नमस्ते तु हलग्राम! नमस्ते मुषलायुध!।
नमस्ते रेवतीकान्त! नमस्ते भक्तवत्सल!।।
नमस्ते बलिनां श्रेष्ठ! नमस्ते धरणीधर!।
प्रलम्बारे! नमस्ते तु त्राहि मां कृष्ण-पूर्वज!।।
नमो महा-वदान्याय, कृष्णप्रेमप्रदाय ते।
कृष्णाय कृष्ण चैतन्य, नाम्ने गोर-त्विषे नमः॥
भुजे सव्ये वेणुं शिरसि शिखिपिच्छं
कटितटे दुकूलं नेत्रान्ते सहचर-कटाक्षं विदधते।
सदा श्रीमद्-वृन्दावन-वसति-लीला-परिचयो
जगन्नाथः स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे॥
तप्त-काञ्चन गौरांगी! राधे! वृंदावनेश्वरी!।
वृषभानुसुते! देवी! प्रणमामि हरिप्रिये!॥
हे कृष्ण! करुणासिन्धो! दीनबन्धो! जगत्पते!
गोपेश! गोपिकाकान्त! राधाकान्त! नमोस्तु ते॥
वन्दे नन्दव्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णश:।
यासां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम्॥
भक्त्या विहीना अपराधलक्षैः क्षिप्ताश्च कामादि तरंगमध्ये।
कृपामयि त्वां शरणं प्रपन्ना, वृन्दे! नमस्ते चरणारविन्दम्।।
श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौर भक्त वृन्द
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
सबसे पहले मैं पतितपावन
परम आराध्यतम
श्रीभगवान के अभिन्न प्रकाश विग्रह
श्रीभगवत् ज्ञान प्रदाता
श्रीभगवान की सेवा में अधिकार प्रदानकारी
परम करुणामय श्रील गुरुदेव के श्रीपादपद्म में
अनंत कोटि साष्टांग दंडवत प्रणाम करते हुए
उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करता हूँ
पूजनीय वैष्णव वृन्द के श्रीचरण में प्रणत होकर
उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करता हूँ
भगवत् कथा श्रवण पिपासु
दामोदर व्रत पालनकारी
भक्त वृन्दों को
मैं यथा-योग्य अभिवादन करता हूँ
सब की प्रसन्नता प्रार्थना करता हूँ
श्रीगजेन्द्र उवाच
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम्।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम्।
योऽस्मात् परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम्॥
य: स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्वचिद् विभातं क्व च तत् तिरोहितम्।
अविद्धदृक् साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्ममूलोऽवतु मां परात्पर:॥
कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्नशो
लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु।
तमस्तदासीद् गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभु:॥
न यस्य देवा ऋषय: पदं विदु-
र्जन्तु: पुन: कोऽर्हति गन्तुमीरितुम्।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमण: स मावतु॥
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमङ्गलं
विमुक्तसङ्गा मुनय: सुसाधव:।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतात्मभूता: सुहृद: स मे गति:॥
न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा
न नामरूपे गुणदोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय य:
स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति॥
तस्मै नम: परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्यकर्मणे॥
नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि॥
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता।
नम: कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे॥
नम: शान्ताय घोराय गुढ़ाय गुणधर्मिणे।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च॥
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।
पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नम:॥
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नम:॥
नमो नमस्तेऽखिलकारणाय
निष्कारणायाद्भुतकारणाय।
सर्वागमाम्नायमहार्णवाय
नमोऽपवर्गाय परायणाय॥
after submitting prayers, Gajendra first, after submitting some prayers, he has humbleness in his heart brahma, rudra
they are the foremost of the demigods
even they could not sing the glories of the Supreme Lord
how can I sing?
now again he has got that sort of
humbleness too much humbleness
I have started speaking about the glories
but my material tongue,
whatever I say is material sound
material words cannot reach Supreme Lord
material mind cannot think
again he has this sort of humbleness
real devotees always are submissive
how can I sing your glories?
you may reveal, through revelation
अस्फुर्ती स्फुर्ती, अच्छाया छाया, असाधु
a non-sadhu cannot know Supreme Lord because
Supreme Lord is not revealing in their heart, through revelation
अच्छाया one meaning
अच्छाया means छाया नहीं मिला
अच्छाया there is no shade
so there will be
when there is no shade, when the sun heat, heat will be there
so much suffering
and sadhus have got bliss
asadhu have got afflictions
one meaning another meaning
in asadhu who is non-sadhu
the transcendental qualities of Supreme Lord will not be revealed
अच्छाया अस्फुर्ती छाया स्फूर्ति
śuddha-bhakta they submit
from the core of the heart
these transcendental glories
will be revealed in his heart through revelation
कैसे? how he was speaking
being in the body of a
leader of an elephant
How could he speak?
