[सन् 1968 में कृष्णनगर मठ में वार्षिक उत्सव के उपलक्ष्य में टाऊन हाल में अनुष्ठित दूसरे अधिवेशन में श्रील गुरुदेव जी का अभिभाषण]
वस्तु की महिमा न जानने तक उसके प्रति मनुष्य की रूचि और आग्रह जाग्रत नहीं होता और न ही वह उससे उचित व्यवहार ही कर सकता है। हज़ार रुपये अथवा सौ रुपये के नोट की महिमा से अनजान शिशु की उसके प्रति यथोचित रूचि, आग्रह या व्यवहार देखा नहीं जाता। इसमें भी कोई दो राय नहीं की वह उस पर विष्ठा कर देगा या पेशाब कर देगा अथवा उसको फाड़ डालेगा; इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। किन्तु वही बालक कुछ बड़ा होने पर जब उस रुपये की महिमा धीरे-धीरे जान लेता है तब उसका उस रुपये के प्रति आग्रह, रूचि देखी जाती है तथा तब उसे रुपये को मर्यादा देनी भी आ जाती है, तब वह पैसों को भी यत्न के साथ रखता है। उसी प्रकार श्रीभगवद् तत्व और महिमा समझ न आने तक जीव की श्रीभगवद्-भजन में रूचि नहीं देखी जाती और न ही उसका भजन में आग्रह देखने को मिलता है। यहाँ तक कि श्रीभगवान् के प्रति यथोचित व्यवहार भी उसके लिए संभव नहीं होता। मूढ़तावशः वह भगवान् का अनादर करता है, अनेक बार तो उनसे विद्वेष का भी आचरण करता है। किन्तु भगवद्भजन परायण वास्तविक साधु के संग से जब वह भगवान् और भगवद्-भजन की महिमा समझ लेता है, तब वह धीरे-धीरे उस विषय में ध्यान देता है। यहाँ तक देखा जाता है कि जिन समस्त सामाजिक कार्यों और वस्तुओं का उसने पहले जीवन में बहुत सम्मान किया था उन्हें वह परित्याग करके, एकान्त भाव से श्रीहरिभजन में जीवन समर्पण करने के लिए सोचता है और ऐसा करने में उसे बिंदु मात्र भी दुविधा नहीं होती। इसलिए वस्तु की महिमा जानने के ऊपर ही मनुष्य का उसके लिए आग्रह और रूचि होना निर्भर करता है।
मनुष्य की समस्त चेष्टाओं का मूल उद्देश्य दुःख दूर करना और सुख प्राप्त करना है। किन्तु सुख की प्रतीति वाली चीज़ो का अनुशीलन करने से वास्तविक सुख की प्राप्ति सम्भव नहीं है। जैसे जल के मन्थनरूप अनुशीलन द्वारा कभी भी मक्खन नहीं मिल सकता, कारण मक्खन की सत्ता जल में है ही नहीं; वैसे ही सच्चिदानन्दमय श्रीभगवान् की अभावमय प्रतीति से व त्रिगुणात्मक माया के अनुशीलन के द्वारा जीवों को कभी भी वास्तविक नित्यत्व की, वास्तविक ज्ञान की या आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती I अभाव के अनुशीलन द्वारा अभाव ही प्राप्त होता है, इसलिए भगवद्-विमुख मनुष्य के द्वारा प्रयोजन के विपरीत वस्तु के अनुशीलन से उसकी समस्या का समाधान कभी भी सम्भव नहीं होगा। अन्धकार के अनुशीलन द्वारा अन्धकार को पीटने से या अन्धकार में रहकर विविध प्रकार की चेष्टाओं के द्वारा अन्धकार दूर नहीं होता। रोशनी के आने से ही अन्धकार अनायास ही व साथ ही साथ खत्म हो जाता है और तब अन्धेरे से मिलने वाली सारी