गजेंद्र मोक्ष – 17

श्रीगजेन्द्र उवाच
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम्।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम्।
योऽस्मात् परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम्॥
य: स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्‍वचिद् विभातं क्‍व च तत् तिरोहितम्।
अविद्धद‍ृक् साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्ममूलोऽवतु मां परात्पर:॥
कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्‍नशो
लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु।
तमस्तदासीद् गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभु:॥
न यस्य देवा ऋषय: पदं विदु-
र्जन्तु: पुन: कोऽर्हति गन्तुमीरितुम्।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमण: स मावतु॥
दिद‍ृक्षवो यस्य पदं सुमङ्गलं
विमुक्तसङ्गा मुनय: सुसाधव:।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतात्मभूता: सुहृद: स मे गति:॥
न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा
न नामरूपे गुणदोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय य:
स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति॥
तस्मै नम: परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्यकर्मणे॥
नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि॥
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता।
नम: कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे॥
नम: शान्ताय घोराय गूढ़ाय गुणधर्मिणे।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च॥
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।
पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नम:॥
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नम:॥

गजेन्द्र ने भगवान का विशेष नाम नहीं लिया
भगवान का महात्म्य कीर्तन करके, परमेश्वर
और उनके चरण में सहारा लिया
प्रणाम किया, ध्यान किया, मेरी रक्षा करो
अभी पहले आप लोगों ने सुना
ऐसा महात्म्य कीर्तन करते-करते उनके अंदर में,
भीतर में दीनता भाव आ गया
जो देवताओं में श्रेष्ठ
मुनि-ऋषि कोई नहीं कर सकते हैं, कोई नहीं वर्णन कर सकते हैं
मैं एक हस्ती (हाथी) योनी प्राप्त करके
आपका महात्म्य कैसे कीर्तन करूँ?
लेकिन…भगवान को कौन जान सकता है?
जो भागवत धर्म को ग्रहण करते हैं, भक्ति-धर्म
भगवान उनके हृदय में प्रकाशित होंगे, सुसाधव;
और
भगवान का स्वरुप नित्य है
भक्त का स्वरुप भी नित्य है
आपस में सम्बन्ध भी नित्य है
भक्ति नित्य है
भजन करते-करते भजनीय के साथ मिल गया, ऐसा नहीं है
वो ऋग्वेद का मंत्र हमें याद करना चाहिए
ऋग्वेद में लिखा है

तद विष्णो: परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षु राततम।।

हर वक्त दर्शन करते हैं
विष्णु-पादपद्म दर्शन करनेवाला भी हर वक्त रहेगा
और दर्शनीय विष्णुपादपद्म भी हर वक्त रहेंगे
तब दर्शन हर वक्त हो सकता है
भगवान भी नित्य, भक्त भी नित्य
भक्ति भी नित्य…. तमाम वैष्णव आचार्य इसमें सहमत है
तब भगवान का स्वरुप मानने से
हमारा स्वरुप जो दुनिया में देखते हैं
ऐसा स्वरुप है?
यह तो बिगड़ जाता है
नाम, रूप, गुण सब में दोष दिखता हैं
नहीं वैसा नहीं
इस प्रकार जड़िय नाम,
नाम के साथ नामी का कोई सम्बन्ध नहीं है
यह सब नाम
यह सब रूप, लीला
और थोड़े वक्त के, जड़िय
हड्डी गोश्त का.. इस प्रकार का कुछ आकार वा रूप नहीं है
गुण
गुण रहने से तो वो तो मायिक हो गया
यह जो दुनिया में गुण है, वो गुण नहीं है
वास्तव गुण नहीं है
कहते हैं सत्त्व गुण; सत्त्व गुण तो माया है, वो भी दोष है, सब ही दोष है
भगवान अप्राकृत, उनके जितने गुण हैं, अप्राकृत गुण हैं
प्राकृत गुण नहीं
भगवान अप्राकृत हैं
जब नियत समय होता है, भगवान सृष्टि करने के लिए
तब ब्रह्मा रूप से आते हैं
एक नियम बंधा हुआ है
महाप्रलय में नाश हो जाता है
संहार करने के लिए रूद्र रूप से आते हैं
लेकिन भगवान का स्वरुप जो है नित्य है
नित्य चिन्मय स्वरुप है
कभी नाश होनेवाला नहीं है
उनके चरण में मैंने शरण ली है
ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये
उनके बहुत रूप हैं और दुनिया का यह सब रूप नहीं हैं
वही भगवान को,
जो भगवान हरेक जीव के दिल के अंदर में हैं
साक्षी रूप से हैं, परमात्मा रूप से हैं
जो रहने से
आत्मा का… जैसे सूरज की रोशनी का परमाणु है
उसी प्रकार है
आत्मा, जीवात्मा
वही सूरज की रौशनी के परमाणु के माफिक है
जब सूरज नहीं रहे तब परमाणु भी कैसे रहेगा?
इसलिए एक ही देह रूप जो वृक्ष है उसमें दो आत्मा रहते हैं
एक जीवात्मा, एक परमात्मा
जीवात्मा अपना कर्म फल भोग करता है
परमात्मा साक्षी रूप से देखते हैं
वो अच्छा-बुरा काम नहीं करते
उनको हम अपने यह जड़िय शब्द या
वाक्य जिसको कहते हैं और
मन के चिंता द्वारा उनके पास नहीं जा सकते हैं
मन भी जड़ है, गीता में कहा
जड़ीय मन जड़ वस्तु की चिंता कर सकता है
मन और वाक्य के परे हैं
तो उनको कैसे जान सकते हैं?
जब शब्द-ब्रह्म का आश्रय करें
भगवान और भगवान का शब्द-ब्रह्म एक ही हैं
फरक नहीं है
भागवत साक्षात् कृष्ण हैं
वेद साक्षात् नारायण हैं
देखने में ग्रन्थ के माफिक