because he was previously a devotee
it will be revealed in his heart, through revelation, he speaking
इस प्रकार है
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय
नैष्कर्म्येण विपश्चिता
इस विषय में काबिल है
वास्तव ज्ञान जिनके अंदर में है वो जानते हैं
सिर्फ भक्ति से भगवान मिल सकते हैं
केवला भक्ति
हमारे गुरूजी कहते हैं, केवला भक्ति के नाथ होते हैं भगवान
भक्ति में कुछ इधर-उधर रहने से भगवान नहीं मिलते
जो लोग भक्ति
नहीं, भक्ति का माहात्म्य मालुम नहीं
इसका अर्थ दूसरा करते हैं
वो हम लोगों को ही बोल रहा था,
वो [गजेन्द्र] तो निर्वाण चाहता है
आगे पीछे बात नहीं देखते हैं
उसके साथ सामंजस्य होना चाहिए
पीछे क्या निर्विशेष आया हैं, ना क्या आया हैं?
भगवान आया हैं
इसलिए उसका अर्थ उस प्रकार होना चाहिए
कुछ लोग तो शब्द देखने से ही उसका
दूसरे किस्म का अर्थ कर लेते हैं
it is not revealed in their heart by the grace of Supreme Lord
by their own intellectual capacity, they are speaking
they do not trust Supreme Lord
यह होता है
भगवान शांत हैं
वास्तव में भगवान शांत ही हैं
भयंकर नहीं हैं
कृष्ण भयंकर हैं?
कृष्ण को देखकर कंस को भय हुआ, भयंकर
जब कुवलयापीड़ हाथी को मार के आए
एक हाथी को, वो हाथी के
दांत को उखाड़ के मार दिया
और कुवलयापीड़ हाथी को मार दिया, एक हाथी, छोटा बच्चा हैं
उसको देकर रंगालय में प्रवेश किया
देखकर भय हो गया, भयंकर हैं
कृष्ण भयंकर हैं
भक्त लोग अलग-अलग भाव से देख रहे हैं
द्वादश रस का मूर्त-विग्रह जब प्रकाशित हो गया
प्रकाशित हो गया
भयंकर नहीं हैं
जो असाधु हैं उनको साधु को देखने से भय होता है
मैं असाधु हूँ ना?
जब साधु को देखा, बड़ा भय हो गया
जब पहले देखा ना लाल कपड़ा, भगवा कपड़ा है
[मैं तो] असाधु हूँ, देखकर भय करके भागने लगा
इसलिए कृष्ण कृपा करके और किसीको हैय!!
यहाँ आ, जबरदस्ती खींचा
वापस ले आया
जो असाधु हैं वो साधु देखने से डरता है
साधु कोई वो शेर हैं?
ना क्या हैं? मारेगा
ऐसा होता है हम तो हर वक्त सुनते ही हैं
लेकिन जो
हिरण्यकशिपु के पास भयंकर हो सकते हैं
नरसिंह देव
ऐसे भयंकर नहीं हैं
और साथ में देखता है प्रह्लाद
परम मंगल स्वरूप
प्रह्लाद प्रेम नेत्र से देख रहा है
नरसिंह देव को भयंकर कौन कहता हैं?
