपुर में उनके मठ में गया था। उस समय उनके आविर्भाव स्थान गौंज(गंजाम जिले, उड़ीसा) में जाने का अवसर नहीं मिला था किन्तु दो साल पहले मैं वहाँ गया था। उन्होंने मुझ पर कृपा करके कुछ सेवा करने का आदेश दिया। उनकी आज्ञा के बिना मैं उनकी सेवा नहीं कर सकता। यह अचानक हुआ। मुझे उनके श्री विग्रह (उनके समाधि मंदिर में) के लिए आनुकुल्य (मौद्रिक सेवा) करने का अवसर मिला। उनके इतने योग्य शिष्य हैं, किन्तु कृपा करके, उन्होंने मुझे सेवा का अवसर प्रदान किया। व्यक्तिगत रूप से मेरे पास कुछ भी नहीं है, मेरे पास जो कुछ भी है वह भक्तों द्वारा दिया गया है।वहाँ उनके समाधि मंदिर का निर्माण किया गया था। उन्होंने कृपा करके मंदिर के गुंबद (चुडा) के लिए भी सेवा ग्रहण की। इस तरह मुझे सेवा का अवसर मिला।

श्रील सरस्वती ठाकुर की शरण ग्रहण करने से पहले, वे उड़ीसा के बदगढ़ के राजा की सभा में एक राज-पुरोहित एवं सभा-पंडित थे। संन् १८७७ में कार्तिक मास कृष्णपक्ष की प्रतिपदा की तिथि में गोंज धाम में उनका आविर्भाव हुआ उनके माता-पिता ने उन्हें उज्वलेश्वर रथ नाम दिया।उनके महापांडित्य को देखकर राजा ने उन्हें ‘पट्ट-जोशी’ की उपाधि से सम्मानित किया।’पट्ट-जोशी’ का अर्थ होता है महा-पंडित एवं शास्त्रज्ञ व्यक्ति।इसलिए उन्हें ‘उज्वलेश्वर पट्ट-जोशी’ कहा गया।’पट्ट-जोशी’ कोई साधारण उपाधि नहीं है।

वर्ष १९३३ में, ५६ की वर्ष की आयु में, उन्होंने श्रील प्रभुपाद का एक चित्र-पट देखा, और चित्र-पट को देखते ही, उन्होंने समझा कि वे ही उनके गुरु हैं और उसी क्षण उन्होंने प्रभुपाद के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। क्या चित्र को देखकर कोई भी अपने गुरु को पहचान सकता है? उसी वर्ष वे मायापुर गए और उन्हें हरिनाम एवं दीक्षा प्राप्त हुई। उन्हें उज्वलेश्वरानंद दास नाम दिया गया। और उसके ठीक एक साल बाद, १९३४ में, साथ-साथ ही प्रभुपाद ने उन्हें संन्यास प्रदान किया और वे परमपूज्यपाद परिव्राजकाचार्य श्रील भक्ति गौरव वैखानस गोस्वामी महाराज हुए। संन्यास के बाद, जब तक प्रभुपाद ने इस धरातल पर प्रकट लीला की, तब तक वे उनके साथ रहे। प्रभुपाद के तिरोधान के बाद, उन्होंने गोंज और बरहमपुर में मठ स्थापित किए।

वे पहले से ही मंत्र-तंत्र विद् एवं शास्त्रज्ञ थे, मंत्र और तंत्र विद्या जानते थे। यहाँ तक कि मंत्र-तंत्र विद्या से बुरी आत्मा, पिशाच या भूत, यहाँ तक कि ब्रह्म-दैत्य (ब्राह्मण जब मृयु के बाद भूत-पिशाच बन जाते हैं, उनका उद्धार करना अत्यंत ही कठिन है) से भी उन्होंने ने कई लोगों का उद्धार किया। उनके पास इस प्रकार की शक्तियाँ थी। जिसे भूत ने पकड़ लिया हो, ऐसा कोई भी व्यक्ति उनके समक्ष आने से वे उसका उद्धार करते थे। उसके बाद वे हमारे परम गुरूजी के शिष्य बनें।

उनके शास्त्र ज्ञान और मंदिर स्थापना, विग्रह स्थापना इत्यादि सब विषयों में उनके ज्ञान को देखकर उनके सब गुरुभाई उनसे आकर्षित हुयें। हमारे गुरुदेव ने पुरुषोत्तम धाम स्थित तोटा गोपीनाथ मंदिर में और पूज्यपाद पुरी गोस्वामी महाराज ने गौर-गदाधर मठ, नवद्वीप-मंडल में चंपाहाटी में उनसे संन्यास लिया लिया। श्रील आश्रम महाराज सहित कई अन्य प्रभुपाद के शिष्यों ने भी उनसे संन्यास लिया।