वेदो नारायण: साक्षात्स्वयम्भूरिति शुश्रुम
(भा. 6.1.40)

शब्दब्रह्म परं ब्रह्म ममोभे शाश्वती तनू॥
(भा. 6.16.51)

शाश्वती तनू हैं
वही शब्दब्रह्म का आश्रय करके
उनको जान सकते हैं

जड़ शब्द का [आश्रय करके] नहीं
कैसे मिल सकते हैं?
ठीक है, शास्त्र में हैं
शास्त्र में कहते हैं, शुद्ध भक्ति से मिल सकते हैं
वही वास्तव में नैष्कर्म्य है
सिर्फ कर्म छोड़ दिया
जो कोई अवस्था से फिर गिर सकता है
ब्रह्म साम्य अवस्था प्राप्त करते हुए ज्ञानी लोग गिर जाते हैं
फिर कर्म में फँस जाते हैं
लेकिन तमाम इन्द्रिय इन्द्रियार्थ भगवान की सेवा में लगाते हैं
भगवान का माधुर्य आस्वादन करते हैं
वही वास्तव में कर्म का मूल-उत्पाटन होता है
कर्म होता है, कर्ता अभिमान से
कर्त्तव्य अभिमान
जब तक उनका स्वरुप.. मैं भगवान का हूँ
यह ज्ञान में प्रतिष्ठित नहीं जाय,
भगवान उनके रक्षक पालन नहीं हो जाय
जो कोई मुहूर्त में पतन हो होता है
भागवत धर्म में पहले ही भगवान के चरणों में सहारा लेते हैं
भगवान उनके रक्षक पालक हैं
ज्ञानी-योगी अपनी चेष्टा से
ब्रह्म साम्य अवस्था इत्यादि प्राप्त करने के लिए कोशिश करते हैं

आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं तत: पतन्त्यधोऽनाद‍ृतयुष्मदङ्घ्रय:॥
(भा. 10.2.32)