असुविधाओं या समस्याओं का अन्त भी अपने आप हो जाता है। ठीक इसी प्रकार त्रिगुणात्मक अज्ञान में ही उलझे रहने से ही व अज्ञान का ही अनुशीलन करते रहने से, अज्ञान कभी भी दूर नहीं होगा, किन्तु अखण्ड ज्ञानमय तत्त्व-भगवान् श्रीहरि के प्राकट्य के साथ-साथ ही समस्त ज्ञान अन्तर्हित हो जायेगा तथा तब अज्ञान से होने वाली कोई भी समस्या नहीं रहेगी। अखण्ड सच्चिदामयतत्त्व, श्रीहरि का आविर्भाव न होने के कारण ही असंख्य समस्याएँ उत्पन्न हो गयी है। जब जीव अपनी इस असुविधा का कारण भली-भाँति जान लेगा, तब वह श्रीभगवद्-सान्निध्य लाभ करने के लिए, ह्रदय में उनके अविर्भाव के अनुभव के लिये उचित चेष्टा करेगा। उन स्वतः सिद्ध, आन्नदमय-भगवद्तत्त्व का आविर्भाव, शरणागत के ह्रदय में ही होता है। शरणागत होने से ही गीता में श्रीकृष्ण का चरमोपदेश मनुष्य की उपलब्धि का विषय होगा और तभी वह कर्म, ज्ञान, योगादि समस्त प्रेचेष्टाओं का परित्याग करके श्रीकृष्ण में सर्वतोभाव से शरणागत होगा।
‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।’
(श्री.गी.- 18/66)
(श्रीकृष्ण अर्जुन को गुह्यतम ज्ञान का उपदेश करते हैं -) हे अर्जुन! तुम लोकधर्म, वेदधर्म आदि समस्त नैमित्तिक धर्मों का परित्याग कर एकमात्र मेरी (भगवान् कृष्ण की) शरण में आ जाओ। मैं तुम्हें धर्म-त्याग से उत्पन्न सारे पापों से मुक्त कर दूंगा, शोक मत करो।
शरणागति में गीता की शिक्षा के परिसमाप्ति है। शरणागत होने के बाद शरण्य श्रीभगवान् की प्रीति के अनुसार अनुशीलन-प्रचेष्टा को भक्ति कहते हैं। भक्ति की उन्नत, उन्नतर, उन्नतम चरमोत्कर्षता की बात, श्रीकृष्णदैव्पायन वेदव्यास मुनि ने श्रीमद्भागवत में वर्णन की है। गीता जहाँ शेष होती है, श्रीमद्भागवत का वहीं आरम्भ है। शरणागति का चरम आदर्श श्रीमद्भागवत में गोपियों के चरित्र में लक्षित होता है क्योंकि श्रीकृष्ण की प्रीति के लिये उनका अकरणीय कुछ भी नहीं है।
श्रीभगवद्-भजन की महिमा जानने के लिये शुद्ध भक्त का संग और शुद्ध भक्त के मुख से भक्तिशास्त्र सुनना कर्तव्य है। नित्यप्रति शास्त्र श्रवण द्वारा चित्त मार्जित होता है। किसी के द्वारा साक्षात् रूप से कोई भी दोष या त्रुटि दिखाने पर अनेक बार हमारे अभिमान में आघात लगता है और हमारा चित्त क्षुब्ध हो जाता है, किन्तु शास्त्र किसी पर व्यक्तिगत रूप से आक्रमण नहीं करता। इसलिए अभिमानी व्यक्ति उसे सुनकर स्वयं की प्रवत्तियों के दर्शन का सुयोग प्राप्त करने तथा उनको परित्याग करने में यत्नवान होता है। यही कारण है कि मठ में दो बार, कहीं-कहीं तो तीन बार नित्यप्रति श्रीहरि कथा के श्रवण-कीर्त्तन की व्यवस्था है। दूसरे-दूसरे मतलबों को छोड़कर श्रीभगवत् प्रीति के उद्देश्य से श्रीभगवान् की कथा श्रवण-कीर्त्तन के समान शीघ्र मंगल प्रीति का साधन और कुछ भी नहीं हो सकता।