इस जगत में कोई बद्धजीव निश्चित रूप से यह नहीं कह सकता कि वह सांसारिक कामनाओं से पूर्ण रूप से मुक्त है। जीव को निष्कपट भाव से भगवान श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करनी होगी, जो उसे माया से उद्धार कर सकते हैं।
श्रीश्रीगुरुगौरांग-राधाकृष्ण से प्रार्थना करता हूँ, वे श्रीकृष्ण एवं व कृष्ण-भक्तों के सेवाभिलाषी निष्कपट जीवों पर कृपा करें।
आपका पत्र मुझे श्रीनवद्वीप धाम परिक्रमा के समय श्रीमायापुर, ईशोद्यान में प्राप्त हुआ। साथ ही बंगाली में लिखा आपकी माताजी का एक स्नेहमयी पत्र भी प्राप्त हुआ। मैंने अपने पत्र में उन्हें अपनी सभी परिस्थितियों के साथ-साथ वर्ष 2006 के अगस्त महीने में अपने स्वास्थ्य की गंभीर स्थिति के विषय में भी संक्षेप में लिखा है। श्रीकृष्ण की इच्छा से मुझे पुनर्जीवन मिला है।
जन्म, आयु व मृत्यु भगवान् द्वारा नियंत्रित होते हैं। भगवान् की इच्छा को स्वीकार करना ही आनन्द प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है। बद्ध जीव में अनेकों कामनाएँ होती हैं, जिनकी पूर्ति नहीं होने से वे अशांत हो जाते हैं। आपका पत्र पढ़ने से मुझे हमारे परम आराध्यतम गुरुदेव नित्य-लीला-प्रविष्ट श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज की सारगर्भित शिक्षा स्मरण हो रही है जो उन्होंने मुझे, कलकत्ता, हाज़रा रोड़, गौड़ीय मठ में मेरे उनसे साक्षात्कार के समय दी थी। परम करुणामय श्रीचैतन्य महाप्रभु की कृपा से मुझे अपने जन्म-स्थान ग्वालपाड़ा, असम में, श्रीकृष्ण की कृपा-मूर्ति श्रील गुरुदेव का सानिध्य प्राप्त हुआ। यहाँ पर मैं उनसे किए गए अपने प्रश्नों व पत्र-व्यवहार के विषय में विस्तार करना नहीं चाहता हूँ। मैंने गृह-त्याग करने का संकल्प किया व श्रील गुरुदेव से हाज़रा रोड़, कलकत्ता मठ में भेंट की।
मैंने उनसे निवेदन करते हुए कहा कि मैं क्षणभंगुर सांसारिक सम्बन्धों के प्रति अत्यधिक उदासीन हो गया हूँ। अपने हृदयगत भावों को व्यक्त करते हुए मैंने श्रील गुरुदेव से कहा, “यद्यपि मैं सांसारिक सम्बन्धों के प्रति उदासीन हूँ, मुझमें इन्द्रिय-भोग करने की प्रवृत्ति भी है। क्या ऐसी स्थिति में मेरे लिए गृह-त्याग करना उचित होगा?”
गुरुदेव ने उत्तर देते हुए कहा, “इस जगत में कोई बद्धजीव निश्चित रूप से यह नहीं कह सकता कि वह सांसारिक कामनाओं से पूर्ण रूप से मुक्त है। जीव को निष्कपट भाव से भगवान श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करनी होगी, जो उसे माया से उद्धार कर सकते हैं।” गुरुदेव ने मेरे लिए गृह-त्याग कर मठवास करने की अपनी तीव्र इच्छा व्यक्त की। उसके बाद मैंने, परिवार के सदस्यों की अनुमति लिए बिना ही, मठवासी होने का का निर्णय लिया।
इसी सन्दर्भ में मैंने गुरुदेव को श्रीमद् भगवद् गीता से प्रमाण देते हुए भी श्रवण किया है: अर्जुन ने श्रीकृष्ण से प्रश्न किया, चञ्चलं हि मन: कृष्ण—”मेरा मन अत्यंत चञ्चल है। मेरे जैसे बद्धजीव के लिए अपने चञ्चल मन को निग्रह करना वायु के प्रवाह को वश में करने के समान असंभव प्रतीत होता है।”
श्रीकृष्ण इसके उत्तर में कहते हैं, “यह सत्य है कि मन को वश में करना दुष्कर है किन्तु असम्भव नहीं है। तुम अति शक्तिशाली हो। अभ्यास-योग (निरन्तर अभ्यास) और वैराग्य (अनासक्ति) के द्वारा मन को वश में कर सकते हो।”