केवला भक्ति जो है उसके नाथ हैं
साथ-साथ में आनुसंगिक रूप से
उनको भक्ति के आनुसंगिक रूप से मुक्ति-सुख आ जाता है
इसके लिए अलग से कोशिश नहीं करनी पड़ती
भगवान, साधु के पास ..
वहाँ पर प्रसन्न हैं
भगवान शांत हैं
और जो खल है [उनके लिए वे]
उग्र हैं
खलानां उग्र
जो खल है उनके लिए उग्र हैं भगवान
देखने में ऐसा मालुम होता है
कृष्ण को देखकर कंस को भय हुआ
भयंकर हैं
कृष्ण तो भयंकर नहीं हैं
लेकिन इस प्रकार
जो परम मंगलमय हैं, उनको भी भयंकर देखता है
नरसिंह देव को
प्रह्लाद देखते हैं
परमानन्द मंगलमय स्वरुप.. प्रेम नेत्र से
और हिरण्यकशिपु देखता है एक जानवर है
देखने की योग्यता है ही नहीं
भगवान की कृपा से देख सकता है
जो संसारीक व्यक्ति हैं
जो अपनी चेष्टा से
उनको जान ने के लिए चेष्टा करते हैं
उसके पास प्रच्छन्न हैं.. वो नहीं समझते
जब भी अपनी चेष्टा से जानने के लिए कोशिश करेगा तब नास्तिक बनेगा
भगवान किसीके अधीन नहीं हैं
और दुनिया में जितने गुण देखते हैं सत्त्व गुण, रजो गुण, तमो गुण
ये सब जो अपरा प्रकृति, बहिरंगा शक्ति
यह भी भगवान का ही है
भगवान ही उसके कारण हैं
लेकिन भगवान उनके साथ लिप्त नहीं हैं
भगवान का कोई प्राकृत आकार नहीं हैं, अप्राकृत स्वरुप हैं
हरेक के पास समान हैं
और भगवान का स्वरुप हैं ज्ञानघन
घन स्वरुप
जैसे सरबत है वो मीठा होता है
लेकिन जब वो मिश्री बन जाता है तब और ज्यादा मीठा बन जाता है
ब्रह्मानन्द होता हैं सरबत के माफिक
लेकिन भगवान चिद् घन स्वरुप, परमानंदमय स्वरुप
ज्ञानघनाय च
रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति।
सः masculine phase of godhead
पूर्ण सच्चिदानंद विग्रह, भगवान
उनको प्रणाम कर रहे हैं
[गजेन्द्र] उसका उद्देश्य है परमेश्वर
परमेश्वर का दर्शन करेंगे
बाद में आप लोग देखंगे
वो जो स्तव कर रहा है
जितना कुछ बोल रहा है, उद्देश्य क्या है?
कि मुझे यह ग्राह से मुक्त कर दो
फिर मैं संसार में जाकर,
फिर स्त्री पुत्र के साथ बहुत भोग करूँगा… ऐसी मेरी इच्छा नहीं है
वो संसार में नहीं.. संसार नहीं चाहता हूँ
वैकुण्ठ धाम जहाँ पर आप हैं
भीतर में चाहते हैं वही भगवान का दर्शन करने के लिए
फिर दीनता से कहते हैं
मेरा न कोई अधिकार है न योग्यता है..
भीतर के भाव तो भगवान देखते हैं
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं
हम अपने शरीर के बारे में कुछ जानते हैं..

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
(गीता 13.2)

