श्रील लोचनदास ठाकुर सन् 1527 ई॰ में वर्द्धमान जिले के कटोचा महकुमा रेल्वे स्टेशन से पाँच कोस उत्तर की तरफ ‘को’ नामक गाँव में वैद्यवंश में आविर्भूत हुए थे। किसी-किसी के मतानुसार पौषमास की शुक्लप्रतिपदा तिथि को इनका आविर्भाव हुआ था। इनके पिता का नाम श्री कमलाकर दास और माता जी का नाम था श्रीमती सदानन्दी। श्री लोचनदास ठाकुर के श्रीपाट के पास ही अजय नदी बहती है। माता-पिता की एकमात्र संतान होने के कारण ये उनके अत्यन्त स्नेह के पत्र थे। ये नानी जी के घर में रहकर अध्ययन किया करते थे। उस समय की सामाजिक प्रथा के अनुसार छोटी आयु में ही श्री लोचनदास ठाकुर का विवाह हो गया था। आमेदपुर के काकुट ग्राम में इनका ससुराल था। गृहस्थ आश्रम में होने पर भी आप विषयों से विरक्त थे। हमेशा गौर भक्तों के साथ कृष्ण कथा कहने-सुनने में ही समय बिताना आप अच्छा समझते थे। शैशव काल से ही आपके चरित्र में गौर महाप्रभु जी के प्रति अद्भुत अनुरक्ति (प्रेम) देखी जाती थी।
श्रीलोचन दास ठाकुर जी के सम्बन्धमें एक अलौकिक घटना सुनी जाती है जो इस प्रकार है ‒ बचपन में विवाह हो जाने के कारण श्री लोचनदास जी की स्त्री अपने माता-पिता जी के पास रहती थी। कन्या बड़ी हो जाने के कारण एवं श्री लोचन दास जी के वैराग्य की बात सुनकर कन्या के भविष्य के विषय में सोच कन्या के माता-पिता बैचैन हो उठे। कन्या के माता-पिता ने लोचनदास जी के गुरु जी के पास आकर सब निवेदन किया। श्रील नरहरि सरकार ठाकुर जी के आदेशानुसार श्रील लोचनदास ससुराल जाने को मजबूर हो गए। लम्बे समय से ससुराल न जाने के कारण घर न पहचान पाने पर इन्होंने गाँव की एक वयस्क महिला को ‘माँ’ सम्बोधन कर घर के बारे में पूछा। बाद में ससुराल पहुँच कर मालूम हुआ कि जिसको उन्होंने‘माँ’ सम्बोधन किया था, वही उनकी स्त्री है। तभी से श्री लोचन दास ठाकुर जी ने अपनी स्त्री को ‘स्त्री’ रूप से न देखकर ‘जननी’ रूप से मानते हुए वैराग्य के साथ जीवन के अंतिम दिनों को श्री गुरु और गौरांग जी के भजन परायण रहकर गुज़ारा।
श्रीखण्ड के प्रसिद्ध गौरपार्षद श्रील नरहरि सरकार ठाकुर जी ने श्री लोचनदास जी के प्रति स्नेहाविष्ट होकर उन्हेंदीक्षा प्रदान कर उन्हें अपने शिष्य के रूप में ग्रहण किया था। श्री लोचनदास ठाकुर जी भी श्रीखण्ड में गुरुदेव जी के पादपद्मोंमें अवस्थान करते हुए परमोत्साह के साथ गुरुदेव जी की सेवा करने लगे । गुरुदेव जी ने उन्हें कीर्तन के विषय में शिक्षा दी और श्री गौरांग महाप्रभु जी का पावन जीवन चरित्र लिखने के लिए आदेश दिया। श्रील गुरुदेव जी की आज्ञा को शिरोधार्य करके इन्होंने‘श्री चैतन्यमंगल’ नामक ग्रन्थ लिखा। श्रीचैतन्य महाप्रभु के चरित्र को श्रवण करने से सर्वोत्तम मंगल की प्राप्ति होती है, इसीलिए ग्रन्थ का नामकरण हुआ ‘श्रीचैतन्यमंगल’। श्री वृन्दावनदास ठाकुर जी द्वारा रचित ग्रन्थ का नाम भी पहले ‘श्रीचैतन्यमंगल’ ही था जो की बाद में परिवर्तित होकर ’श्रीचैतन्य भागवत’ हुआ। श्री लोचन दास जी की वन्दना में इसका संकेत मिलता है। “वृन्दावनदास वन्दिवे एकचित्ते। जगत मोहित याँर भागवतगीते॥” (चैतन्यमंगल सूत्र खण्ड)