वैराग्य के दो मुख्य प्रकार हैं—(1) संसार की अनित्य वस्तुओं में अनासक्ति (2) भगवान श्रीकृष्ण के प्रति आसक्ति। जितनी हमारी श्रीकृष्ण में आसक्ति होगी, अनित्य वस्तुओं में उसी परिमाण में हमारा वैराग्य स्वतः ही उदित होगा।
काल के विषय में समझने के लिए हमें भारत के प्रामाणिक शास्त्रों में इस विषय पर दी गई शिक्षाओं पर ध्यान देना होगा। दो प्रकार के आकाश हैं—जड़ाकाश व चिन्मय आकाश। जड़ाकाश में काल की तीन अवस्थाएँ होती हैं—भूत, वर्तमान और भविष्य। किन्तु अप्राकृत चिन्मय आकाश में भूत या भविष्य नहीं है; सर्वदा वर्तमान है।
जब तक हम जड़ अहंकार (स्थूल अभिमान) से आबद्ध हैं, त्रिगुणात्मिका मायाशक्ति के आवरण के कारण, मायागत जड़ीय काल (भूत, वर्तमान और भविष्य) के वशीभूत रहते हैं (रजो गुण द्वारा जीव की उत्पत्ति, सत्त्वगुण द्वारा पालन व तमोगुण द्वारा लय होता है)।
मायिक जगत में स्थूलाभिमान के साथ उच्चारित किए गए शब्द ‘जड़ीय शब्द’ हैं जिनके द्वारा हम अनित्य वस्तुओं व प्रापंचिक सम्बन्धों का संसर्ग प्राप्त करते हैं जो हमारे बंधन एवं त्रिताप भोग करने का कारण बनता है। त्रिताप – (1) आध्यात्मिक ताप (शारीरिक और मानसिक ताप) (2) आधिभौतिक ताप (अन्य जीवों के कारण मिलने वाले कष्ट, वर्तमान में तो स्वयं मनुष्यों द्वारा ही भयानक यातनाएँ दी जा रही हैं) और (3) आधिदैविक ताप (प्राकृतिक विपदाएँ)।
शुद्ध-भक्त द्वारा उच्चारित अप्राकृत शब्द चिन्मय शब्द हैं जो हमारा संस्पर्श नित्य-आनंदमय वस्तु, भगवान श्रीकृष्ण व उनके भक्तों से कराते हैं। यदि हम जागतिक व्यक्तियों का संग करेंगे तो जड़ीय शब्द ही श्रवण करेंगे व हमारा मन संसार की अनित्य वस्तुओं में आसक्त होगा। इसके विपरीत यदि हम शुद्ध भक्तों के संग में, चिन्मय भाव युक्त शब्द ब्रह्म के संपर्क में रहेंगे तो इससे हमारी नित्य-वृत्ति, शुद्ध सनातन भगवद्-भक्ति जागृत होगी।
स्वकर्म फल भुक् पूमान्—मनुष्य अपने स्वयं के किए हुए कर्मों का फल भोग करता है। गीता में कहा गया है, ‘कर्मण्य वाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन्’—प्रत्येक चेतन-सत्ता (जीव) को सीमित स्वतंत्रता (इच्छा, क्रिया, अनुभूति) दी गई है। सीमित स्वतंत्रता के सद् या असद् व्यवहार के द्वारा जीव अच्छे या बुरे कर्म करता है। कर्मफल के नियंता भगवान स्वयं हैं। जब हम अपने दुःख के लिए अन्य किसी को दोष देते हैं तो हिमालय-सम महत् भूल करते हैं।
मैंने आपकी माताजी को बंगाली भाषा में भेजे पत्र में लिखा है कि साधु संग—एक शुद्ध भक्त का संग अति आवश्यक है,-
ततो दु:सङ्गमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान्।
सन्त एवास्य छिन्दन्ति मनोव्यासङ्गमुक्तिभि:॥
(श्रीमद् भागवत् 11.26.26)
यथार्थ मंगल लाभ करने के लिए आपको श्रीमद् भागवत् के सातवें स्कंध में प्रह्लाद महाराज द्वारा वर्णित नवधा भक्ति अथवा श्रीचैतन्य महाप्रभु की शिक्षा के अनुसार साधु-संग, नाम-कीर्तन, भागवत्-श्रवण, मथुरा-वास व श्रद्धा से श्रीमूर्ति-सेवन आदि भक्ति के पांच मुख्य अंगों का यथावत् पालन करना होगा। भक्ति के इन सभी अंगों में से कलियुग के जीव के लिए नामसंकीर्तन सर्वश्रेष्ठ है।
मिलने पर इस विषय पर और विचार करेंगे। आपको मेरा स्नेह। परम करुणामयी श्री गुरु-गौरांग-राधा-कृष्ण आप पर कृपा करें।