लेकिन कितने शरीर हैं
क्षेत्रज्ञ हैं विष्णु, स्वयं कृष्ण
वो जो है जितने भी क्षेत्र हैं उनके सब के
जानने वाले हैं भगवान स्वयं
सब कहाँ पर क्या हो रहा हैं
जितने प्राणी हैं अनंत ब्रह्मांड में
उनके भीतर में क्या करते हैं सब कुछ जानते हैं भगवान
इसलिए मैं.. मेरे माफिक बद्ध जीव
जीव और भगवान में फरक है
भगवान में सर्वज्ञता है
सबके भीतर में हैं.. भीतर में क्या कर रहा है
ये कोई अनंत ब्रह्माण्ड के अंदर में
कोई एक पृथ्वी ही छोटा सी पृथ्वी
उसके कौन से कोने में एक ब्राह्मण
प्रतिष्ठानपुर का ब्राह्मण
नारायण की सेवा करता है
हम लोग भी नहीं जानते हैं, कौन हैं ये?
गरीब आदमी लेकिन
लेकिन बहुत प्रेम से सेवा करते हैं, मन से सेवा करते हैं
उनको अपने लिए कुछ नहीं मिलता हैं फिर भी सेवा करते हैं
भगवान वहाँ पर बैठकर सब देख रहे हैं
क्षेत्रज्ञ
वो तो क्षेत्रज्ञ अपने शरीर को देखा
गरीब हैं..
और भगवान की सेवा करते हैं भगवान उनको देख रहा हैं
इसलिए जिनका भगवत् विश्वास होता है,
भगवान हैं सब देख रहे हैं
वह पाप करने में डरेगा
जहाँ पर नास्तिक्य विचार है
तब पाप करने में डरता नहीं
दुनियादारी का जो यह समस्त criminal offence
इससे बचने के लिए भी भगवत् विश्वास होना चाहिए
वास्तव में तो हैं ही भगवान
भगवत् विश्वास होने से वो ऐसा काम नहीं कर सकता हैं
भगवान देख रहे हैं.. उसका फल मिलेगा
फल देंगे भगवान इसलिए
वही प्रतिष्ठानपुर का ब्राह्मण एक दिन उनकी इच्छा हुई
कि नारायण को खीर भोग देंगे
खीर.. सारे जितने चावल हैं
अच्छा दूध है, गाय का, अच्छी नसल की गाय का दूध
सब कुछ ले आने में चावल
इत्यादि और पिस्ता बादाम सब लेकर आने में समय हुआ
लेकीन मन में मन में ले आया
कोई वस्तु नहीं है
मानस पूजा.. मन में ले आए
मन में ही सोचा
मुझे ये सब ले आते ले आते बहुत देर हो गयी
अभी भगवान को भोग दस बजे के अंदर देना चाहिए
क्या करेंगे?
मन चंचल हो गया
सब लेकर परमान्न तैयार किया
तैयार कर के चाँदी के बर्तन में
चाँदी कभी देखा ही नहीं… वहाँ पर बोल दिया..
देकर भोग दिया, भोग देने के बाद
उनको होश आया कि गरम चीज तो भोग में देनी नहीं चाहिए
ये.. एकदम चुल्हे से उतार के दे दिया
देर हो गयी इस भाव से.. भगवान को कितना कष्ट हुआ
तो अपनी अंगुल घुसा दी
देखने के लिए कि कितना गरम है?
उनका हाथ; आह!! जल गई
तो नारायण वहाँ हँस दिए
कोई वस्तु नहीं है, कोई कुछ भी नहीं है, हाथ जल गया कि अंगुल जल गई कैसे?
तब लक्ष्मी देवी कहते हैं, आप क्यों हँसे?
कहाँ पर कौन जगह में, कौन पृथ्वी कितनी हैं वो पृथ्वी एक बिंदु भी नहीं है, कुछ भी नहीं हैं
कौन से कोने में कौन क्या-क्या कर रहा है सब भगवान् जानते हैं
[भगवान् लक्ष्मी देवी को] कहते हैं ऐसा मेरा एक सेवक है
बहुत प्रेम से सेवा करता है लेकिन वो गरीब है
तो आज खीर भोग देगा
वो खीर संग्रह करने में तो time तो लगेगा
इसलिए वो सारी चीज जल्दी से चूल्हे से उतारकर दे दिया
उसके बाद में तो होश आया गरम चीज लगा दी
वो अंगुल घुसा दिया, उनका अंगुल जल गया
इसलिए मैं हँसा
कोई वस्तु नहीं है, हाथ जल गया
उसके बाद गरुड़ को बोलें, गरुड़ जाओ
वहाँ से वो जो उच्च स्थान हैं,
कहाँ पर अनंत ब्रह्माण्ड infinite planets
कहाँ पर कौन हैं.. कौन जगह में?
वहाँ जाकर उनको ले आकर, सशरीर उन्हें हमारे पास ले आओ
गरुड़ जाकर ले के आया
इसलिए जो हम अच्छा काम करेंगे कोई जगह पर बैठके, छोटा-सा प्राणी है
वो भी भगवान देखते हैं, गंदे काम करता है वो भी देखते हैं
इसलिए आप क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय
सब.. सबके आप अध्यक्ष हैं.. प्रभु हैं.. मालिक हैं
सर्वाध्यक्ष साक्षिणे (सर्वद्रष्ठे) और यहाँ पर.. सर्वाध्यक्षाय, सर्व भूतादि पतये
तमाम प्राणी के अधिपति
तमाम प्राणी के अधिपति हैं, मालिक हैं
वो समर्थ, तमाम जीव भगवान से हैं
भगवान से हैं, भगवान में हैं, भगवान के द्वारा हैं, भगवान के लिए हैं.. तैतरीय उपनिषद में है

यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते।
येन जातानि जीवन्ति।
यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञासस्व।
तद् एव ब्रह्म।