कोई-कोई ऐसा भी सोचते हैं कि श्री लोचनदास ठाकुर और श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी जी ने वृन्दावन दास रचित ग्रन्थ का नामकरण ‘श्रीचैतन्य भागवत’ किया था। श्रीचैतन्य मंगल ग्रन्थ के प्रारम्भ में सूत्र खण्ड में श्री नरहरि सरकार ठाकुर से कृपा प्रार्थना इस प्रकार की गयी है ‒
“ठाकुर श्री नरहरि , दास प्राण अधिकारी
याँर पदप्रति आसे आश अधमेह साध करे,
गौरागुण गाहिवारे से भरसा ए लोचन दास ॥”
“ताहाँ बिनु नाहि मोर तिन लोक बन्धु ।
नरहरि दाँस वन्दों गौर-गुण-सिन्धु॥”
“आमार ठाकुर प्रभु नरहरि दास ।
प्रणति-विनति करों पुर’ मोर आश ॥”
पूर्व बंगाल के पाँचाली छन्द के अनुकरण में श्रील लोचनदास ठाकुर जी ने ‘श्रीचैतन्यमंगल’ लिखा है। नवीन बंगला शब्दकोश में श्रीलोचन दास ठाकुर जी का बंगला तथ्य, भाषा के साहित्य की रचना एवं मात्रावृत्त छन्द के प्रवर्त्तक के रूप में उल्लेख किया गया है।‘श्रीचैतन्यमंगल’ग्रन्थ सन् 1537 ई॰ में लिखा गया था। ऐसा कहा जाता है कि श्री लोचनदास ठाकुर जी ने अपने घर में फूल के वृक्ष के नीचे एक पत्थर के ऊपर बैठकर “चैतन्यमंगल’नामक ग्रन्थ लिखा था। श्री मुरारीगुप्त जी द्वारा रचित “श्रीचैतन्य चरित’की सहायता से श्री लोचनदास ठाकुर जी ने ‘चैतन्यमंगल’ग्रन्थ की रचना की थी । श्रीलोचनदास ठाकुर जी द्वारा रचित अन्य-अन्य ग्रन्थों में से उल्लेखनीय हैं –‘प्रार्थना’,‘दुर्लभसार’,‘पदावली’ (धामाली),‘जगन्नाथ-बल्लभ-नाटक’तथा ‘रासपंचाध्यायी का पद्यानुवाद’। ऐसा भी सुना जाता है कि गुस्करा रेल्वे स्टेशन के पास कांदड़ा ग्राम में श्री प्राणकृष्ण चक्रवर्ती के घर श्री लोचनदास ठाकुर जी का स्वहस्तलिखित ‘चैतन्यमंगल’ग्रन्थ पड़ा है।
श्रील लोचन दास ठाकुर जी ने ‘चैतन्यमंगल’ में अपने गुरुदेव श्री नरहरि सरकार ठाकुर का श्री गौरांग महाप्रभु जी के प्रियतम के रूप में वर्णन किया है। इनके मन में ऐसा विचार आया कि इस ग्रन्थ में श्री नित्यानन्द जी की महिमा पूरी तरह से वर्णन नहीं हो पायी। इस आशंका से कि उनका श्रीनित्यानन्दजी के चरणों में अपराध हो गया है, अपराध के निवारण के लिए उन्होंने परवर्तीकाल में श्रीनित्यानन्द महिमा सूचक कुछ एक गीतियाँ भी लिखीं। वह गीतियाँ भक्तों द्वारा विशेष रूप से समादृत हुई हैं।
(1)
“निताइ गुणमणि आमार निताई गुणमणि।
आनिया प्रेमेर वन्या भासाल अवनी॥
प्रेमेर वन्या लइया निताइ आइला गौड़ देशे।
डुबिल भकतगण दीन-हीन भासे॥
दीनहीन पतित पामर नाहि बाछे।
ब्रह्मार दुर्लभ प्रेम सबाकारे याचे॥
आबद्ध करुणा-सिन्धु निताइ काटिया मोहान।
घरे-घरे बुले प्रेम अमियार वान॥
लोचन बले मोर निताइ येबा ना भजिल।
जानिया शुनिया सेइ आत्मघाती हैल॥”
निताई गुणमणि मेरे हैं, निताई गुणमणि मेरे हैं।इन्होंने कृष्ण-प्रेम की बाढ़ लाकर सारी पृथ्वी को उसमें डुबो दिया।
