[कोलकाता स्थित मठ में श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी के उपलक्ष्य में आयोजित धर्म सभा में श्रील गुरुदेव जी की उपदेशवाणी का सारमर्म]
श्रीकृष्ण की आराधना का वैशिष्ट्य समझने के लिये अच्छी तरह से ये जानना आवश्यक है कि श्रीकृष्ण कौन हैं, उनका स्वरूप क्या है? उनके व्यक्तित्व के ऊपर उनकी आराधना का वैशिष्ट्य निर्भर करता है। ‘कृष्ण’ शब्द का मूल अर्थ शास्त्र में लिखा है-
‘कृषिर्भूवाचकः शब्दो णश्च निवृत्तिवाचकः।
तयोरैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते।।’
(महाभारत, उद्योग-पर्व 71/4)
‘कृष्’ धातु – भू अर्थात् सत्ता वाचक है; ‘ण’ – शब्द निवृत्ति अर्थात् परमानन्द वाचक है। ‘कृष्’-धातु में ‘ण’–प्रत्यय युक्त करके ‘कृष्ण’ शब्द में परमब्रह्म प्रतिपादित हुआ है। ‘कृष्ण’ शब्द से आनन्दमयी सत्ता को समझना चाहिए।
वेदान्त में इसे ‘आनन्दं ब्रह्म’ (तै. उ.) कहते हैं, अर्थात् ब्रह्म आनन्दमय है, परन्तु कृष्ण में वह आनन्द प्रचुर मात्रा में है, अर्थात् कृष्ण का आनन्द असीम है, जो कि ब्रह्मानन्द का भी आधार है। दूसरी ओर भगवान् रस स्वरूप हैं, सुख स्वरूप एवं आनन्द स्वरूप हैं , प्रमाण:
रसो वै सः।
रसं ह्ओवायं? लब्ध्वानन्दी भवति ।।
(तैत्तिरीय उपनिषद् 2/7)
वे (परम पुरुष कृष्ण) रस स्वरूप हैं। उस रस (आनन्द) का जो पान करते हैं, वे ‘आनन्दी’ होते हैं। उपनिषद् में ‘सः’ शब्द के द्वारा ‘कृष्ण’ को ही इंगित किया गया है।
‘कृष्ण’ शब्द के अन्य अर्थ हैं – ‘कृष्’- आकर्षक सत्तावाचक, ‘ण’ आनन्दवाचक (अर्थात् ‘कृष्’ का अर्थ होता है आकर्षण और ‘ण’ का अर्थ आनन्द) – जो आकर्षण करके आनन्द देते हैं और स्वयं आनन्दित होते हैं, वे ही ‘कृष्ण’ हैं। अर्थात् कृष्ण का अर्थ है – सर्वाकर्षक, सर्वानन्ददायक। प्रत्येक विषय में सर्वोत्तम नहीं होने से वे सर्वाकर्षक नहीं हो सकते।
कृष्ण अणु से भी अणु परमात्मा और विभु से भी विभु ब्रह्म हैं एवं अनुत्व और विभुत्व को समाहित कर मध्यम स्वरूप से विचित्र प्रकार की अनन्य लीला करने वाले हैं।
‘वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज् ज्ञानमद्वयम्।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते।।’
(श्रीमद्भा. 1-2-11)
‘तत्’ अर्थात् अतीन्द्रिय वस्तु के भाव को तत्त्व कहते हैं। अद्वय ज्ञान को ‘ब्रह्म’, ‘परमात्मा’ और ‘भगवान्’ – इन तीन शब्दों के द्वारा कहा जाता है।
तत्त्व को जानने वाले उसी अखण्ड ज्ञान या अद्वय ज्ञान (absolute knowledge or infinte knowledge) को ‘तत्त्व’ कहते हैं। वहाँ अद्वय ज्ञान को ‘ब्रह्म’ शब्द द्वारा, ‘परमात्मा’ शब्द द्वारा एवं ‘भगवान्’ शब्द से सम्बोधित किया जाता है। ‘ब्रह्म’ शब्द से ‘वृहत्व’ अर्थात् बड़ा ही नहीं बड़े से भी बड़ा (greatest of the greatest), परमात्मा शब्द से ‘अणुत्व’ अर्थात् छोटा ही नहीं छोटे से भी छोटा व भगवान् से उनका ‘सर्वैश्वर्यमयत्व’ निर्देश होता है :- अर्थात् उनमें वृहत्व, अणुत्व, मध्यत्व व सर्वत्व सभी विद्यमान हैं। ‘भगवान्’ शब्द परतत्त्व के सभी प्रकार के भावों को प्रकाशित करता है। ज्ञानी अद्वयज्ञान तत्त्व को ब्रह्म (व्यक्तित्व रहित अखण्ड ज्ञान/Absolute knowledge without personality) रूप से, योगी परमात्मा रूप से एवं भक्त भगवान् रूप से अनुभव करते हैं। भगवान् अनन्त रूपों से जो अनन्त लीलायें करते हैं उनमें से श्री कृष्ण स्वयं रूप हैं।
“एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे।।”
(श्रीमद्भा.1/3/28)
श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास जी मत्स्य, कूर्म, राम, नृसिंहादि अवतारों के विषय में बोलने के पश्चात् कह रहे हैं कि ये कोई पुरुषोत्तम भगवान् श्रीहरि में अंशावतार, कोई कलावतार और कोई शक्त्यावेश अवतार हैं। प्रत्येक युग में जब भी जगत् असुरों से पीड़ित होता है, तब असुरों के उपद्रव से जगत् की रक्षा करने के लिए ये अवतार हुआ करते हैं। किन्तु, व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण तो साक्षात् स्वयं-भगवान् (अवतारी) हैं।