भयंकर तो यह संसार है
नरसिंह देव की याद से यह संसार से मुक्ती हो जाएगी
सब भय चला जाता है, यह प्रह्लाद कहते हैं
भयंकर नहीं हैं
और जो बद्ध जीव हैं, दुनिया के
वो [भगवान] दूर हैं उनसे, वो लोगों के पास गुप्त हैं, वो लोग समझते नहीं
उनकी समझ से बाहर हैं
और जो गुण हैं
यहाँ सत्त्व रजो तमो गुण हम लोग देखते हैं
इसके कारण रूप से हैं
लेकिन इसमें स्पर्श नहीं है
ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाभासो यथा तम:॥
(भा. 2.9.34)
चतुर्श्लोकी भागवत
भगवान को छोड़कर जिसका…
उसको कहते हैं माया
भगवान में माया नहीं हैं
भगवान पूर्ण सच्चिदानंद हैं उनमें कोई अभाव नहीं हैं
भगवान को छोड़ के जो देखते हैं वहाँ पर असत्, अचिद्, आनंद का अभाव हैं
अमंगल सब आ जाते हैं
इसलिए कहते हैं
प्राकृत कोई विशेषण नहीं है इसलिए निर्विशेष कहा
निर्विशेष मतलब उनका कोई स्वरुप नहीं हैं
यह बात नहीं है
निर्विशेषाय नमः
वैसे स्वरुप में हैं उसको नमस्कार करता है
नमस्कार ग्रहण करेगा तब तो ना
उनका जो स्वरूप हैं
स्वरुप, हम लोग चेतन को सभी व्यक्ति मानते हैं
चेतन छोडकर कोई वस्तु को व्यक्ति नहीं मानते हैं
चेतन वही, devoid of conciousness is not considered as person
it has got no value
as long as consciousness is there, there is value
and when he leaves the body, this body has got no value
the ultimate reality is person,
infinite person, Supreme Lord
but there is no
such these material forms
there are no such material forms
nirviśeṣ means there is no material form
which can be destroyed
अरूपायोरुरूपाय, सामंजस्य करना होगा
अरूपाय उनका कोई रूप नहीं हैं
बहुत रूप हैं
रूप नहीं है मतलब प्राकृत रूप नहीं हैं
प्राकृत विशेषण नहीं हैं
अप्राकृत गुण हैं
हरेक का पास समान हैं
लेकिन अज्ञात से हम लोग उनको,
उनको हम लोग समझते हैं भगवान किसी के ऊपर कृपा करते हैं किसी के उपर नहीं
भगवान पूर्ण वस्तु हैं
उनका तो कोई आभाव नहीं हैं
उनके बहार तो कोई वस्तु नहीं हैं
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:।
(गीता 9.29)
कोई मेरे द्वेष्य प्रिय नहीं हैं, सब मेरे लिए समान हैं
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥
जो करें, हाथी करे, कोई करे
जो भक्ति करेगा
जो स्वयं ही गजेन्द्र स्तव में कहा
सारे ब्रह्मा के दिन में कितने प्राणी हुए
यह प्राणी जगत देखते हैं
यह कितने मनुष्य हैं, मनुष्य के अंदर में कितने देश हैं यह सब हैं
सब ध्वंश हो जाता हैं भगवान तो देखते नहीं, भगवान कहाँ हैं?
भगवान सब देखते हैं
भगवान सभी मर जाने से भी नहीं देखते हैं
करोड़-करोड़ नहीं, अनंत जीव मर जाने से भी नहीं देखते हैं
और सृष्टि पैदा होने से भी नहीं देखते हैं
[भगवान कहते हैं] मेरा सहारा नहीं लिया मैं क्या करूँ?
मेरा सहारा नहीं लिया, मेरी माया ने उनको पकड़ लिया
वो आत्मा है
उसका जन्म भी नहीं है, मृत्यु भी नहीं है
वो देखते हैं उसका जन्म हुआ, मृत्यु हुई, तीन किस्म का ताप हुआ
मैं क्या बोलूं? मेरा शरणागत होने से मैं माया को उठा लूँगा
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
(गीता 7.14)
गीता में हम लोग पाठ करते हैं
जो मुझको प्रपन्न होगा मैं माया को उठा लूँगा
प्रपन्न नहीं होता है, देखे जाता है तो मैं क्या करूँगा?
झूठ देख रहा है
उसका जन्म भी नहीं है मृत्यु भी नहीं है त्रिताप भी नहीं हैं कुछ भी नहीं हैं
वो बात पहले बोला
इसलिए
हरेक के पास सामान हैं
कोई उनकी कृपा लेते हैं कोई नहीं लेते हैं उनका क्या कसूर हैं?
सूरज रौशनी देते हैं हरेक को
अच्छा-बुरा कोई विचार नहीं करते हैं
यह गन्दा स्थान है यहाँ पर रौशनी नहीं देनी चाहिए यहाँ पर…
ऐसे सूरज का कोई…. वो हरेक के पास सामान हैं
कोई.. कोई सूरज की जो धुप है
धुप से कपड़ा सुका लेते हैं, कोई नहीं लेते हैं
सूरज क्या करेगा?
