जिस मार्ग में कृष्ण-सेवा की चर्चा नहीं उसे अभक्ति-मार्ग कहते हैं। श्रीकृष्ण की उत्तम सेवा में कृष्ण के अतिरिक्त अन्यवस्तु की अभिलाषा, कर्म, ज्ञान तथा शिथिलता का आवरण नहीं। उसमें कृष्ण का अनुकूल अनुशीलन होता है। अनेक लोग भक्त होनेकी अभिलाषा करते हुए भी अभक्ति के मार्ग का आश्रय ग्रहण किया करते हैं। जो कृष्ण-भक्ति के स्वरूप की उपलव्धि करते हैं और एकमात्र उसे ही जीवों की वृक्ति समझते हैं, वे ही भक्ति पथ के पथिक हैं। जिन्होंने अपनी प्रतिभा या अनभिज्ञता के ऊपर निर्भर रह कर भक्ति की संज्ञा स्वयं ही निर्धारित की है, उनकी इस हठकारिता से बहुधा भक्ति के स्वरूप का विपर्यय हो जाता है। कतिपय व्यक्तियों ने अपने को भक्त समझकर भक्ति के नाम पर निज कल्पित वृत्ति का ही प्रचार किया है, किन्तु गौर-सुन्दर ने कलिह्त दुर्बल जीवों के कल्याणार्थ भक्ति की जो संज्ञा निर्धारित की है, वही यथार्थ भक्ति है और श्रीरूप गोस्वामी ने उसीका श्रवण और कीर्तन किया है।