सब प्राणी के अधिपति हैं और साक्षी हैं
एक परमात्मा हैं, एक जीवात्मा है
वही परमात्मा रूप से सब देखते हैं, गवाही हैं
भगवान नहीं देख रहे हैं
जो काम, गन्दा काम करेगा वो भी देखेंगे
और अच्छा काम भी देखेंगे
पुरुषायात्ममूलाय.. हमारे गुरूजी के बारे में सुना
पहले मठ में आने से पहले कोलकाता में
जब आने से पहले, बाग बाजार गौड़ीय मठ में
गाडी भर्ती करके सब चीज भेज देते थे
अब तक किसीको मालुम नहीं है कौन भेजते थे
लेकिन भगवान ने तो देखा
और लोगों को मालुम करने की क्या जरुरत है?
महाराज मैं इतना रूपया देता हूँ
उसमें भी थोड़े परिमाण में… “हाँ अच्छा किया”
और गुरु महराज का वो भी नहीं
भगवान की सेवा के लिए किया
भगवान देख रहे हैं, हम को बाकि किसी को दिखलाने की क्या जरूरत है?
अब तक बाग बाजार गौड़ीय मठ के आदमी नहीं जानते हैं कि कौन भेजते थे?
भगवान् फल नहीं देंगे? सब देख रहे हैं
आत्मा का मूल (आत्मनां क्षेत्रज्ञानां मुलाय)
स्वयं उनका कोई कारण नहीं हैं
वो सब किसी के कारण हैं
प्रकृति के भी कारण भगवान हैं
और पुरुषोत्तम

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम:।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम:॥
(गीता 15.18)

वही तो पुरुषोत्तम पूर्णवस्तु, पूर्णतम हैं
उनको मैं प्रणाम करता हूँ

सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नम:॥
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे (सर्वेषाम्
इन्द्रियाणाम् ये गुणाः शब्दादिविषयाः तेषां द्रष्ट्रे)

ये शब्द भी जो हम लोग कर रहे हैं ना वो भी भगवान से मिल रहा हैं
भगवान तो कहाँ हैं? वैकुण्ठ में, यहाँ नहीं सुन रहे हैं
ऐसा नहीं है
सावधान रहना होगा
जो कुछ करेंगे सब देखेंगे
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे
(सर्वेषाम् इन्द्रियाणाम् ये गुणाः शब्दादिविषयाः तेषां द्रष्ट्रे)
सर्वप्रत्ययहेतवे
(सर्वे प्रत्ययाः इन्द्रियवृत्तयः हेतवः ज्ञापका:
यस्य तस्मै संशयविपर्यायादि) कितने किस्म के हैं?
भीतर में संशय होता है भगवान हैं कि नहीं?
मैं तो आया यहाँ पर
ये कार्तिक व्रत करने के लिए भठिंडा में
यह क्या दिखाते हैं?
संशय, [भगवान] हो सकते हैं नहीं भी हो सकते हैं
वो भगवान देख रहे हैं
विपर्यय बुद्धि हो रही है
उनको छिपा के कोई कुछ नहीं कर सकता है
सर्वधर्मप्रत्ययहेतवे
percepts and concepts
whatever it may be Supreme Lord is seeing everything
nobody can do anything
whether perception or conception
everything He knows of all living beings
He is everywhere, without His knowledge nobody can do anything
infinite brahamandas, there are infinite vaikunthas
so He is infinite
असताच्छाय
(असता अहंकारप्रपंचेन छायया असद्रुपया)
उक्ताय (प्रतिबिन्बेन बिम्बमिव सुचिताय)
ऐसा होता है वही
परब्रह्म जो वैकुण्ठ धाम हैं
वृन्दावन धाम, वैकुण्ठ धाम
उसका विकृत प्रतिफलन यह है, perverted reflection
जगत है.. उसका ही विकृत प्रतिफलन
इसलिए सब उल्टा होकर दिखता हैं
जब प्रतिफलन होता है ना
तब तालाब में
एक पेड़ प्रतिफलित हुआ
तो जो मूल है वो ऊपर उठ जाता है
ऊपर का सब नीचे हो जाता हैं, ऐसे उल्टा होता है
वहाँ पर जो सब से ऊँचा है वो यहाँ सबसे नीचा है
वही वृन्दावन धाम में
मधुर रस सबसे श्रेष्ठ है
और शांत रस सबसे नीचे है
और यहाँ पर शांत रस उल्टा हो गया सबसे ऊँचा हो गया
और मधुर रस सबसे खराब हो गया
जितने आसक्त होंगे उतना दुःख मिलेगा
स्वामी-स्त्री में आसक्ति होती है
और, और कोई होगा और भी ज्यादा आसक्ति होती है
जितनी आसक्ति होगी
उतना दुःख मिलेगा जब विच्छेद होगा
लेकिन वहाँ पर जितना हम भगवान से फरक[दूर] रहेंगे उतना नुकसान होगा
जितना भगवान से हम मिलेंगे
भगवान को प्राप्त करेंगे, भगवान के साथ
मिल जाएँगे तो आनंद का आस्वादन उतना ज्यादा होगा
यहाँ पर
उनके बारे में बोले हैं
वो जो ब्रह्म स्तव है
दुर्गा देवी का, दुर्गा देवी छाया शक्ति हैं ना
वहाँ पर लिखा है यह..