सूरज उदित हुआ हैं
हम ने दरवाजा बंद कर दिया है, कपाट
खिड़की बंद कर दिया है, आँख बंद करके
कहाँ से सूरज कहाँ हैं? यह कपाट है, आँख खोलो
दरवाजा खोलो सूरज की कृपा लो देखो
ऐसा घर बंद करके….
इस प्रकार भगवान हरेक को कृपा करते हैं
समस्त जो निर्विशेष निराकार ब्रह्म हैं
उसके भी कारण रूप से
वही ज्योतिर्भ्यन्ते अतुलं श्यामसुन्दरं ज्ञान घन विग्रहः
ज्ञान घन विग्रह उनकी ही ज्योति हैं
ब्रह्म, निर्विशेष ब्रह्म
और हरेक जीव के हृदय में रहे परमात्मा हैं
उनका ही अंश हैं
परमात्मा हैं
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।
पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नम:॥
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे।
जितने किस्म का हम लोग का प्रत्यय होता हैं,
जितने किस्म के भाव होते हैं
कि संशय होता है कि और कोई विपर्यय बुद्धि होती है
सबका हेतु भगवान हैं
असताच्छाययोक्ताय
ऐसा तो जैसे
वृक्ष की छाया से वृक्ष का कुछ अनुमान होता है
इसी प्रकार भगवान की चिद्-शक्ति की छाया से
यह जगत सृष्ट हुआ
दुर्गा देवी
दुर्गा देवी
ऐसे बाहर में मालुम पड़ता है, दुर्गा देवी
सृष्टि स्थिति प्रलय का कारण हैं
लेकिन पीछे में चिद्-शक्ति हैं, गोविन्द हैं
छायेव यस्य भुवनानि विभर्ती दुर्गा इच्छानुरुपम् अपि यस्य च चेष्टते सा
गोविंदम् आदि-पुरुषम् तम् अहम् भजामि॥
(ब्रह्म संहिता 5.44)
सदाभासाय ते नम:
देखने में एक किस्म के माफिक मालुम पड़ता है लेकिन नहीं है
यह एक अर्थ है
जैसे वही
वृन्दावन धाम का, परव्योम
जो है उसका विकृत प्रतिफलन है
देखने में एक किस्म का, यहाँ भी
प्रभु-भृत्य सम्बन्ध है
यहाँ पर भी शांत रस है दास्य रस, सख्य, वात्सल्य सब यहाँ हैं
लेकिन यह सब झूठ हैं, अनित्य हैं
झूठ का मतलब अनित्य हैं, उल्टा होकर गिरा
यहाँ पर शांत रस सबसे श्रेष्ठ है
और मधुर रस सबसे ख़राब है
और वहाँ मधुर रस सबसे श्रेष्ठ है
भगवान में जितना प्रेम होगा…
और शांत रस सबसे निचा है वहाँ
उल्टा होकर गिरा, देखने में
और जब दूसरा अर्थ करे
स्फूर्ति होती है, छाया कान्ति
वो साधु के पास भगवान की स्फूर्ति होती है
असाधु के पास स्फूर्ति नहीं होती
नमो नमस्तेऽखिलकारणाय
निष्कारणायाद्भुतकारणाय।
सर्वागमाम्नायमहार्णवाय
नमोऽपवर्गाय परायणाय॥
अखिलकारणाय (सर्वकारणरूपाय अतएव)
निष्कारणाय (कारणरहिताय)
अद्भुतकारणाय (मृदादिकारणं यथा विकारं भजते तथा न इति विचित्रकारणाय)
ते (तुभ्यं) नमः नमः।
सर्वागमाम्नायमहार्णवाय
(सर्वे आगमाः पञ्चरात्रादयः आम्नायाश्च वेदाः
तेषां महार्णवाय स्रोतसामिव पर्य्यवसानस्थानाय)
अपवर्गाय (मोक्षरूपाय)
परायणाय (उत्तमानाम् आश्रयाय) नमः
अपने इष्ट देव का माहात्म्य कीर्तन कर रहा है
कोई इष्ट देव का नाम उच्चारण नहीं कर रहा है
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानंदविग्रह:।
अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वेकारणकारणम्॥
कह रहा है, मैं किसके पास शरणागत हो रहा हूँ?