श्री कृष्ण समस्त अवतारों के कारण-–अवतारीं हैं, स्वयं भगवान् हैं।
“याँर भगवत्ता हैते अन्येर भगवत्ता।
‘स्वयं भगवान्’-शब्देर ताहातेइ सत्ता।।”
(चै.च.आ. 2/88 )
जिनकी भगवत्ता से दूसरे भगवद् अवतारों की भगवत्ता सिद्ध होती है। ‘स्वयं भगवान्’ शब्द की इसी में सत्ता है।
ब्रह्मसंहिता में भी श्री कृष्ण को सर्वकारण कारण परमेश्वर कहा गया है।
“ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रह: ।
अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम्।।”
(ब्रह्मसंहिता 5/1)
सच्चिदानंदविग्रह श्रीगोविन्द कृष्ण ही परमेश्वर हैं। वे अनादि, सबके आदि और समस्त कारणों के कारण हैं।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जी ने भी नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को ही सर्वोत्तम आराध्य रूप से निर्देश किया है। जीव की हर प्रकार की इच्छित वस्तु की सर्वोत्तम परिपूर्ति एक मात्र नन्दनन्दन श्रीकृष्ण की आराधना से ही हो सकती है। किन्तु ये सब बातें हम समझेंगे कैसे? जब तक हमारा (prejudice) स्वार्थ रहेगा, तब तक हम समझ नहीं सकेंगे। भगवद् तत्त्व को समझने के लिये हमें जिस ज्ञान व अधिकार की आवश्यकता है, वह ज्ञान व अधिकार न आने तक सांसारिक बहुत सी योग्यता रहने पर भी हम उसकी (उस भगवद् तत्त्व की) उपलब्धि नहीं कर पायेंगे। अधिकार प्राप्ति के लिये हम किसी भी तरह का साधन करने के लिए तैयार नहीं हैं। दम्भ से उन्हें नहीं जाना जा सकता, कारण, वे unchallengeable truth हैं। उनका न तो कोई कारण है, न कोई उनके समान है, उनसे अधिक होने का तो प्रश्न ही नहीं है। अतः उन भगवान् को जानने के लिये उनकी कृपा के अतिरिक्त किसी अन्य उपाय को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसलिये यदि भगवद्-तत्त्व की उपलब्धि करनी है तो प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा-वृति लेकर तत्त्वदर्शी ज्ञानी गुरु के पास जाना होगा। श्रीमद् भगवद् गीता में भी ऐसा ही निर्देश दिया है:-
“तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्व दर्शिनः।।”
(श्रीगी. – 4/34)
“तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की विधि बताते हुए कह रहे हैं – अर्जुन! ज्ञान का उपदेश करने वाले गुरु के पास जाकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम करके जिज्ञासा करो, हे भगवन्! मैं संसार में क्यों फंसा हुआ हूँ? इससे किस प्रकार छुटकारा मिलेगा? इस प्रकार परिप्रश्न (युक्तिसंगत प्रश्न) करने के पश्चात् सेवा पूजा के द्वारा उन्हें प्रसन्न करो।”
Footnote: श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु: श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु त्रिकाल सत्य, पुराण पुरुष हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु सन् 1486 में श्रीनवद्वीप क्षेत्र के अंतर्गत श्रीधाम मायापुर में अवतरित हुए। श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को परमतम् तत्त्व एवं उनके साथ जीव की भेदाभेद सम्बन्ध की बात बताई है। श्रीमन्महाप्रभु जी के अनुसार कलियुग में कृष्ण-प्रीति प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन है, श्रीकृष्ण नाम–संकीर्त्तन। जगत् के जीवों को श्रीकृष्ण–भक्ति की शिक्षा देने के लिए स्वयं श्रीकृष्ण ही श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में प्रकट हुए। श्रीभागवत पुराण में, भविष्य पुराण में, महाभारत में, मुण्डकादि उपनिषदों में इस सम्बन्ध में बहुत प्रमाण होने से यह बात सिद्ध होती है।
{भगवान् की आराधना करने के लिये भगवद्-तत्त्व को समझने की जरुरत है।}