सर्वाणीन्द्रियाणि गुणा विषयाश्च तेषां दृष्ट्रे।
सर्वप्रत्यया इन्द्रियवृत्तयो हेतवो ज्ञापका
‘गुणप्रकाशैरनुमीयते भवानी’त्युक्तेः।
असता असर्वकालस्थायिना छायया
‘छायेव यस्य भुवनानि विभर्ती दुर्गेति’

यह सृष्टि-स्थिति-प्रलय-साधन शक्तिरेका
छायेव यस्य भुवनानि विभर्ती दुर्गा
इच्छानुरूपमपि यस्य च चेष्टते सा गोविंदमादिपुरुषं तमहं भजामि
यह आदि देव गोविन्द को मैं भजना करता हूँ
देखा जाता है दुर्गा कर रही हैं
लेकिन दुर्गा छाया के माफिक कर रही हैं
छाया हैं
दुर्गा नहीं कर रही हैं
हमारे गुरूजी जैसे उदहारण देते हैं, यह हाथ है
यह हाथ को हिला रहे हैं उसको उधर में
उसकी प्रतिछवि भी हिल रही है
जिसने हाथ देखा नहीं वो देखेगा प्रतिछवि हिल रही है
असल में हाथ हिल रहा है
उसी प्रकार
जब जड़ा शक्ति जो उसकी कोई क्रिया नहीं है
उसके पिछे में गोविन्द हैं
गोविन्द की चिद् शक्ति हैं
चिद् शक्ति की छाया होती है माया शक्ति
वो माया से दुर्गा ब्रह्माण्ड भांडोदरी हैं
लेकिन वही
ब्रह्म, ब्रह्म जो हैं, भगवान हैं उनसे उनको शक्ति मिली
जब तक ‘सः इक्षत एकोऽहं बहुस्यामी’
भगवान देख रहे हैं
प्रकृति को देख रहे हैं
सृष्टि नहीं होगी, ‘एकोऽहं बहुस्यामी’ बहु हो जाएँगे
तब वहाँ पर चेतन शक्ति
प्रदान करते हैं
क्षुब्ध हो जाती हैं तब सृष्टि होती है
सृष्टि ऐसी जड़ा शक्ति से नहीं होती है
इसी प्रकार वही भगवान
भगवान की चिद् शक्ति की छाया रूप से वो करते हैं
ब्रह्मसंहितोक्ते च
छायातुल्यमायाकार्येण विश्वेन
उक्ताय ज्ञापिताय कार्येण कारणानुमानादिति भावः।
इसलिए
कुम्भकारशक्त्या जनितेन घटेन
ऐसे जैसे घट है
अभी घट होने से तो घट कौन बनाया?
घट का उपादान कारण होता है मृत्तिका
और दंड चक्र निम्मित कारण
जब तक
वो कुम्भार नहीं आते हैं, कुम्भार बोलते हैं ना
कुम्भार नहीं आते हैं तब तक घट बनता नहीं, वो तो देगा
इसलिए यह जो
जगत दिखता है इसका कोई सृष्टि-कर्ता हैं
उससे यह देखने से मालुम होता है
उसी प्रकार कुम्भकारशक्त्या जनितेन घटेन यथा
कुम्भकार की शक्ति से वो हुआ
मूल कारण वही है
और ‘असत्’ का दूसरा अर्थ भी किया यहाँ
असत्यछाययाक्तोयेति पाठे असति असधौ जने अच्छायया
जो असाधु है उसको छाया नहीं देते हैं
उनको कष्ट मिलता है
स्वचरण, अपने पादपद्म की छाया प्रदान नहीं करते हैं
जो साधु हैं उनको मिलता है
असाधु को नहीं मिलता है ऐसा है

‘छाया सूर्यप्रिया कान्तिः प्रतिबिम्बमनातप’ इत्यमरः
यद्वा। अच्छाया अकान्तिरस्फूर्तिरीति यावत्तद्युक्ताय
सत्सु साधुषु आभासः स्फुर्तिर्यस्य तस्मै।