सर्वकारण सब किसी के कारण हैं
लेकिन उनका कोई कारण नहीं है
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः।
अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वेकारणकारणम्॥
उनका कोई कारण नहीं, निष्कारणाय
स्वतः स्वतः सिद्ध, प्रकाशित होते हैं
उनको जानने के लिए एक मात्र उपाय है
उनकी कृपा स्वतः सिद्ध हैं
वेदो नारायण: साक्षात्स्वयम्भूरिति शुश्रुम॥
(भा. 6.1..40)
ये यह है वेद जैसे स्वयंभू हैं नारायण भी स्वयंभू हैं
भगवान भी स्वयंभू हैं
अद्भुतकारणाय अद्भुत कारण कैसे हैं?
सृष्टि करते हुए भी उनका कोई विकार नहीं हैं
मृदादिकारणं, जो कारण उपादान कारण है
अभी एक घट तैयार हुआ
उसका उपादान कारण होता है
मिट्टी; मिट्टी है
तब भी घट तैयार नहीं होता है
घट तैयार करने के लिए दंड-चक्र चाहिए
wheel, a kind of rode to place
जिसमे वो तैयार होता है
वो भी है तब भी नहीं होता है
कुम्भकार चाहिए, कुम्भार चाहिए
कुम्भार आने से, मूल कारण वही है
इसलिए यहाँ पर
उपादान, कोई कहते हैं जो लोग विवर्तवादी
ब्रह्मसत्य जगन्मिथ्या
जो ब्रह्म जब
अपनी शक्ति को परिणाम करे
शक्ति शक्तिमान अभेद हैं शक्ति शक्तिमान से अभेद है
ब्रह्म विकारी बन गया
तो ब्रह्म विकारी बनने से
उनकी निर्विकारता की हानि हुई
इसलिए उनका निर्विकार रखने के लिए
ब्रह्म का कोई
आकर नहीं है, आकर नहीं हो सकता है, ऐसा बोलते हैं
आकार होने से
जब कोई उनकी शक्ति परिणाम हो जाती है
जगत रूप से, उनका
परब्रह्मत्त्व सर्वकारण कारणत्त्व नष्ट हो जाता है
यह तो
दुनिया का उदहारण है, अद्भुतकारणाय
इसलिए जो अद्भुतकारण हैं
समझमें नहीं आता है
शक्ति को, विभिन्न-शक्ति को परिणाम करते हुए भगवान निर्विकार है
जैसे हम लोगों ने पहले सुना
स्पर्शमणि जो है
स्पर्शमणि के साथ कोई धातु संयुक्त होने से उसको सोना कर देता है
यह प्राकृत वस्तु है
लेकिन वो स्पर्शमणि ठीक ही रहता है
उसका कोई विकार नहीं होता है
उसमें कोई शक्ति है जिससे वो… धातु सोना हो गई
ऐसा सोना होगा? उसका [स्पर्शमणि का] तो विकार नहीं होता है
इसी प्रकार
भगवान अपनी शक्ति को परिणाम करते हुए भी निर्विकार रहते हैं
कभी विकार नहीं होता है
इसलिए अद्भुतकारणाय
आपको मैं प्रणाम करता हूँ पंचरात्र जैसे आगम वेद
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥
(गीता 15.15)
यह गीता में लिखा है यहाँ पर आपको इसमें मिलेगा
धर्ममूलं हि भगवान्सर्ववेदमयो हरि:।
(भा. 7.11.7)
भागवत में हैं
युद्धिष्टिर को नारद कहते हैं
धर्ममूलं हि भगवान्सर्ववेदमयो हरि:।
कोई-कोई कहते हैं वेद ही मूल हैं वेद कहाँ से आया?
वेद का मूल कौन हैं?
वेद तो भगवान के निःश्वास से आये हैं
वेद कहाँ से आये? भगवान से आये
वेदो नारायण: साक्षात्
वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्यय:।
वेदो नारायण: साक्षात्स्वयम्भूरिति शुश्रुम॥
(भा. 6.1.40)
वेद साक्षात् नारायण हैं
अखंड ज्ञान वेद हैं
और नारायण भी अखंड ज्ञान हैं
भगवान भी अखंड ज्ञान हैं
पूर्ण सत् पूर्ण चिद् पूर्ण आनंद हैं इसलिए वही
धर्ममूलं हि भगवान्सर्ववेदमयो हरि:।
धर्ममूलं हि भगवान्सर्ववेदमयो हरि:।
धर्म के मूल होते हैं सब वेद मई हरि
जो वहाँ नारद गोस्वामी बोलें
स्मृतं च तद्विदां राजन्येन चात्मा प्रसीदति॥
(भा. 7.11.7)
जिससे भगवान की प्रसन्नता होती है
जो क्रिया से भगवान की प्रसन्नता होती है वो धर्म का मूल होता है
हरि
हरि आसमान से गिर गया?