हमारे गुरुमहाराज का चरित्र सभी प्रकार से आदर्श था। पूज्यपाद वैखानस महाराज से संन्यास प्राप्त करने के पश्चात् वे कभी भी अपने त्रिदंड के बिना कहीं नहीं जाते थे। त्रिदंड में तीन अधिष्ठाता देवताओं का अधिष्ठान रहता है—कारणोंदशायी महाविष्णु, गर्भोदशायी महाविष्णु और क्षीरोदशायी महाविष्णु। हमने देखा उन्होंने अपने त्रिदंड को अत्यंत सम्मान के साथ रखा। उन्होंने कभी त्रिदंड को कोई साधारण लकड़ी की तरह व्यव्हार नहीं किया।उन्होंने सदैव वैखानस महाराज का अपने गुरु के रूप में ही सम्मान किया। वैखानस महाराज जहाँ भी जाते, चाहे मायापुर, कोलकाता या हैदराबाद, हमारे गुरुदेव उनका बहुत सम्मान करते थे और सभी प्रकार से उनकी सेवा करते थे। आजकल हरिनाम लेने के बाद यहाँ तक कि संन्यास लेने के बाद भी कई लोग अपने गुरु के साथ संबंध नहीं रखते हैं। किन्तु हमारे गुरुमहाराज ने संन्यास गुरु के प्रति सम्मान का उत्तम आदर्श दिखाया।

श्रीमद्भागवतम् से कई स्तोत्र श्रील वैखानस महाराज को कंठस्थ जैसे कि गर्भ-स्तुति, प्रह्लाद-स्तव, ब्रह्म-स्तव और यहाँ तक कि संपूर्ण भगवद् गीता। वैसे तो वे उड़िया भाषा में बात करते थे जो उनकी मातृभाषा थी। किन्तु जब कोई ऐसे व्यक्ति आते थे जो उड़िया भाषा नहीं समझते थे, तो वे संस्कृत में बात करते थे। एक बार वे मायापुर में थे।मैंने देखा कई लोग उनके पास आकर उनसे प्रश्न करते थे। वे उन्हें उड़िया भाषा में उत्तर देते थे। बंगाली भाषा और उड़िया भाषा के बीच कुछ समानता है इसलिए वे उस समय जो बोल रहे थे वह में मैं समझ पा रहा था। उस समय मैंने देखा कि यदि कोई व्यक्ति अपनी विद्वता का प्रदर्शन करने, तर्क-वितर्क करने अथवा अन्य कोई उद्देश्य के साथ उनसे प्रश्न करता तो वे चुप हो जाते थे।

ऐसे व्यक्तियों के प्रश्न के उत्तर में वे केवल मुस्कुराते, कितने भी प्रश्न करने पर भी वे उनका उत्तर नहीं देते थे।वे समझ जाते थे कि वे लोग परमार्थ के लिए नहीं किन्तु कोई सांसारिक उद्देश्य के साथ आए हैं, तब वे एक शब्द भी नहीं बोलते।

मुझे उनकी कृपा पाने के लिए उनके स्थान (गोंज) जाने की इच्छा है। उनके शिष्य यहाँ आ सकते हैं। हमें वहाँ जाना चाहिए, वहाँ उनका मंदिर है वहाँ प्रणाम करके आना चाहिए। उनकी कृपा से सब अनर्थ दूर हो जायेंगे।हमारे गुरूजी ने उनको अपने संन्यास गुरु के रूप में स्वीकार किया। आज की तिथि मैं उनके चरण-कमलों में अनंत कोटि साष्टांग दंडवत प्रणाम करते हुए

उनकी कृपा प्रार्थना करता हूँ।जाने-अनजाने में किए गए मेरे सभी अपराधों को वे क्षमा करें। वैखानस महाराज की कृपा से, वहाँ के भक्तों ने उनकी समाधि मंदिर के गुंबद के जीर्णोद्धार के लिए हमारी सेवा स्वीकार करने के लिए सहमति व्यक्त की। वैखानस महाराज की आज्ञा से ही तो यह संभव हो पाया अन्यथा उनकी आज्ञा के बिना यह कैसे संभव है। वैष्णव की सेवा प्राप्त करना सहज नहीं है।