Harikatha

अनर्थ

अनर्थ चार प्रकार के होते हैं –  I. स्वरूप की अप्राप्ति, II. असत्-तृष्णा, III. अपराध, IV. ह्रदय-दौर्बल्य। I. “मैं शुद्ध चित्-कण, कृष्णदास हूँ” – इसे भूलकर जीव अपने स्व-स्वरूप से बहुत दूर हो गया है, स्व-स्वरूप की अप्राप्ति ही जीव का प्रथम अनर्थ है। II. जड़-पदार्थों में ‘मैं’ और ‘मेरा’ की बुद्धि करने से जो असत्-विषय-सुखों की तृष्णा होती है, उसे असत्-तृष्णा कहते हैं। पुत्र की कामना, धन की कामना और स्वर्ग की कामना-यह तीन प्रकार की असत्-तृष्णा होती है। III. पद्मपुराण में दस प्रकार के नामापराधों का वर्णन है। 1. भगवान के भक्तों की निन्दा (साधु निन्दा) 2. शिवादि अन्य देवताओं को भगवान से स्वतन्त्र समझना। 3. हरिनाम के तत्त्व को जानने वाले सदगुरु की निन्दा करना। 4. शास्त्रों की निन्दा करना। 5. नाम में अर्थवाद करना अथवा हरिनाम की महिमा को काल्पनिक समझना और ये मानना कि शास्त्रों में हरिनाम की महिमा को व उसके फल को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया है। 6. हरिनाम के बल पर पाप करना। 7. अश्रद्धालु व्यक्ति को कृष्ण-नाम का उपदेश देना। 8. अन्य शुभकर्मों को हरिनाम के बराबर कहना घोर अपराध है। 9. दूसरी तरफ ध्यान रखकर हरिनाम करने को हमारे पुराणकर्त्ता ‘प्रमाद’ कहते हैं। 10. हरिनाम की महिमा को जानते हुये भी हरिनाम में रूचि न होना तथा ‘मैं’ और ‘मेरा’ की आसक्ति से संसार में लिप्त रहना। IV. ह्रदय-दौर्बल्य से शोक आदि पैदा होते हैं। ये चार प्रकार के अनर्थ अविद्या द्वारा बंधे हुए जीवों के नैसर्गिक फल हैं। सत्संग में शुद्ध कृष्णानुशीलन करने से सब अनर्थ कर्मशः दूर हो जाते हैं। योग आदि दूसरे-दूसरे मार्गों में प्रत्याहार, यम, नियम, वैराग्य आदि साधन-चतुष्टयों की जो व्यवस्था है वह उद्वेगरहित होने का उपाय नहीं है, उसमे पतन की बहुत ही आशंका होती है और उससे चरम में कल्याण होने अत्यंत कठिन होता है। उद्वेगरहित होने का एकमात्र उपाय है-सत्संग में कृष्ण का शुद्ध रूप से अनुशीलन होना। अनर्थ जितने अधिक दूर होते हैं, मायिक दशा उतनी ही अधिक तिरोहित होती है और मायिक दशा जिस परिमाण में तिरोहित होती है, जीव का स्व-स्वरूप उसी परिमाण में उदित होता है।