वेद कहाँ से गिरा?
वेद भगवान भगवान से आया; भगवान ही उनका मूल कारण हैं
इसलिए
वही तब वहाँ पर जाकर
वही वेद रूप समुद्र में, भगवान जो समुद्र हैं
एक ही स्थान पर पहुँचता है यहाँ पर लिखा है
पंचरात्रादि जितना आगम वेद समूह आश्रय करेंगे
वो सब आखरी में
भगवान में उसकी परिसमाप्ति होती है
सर्वे आगमाः पञ्चरात्रादयः
आम्नायाश्च वेदाः तेषां महार्णवाय
स्रोतसामिव पर्य्यवसानस्थानाय
जितनी नदी हैं, कहाँ जाती हैं? महासागर में जाती हैं
महार्णव
सारी वहाँ से ही निकली हैं वहाँ पर ही जाती हैं
यह सब राय रामानंद प्रसंग में भी मिलता है
वो सूर्य ताप से मेघ हुआ
मेघ होकर फिर वही मेघ बारिश होकर
नदी होकर फिर मेघ में जाता है
फिर वही समुद्र में जाती हैं, समुद्र होता है
महाप्रभु; महाप्रभु से शक्ति लाभ कर के
राय रामानंद वही भक्ति के बारे में कहकर महाप्रभु में जाकर ही
परि-समाप्ति होता है इसी प्रकार
साधुओं का शरण्य स्वरूप साधु का…
साधु किसको आश्रय करते हैं?
भगवान को, सत् वस्तु हरि ॐ तत् सत् उनको आश्रय करते हैं
असाधु लोग नहीं करते हैं
साधु और असाधु में फरक क्या है?
साधु का स्वरुप लक्षण क्या है?
मय्यनन्येन भावेन भक्तिं कुर्वन्ति ये दृढाम्।
मुझ में जिनकी अनन्य भक्ति है वही साधु हैं
जब अनन्य भक्ति नहीं है वो साधु नहीं हैं
इसलिए साधु
वो गुण जहाँ पर है
उनको साधु बोलके जानना
यह गीता में भी कहा
जहाँ पर भगवान को अनन्य रूप से आश्रय किया
वही गुण जहाँ पर है
बाहर में उनको कोई क्रिया में ख़राब देखने से भी
मेरे विचार से वो साधु हैं, वो ठीक रास्ते में आ गया
मेरी ही शक्ति का अंश हैं मेरे लिए ही रहना चाहिए
पहले के संस्कार से कोई गन्दा काम कर लिया है
उसको..
उसकी कभी निंदा नहीं करना
थोड़ा धैर्य धारण करके रखो
वो परा शांति प्राप्त करेगा
गीता जी में हम लोग अक्सर सुनते हैं, गीता जी में है
इसलिए यहाँ पर कहते हैं
वो साधुगण का शरण्य स्वरूप
आपको मैं प्रणाम करता हूँ
आपको नमस्कार करता हूँ
‘अद्भुतकारणाय’ — उपादान कारण हईले ओ
उपादान कारण
जब भी है मिट्टीका आदि
वो जैसे विकृत होता है
ऐसे आपकी जो है शक्ति परिणाम होकर आप विकृत नहीं होते हैं
सब को परिणाम करके आप निर्विकार रहते हैं
तोमार विहारयोग अर्थात् क्रीड़ोपाय प्राणी
आमादेर पक्षे दुर्बोधेर न्याय हईतेछे
जेहेतु तोमार आश्रय नाइ ओ शरीर नाइ
एवं तुमि स्वयं अगुण, तथापि आपनार आत्मार द्वारा
एई सगुण विश्वेर सृष्टि, स्थिति ओ लय करितेछ
अथच कोन प्रकारे तोमार अत्मार विकारमात्र हईतेछे ना
सब प्रकार क्रिया हैं
ऐसे भगवान सब किसी के कारण हैं
भगवान के आश्रय में तमाम वस्तु हैं
उनका प्राकृत शरीर नहीं है
निर्गुण हैं
तब भी यह सगुण विश्व की सृष्टी स्थिति प्रलय
यह सब ही भगवान करते हैं, करते हुए भी
स्वयं निर्विकार रहते हैं
निर्विकार…
यह आश्चर्य का विषय है
भगवान की अविचिंत्य महाशक्ति जिसको कहते हैं
श्रीधर स्वामीपाद ने इसके बारे में लिखा है
‘कारणत्वे च मृदादिवद् विकारं वारयति—अद्भुतकाराणाय’
मृत्तिकादिर न्याय विकार बारण करितेछेन
अद्भुतकारणाय
और जितने आगम शास्त्र हैं सब
वही भगवान में ही परि-समाप्ति.. समाप्ति होती है
अपवर्गाय
जो मुक्ति चाहते हैं
वो मुक्ति कहाँ पर मिलेगी
वास्तव मुक्ति, स्वरूपेन व्यवस्थिति
स्वरुप में जब व्यवस्थित होता है तब मुक्त होता है
भगवान में, ब्रह्म में लय हो गया ऐसा नहीं
जो अपने स्वरुप में प्रतिष्ठित हो गया, मैं भगवान का नित्य दास हूँ
उसमें जब हम चले जाएँगे
उसको ही वास्तव मुक्ति कहते हैं
उनके अधीन रहा
परायणाय, ब्रह्मा आदि जो देवता हैं
सब के आश्रय हैं
अपवार्गाय मुक्ति देनेवाले हैं
असल मुक्ति जो भगवान की कृपा से मिलती है
और ब्रह्मा आदि देवता जैसे श्रेष्ठ देवता
उत्तम पुरुषगण का
श्रेष्ठ जो देवता हैं उनके आश्रय हैं
इसी प्रकार जो परमेश्वर हैं
उनके चरण में मैं सहारा ले रहा हूँ
गुणारणिच्छन्नचिदुष्मपाय
तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-
स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि॥
गुणारणिच्छन्नचिदुष्मपाय
भगवान का सब महात्म्य बोल रहा है
उसके हृदय में प्रकाशित होता है
तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम
स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि
ऐसे त्रिगुण देखने में देखा जाता है त्रिगुण
लेकिन त्रिगुण के अंदर में
सब जगह में
उपादान कारण में भी भगवान हैं
जैसे….
वही उपादान कारण
कारण की भी चिन्मय वस्तु है
देखने से उपादान मालुम होता है
वैज्ञानिक लोग कहते हैं
यह परमाणु से सृष्टि ही हुई जितना क्षुद्र हो गया
वो परमाणु का भी electron proton कारण हैं
लेकिन electron proton जो परमाणु में घूमते हैं
कभी ऐसे कभी वैसे, उसका
वो लोगों के science में क्या करना पड़ा
निश्चित रूप से दिखाना पड़ेगा
तब science होता है
जब निश्चित रूप से नहीं दिखा सकता तब science नहीं है
बोले यही जब परमाणु में
वही electron proton घूम रहे हैं
यह scientific
इतने scientists है समझ नहीं पाए
यह परमार्थ का विभाग है, ये हम लोगों का नहीं है
परमार्थ के विभाग कह दिया ये
हम लोग इसको determine नहीं करते हैं
इसलिए वही अणु परमाणु….
परमात्मा हैं उनको determine हम लोग कैसे करेंगे?
सूक्ष्मतम् रूप से हैं
सर्वव्यापक हैं
जिसको अरविन्द घोष लिखा
जब भी भक्त नहीं थे
लेकिन अपने इतिहास में लिखे हैं
फ्रेंच फिलोसोफर बर्गसन [French philosopher Bergson]
सब सृष्टि का एक कारण है,
automatically नहीं हुआ
mechanically हो गया ऐसा नहीं है, एक कारण है
कोई एक गाय हो गई ऐसे हो गया ये नहीं
उसके भीतर में कारण है
इसलिए यहाँ पर वही
कहते हैं कि कारण बैगर कार्य नहीं होता है
वो जितना हम देखते हैं त्रिगुण
त्रिगुण के अंदर में सर्वत्र भगवान व्यापक रूप से हैं
परमाणु वही
अरविंद घोष जब उनको एक cell में रख दिया
एक दम पोंडिचेरी में
एक छोटे से घर में रख दिया
उन्होंने लिखा अपने जीवन चरित्र में
मेरी अभी मृत्यु होगी, स्वाधीनता आन्दोलन में बहुत किया तो…
उनको वहाँ पर ब्रिटिश जवानों के पास ले गए, उनको रख दिया
वो कहते हैं मेरी मृत्यु हो जाएगी, और मैं बचूंगा नहीं
जो कमरे में, छोटे घर में हैं
वो चौकी में बैठे हैं
निचे से बहुत चिंटी जा रही हैं
चिंटी
वो चिंटी की तरफ ध्यान दे रहा हैं, कुछ तो नहीं है
ध्यान देते-देते-देते… ध्यान एकदम
पूरा ध्यान दे दिया कोई बाहर की कोई चिंता नहीं है
वो चिंटी के अंदर में जो आत्मा है, मेरे अंदर में भी आत्मा है
वो चिंटी का ध्यान करते-करते-करते-करते… उसमे
all pervading spirite is there
जब उनको एक तो ऐसा ज्ञान हुआ उनके दिल में शांति आई
यह जो अणु चेतन, जितना कुछ चेतन हैं
उनके back-ground में all pervading spirit है
उनका अनुभव होगा तो और कोई दुःख नहीं रह सकता
इसलिए यहाँ पर
गजेन्द्र स्तव करते हैं, इसके अंदर में भी बही भगवान हैं
हम लोग देख नहीं पाते हैं
वैज्ञानिक लोग स्वीकार करते हैं
ना इसको हम लोग विचार नहीं कर पाते हैं यह परमार्थ विभाग का है
पारमार्थिक व्यक्ति वो लोग बोलेगा इसे, हम नहीं बोल सकेंगे
इसलिए
तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय
यह जो सत्त्वादी गुण प्रकृति के जो क्षोभ होता है
यह बहिर्वृत्ति
बहिर्वृत्ति जो है
वो देखा जाता है भगवान की इच्छा से भगवान ही यह सब
रजो गुण से सृष्टी हुई
सत्त्व गुण से संरक्षण हुआ
सत्त्व गुण को लेकर विष्णु पालन कर रहे हैं
लेकिन सत्त्व गुण में विष्णु नहीं हैं
रजो गुण को लेकर ब्रह्मा सृष्टी किए
तमो गुण में नाश किया
और सत्त्व गुण को लेकर पालन किया
लेकिन भगवान इसलिए
वो गुण में मिल गया नहीं
गुण कश्चित् ग्रहण करके किया
नहीं तो भगवान निर्गुण हैं, विष्णु निर्गुण हैं
इसलिए वो बहिर्वृत्ति है
(नैष्कर्म्यम् आत्मतत्त्वं तस्य भावेन भावनाय)
इसलिए
नैष्कर्म्यम् यहाँ पर लिखा
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-स्वयंप्रकाशाय
यहाँ पर ऐसा नहीं लिखा
यह आगम शास्त्र के बारे में पहले लिखा ना
यहाँ पर कहते हैं
जो वेद की जो आज्ञा हैं
वही आज्ञा को लंघन करके भी
उसका विपरीत काम करने पर भी भगवान की सेवा कर सकते हैं वो उनसे श्रेष्ठ साधु है
आज्ञायैवं गुणान् दोषान् मयादिष्टानपि स्वकान्।
धर्मान् सन्त्यज्य य: सर्वान् मां भजेत स तु सत्तम:॥
(चै.च.मध्य 8.62)
ये सब भगवान ने आज्ञा कर दी। यह करना, यह करना, यह करना
लेकिन जीव के अधिकार में स्वयं बोल दिया
जो साधु, श्रेष्ठ साधु हैं
वो देखते हैं हरेक क्रिया का उद्देश्य क्या होता है? भगवान की प्रसन्नता
इसलिए भगवान ने जीवों के अधिकार अनुसार बोल दिया
भजन करनेवाले व्यक्ति को….
लेकिन वो लोग उनकी आज्ञा
का दोष गुण विचार करके
जसमें भगवान की प्रसन्नता हो वो करते हैं
वो श्रेष्ठ साधु
हरेक नहीं समझते हैं
आज्ञायैवं गुणान् दोषान् मयादिष्टानपि स्वकान्। धर्मान् सन्त्यज्य य: सर्वान् मां भजेत स तु सत्तम:॥
धर्मान् सन्त्यज्य य: सर्वान् मां भजेत स तु सत्तम:॥
जो मेरा भजन करते हैं
वो होते हैं, साधु, उत्तम उत्तम साधु
इस प्रकार विवर्जितागम प्रकाशाय
उनके पास में भगवान प्रकशित होते हैं
इसलिए उनको मैं प्रणाम करता हूँ
उसके बाद
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय
मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत-
प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते॥