कृष्ण-प्रेम की बाढ़ लेकर नित्यानन्द प्रभु गौड़ देश में आए, जिस आनंद में सारे भक्त डूब गए तथा दीन-हीन जो थे वे भी उस प्रेम की बाढ़ में बह चले।
जो ‘कृष्ण-प्रेम’ ब्रह्मा जी के लिए भी दुर्लभ है वह ‘प्रेम’ सभी को बांट दिया।इन्होंने दीन हीन या पतित को भी उससे वंचित नहीं रखा।
करुणा सागर नित्यानन्द प्रभु ने उस प्रेम के बाँध को तोड़ दिया जिससे वह कृष्ण प्रेमामृत घर-घर में घुस गया।
लोचनदास जी कहते हैं कि इस प्रकार के दयालु कृपालु जो मेरे नित्यानन्द प्रभु हैं उनका जिसने भजन नहीं किया तो समझना होगा कि जानबूझकर वह आत्म हत्यारा बना।
(2)
“अक्रोध परमानन्द नित्यानन्दराय।
अभिमान शून्य निताई नगरे बेड़ाय॥
अधम पतित जीवेर द्वारे-द्वारे गिया।
हरिनाम महामन्त्र देन बिलाइया॥
यारे देखे तारे कहे दन्ते तृण करि’।
आमारे किनिया लह भज गौरहरि॥
एत बलि नित्यानन्द भूमि गड़ि याय ।
सोनार पर्वत येन धुलाते लोटाय॥
हेन अवतारे यार रति ना जन्मिल।
लोचन बले सेइ पापी एल आर गेल॥”
क्रोध रहित एवं परमानन्द पूर्ण नित्यानन्द प्रभु अभिमान शून्य होकर नगर में भ्रमण कर रहे हैं ।
वे पतित जीवों के द्वार-द्वार पर जाकर हरिनाम महामन्त्रबाँटते फिर रहे हैं ।
वे जिसको भी देखते हैं उससे दाँतों में तिनका लेकर अर्थात्अत्यन्त दीनता से कहते हैं कि आप गौरहरि का भजन करो और मुझे खरीद लो।
इतना कहकर नित्यानन्द प्रभु प्रेमानन्द में विभोर होकर ज़मीन में लोट-पोट होने लगते हैं। तब ऐसा लगता है कि मानो सोने का पर्वत ज़मीन पर लोट-पोट हो रहा हो।
इस प्रकार के अवतार में जिनकी प्रीति उदित नहीं हुई, लोचनदास ठाकुर जी कहते हैं कि उसकी जिंदगी बेकार है। वह पापी तो समझो आया और गया।
(3)
श्रीगौर नित्यानन्द जी की महिमा सूचक गीति :
परम करुण, पहुँ दुइजन, निताई गौरचन्द्र ।
सब-अवतार, सार-शिरोमणि, केवल आनंद-कंद ॥
भज-भज भाइ, चैतन्य निताइ, सुदृढ़ विश्वास करि ।
विषय छाड़िया से रसे मजिया, मुखे बल हरि-हरि ॥
देख ओरे भाइ, त्रिभुवने नाइ, एमन दयाल दाता ।
पशु पाखी झुरे, पाषाण विदरे,शुनि’ यार गुणगाथा ॥
संसारे मजिया, रहिलि पड़िया, से पड़े नहिल आश ।
आपन करम,भूञ्जाये शमन, कहये लोचनदास॥
श्रीनित्यानन्द प्रभु व श्रीगौरचन्द्र जी दोनों ही परम करुणामय हैं । वे सभी अवतारों के मूल शिरोमणि व केवल आनंदकंद हैं ।
हे भाई! तुम अवश्य ही सुदृढ़ विश्वास के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु व श्री नित्यानन्द प्रभु का भजन करो। विषय भोगों को छोड़कर उसअप्राकृत रस में निमग्न होकर मुख से ‘हरि-हरि’ उच्चारण करो।
देखो भाई! इस सारे त्रिभुवन में इस प्रकार का दयालु व इस प्रकार का दाता नहीं है। इनका गुणगान सुनकर तो पशु-पक्षी भी प्रेम विह्वल हो उठते हैं तथा पत्थर भी पिघल जाते हैं।
तुम तो संसार में प्रेममत्त हुए पड़े हो। तुम्हें तो ज़रा सी भी उन पादपद्मों की अभिलाषा नहीं है। लोचन दास जी कहते हैं कि तुम्हारे सभी कर्मों को काल तुमसे भुगवाएगा।
श्री लोचनदास जी ने श्रील नरहरि सरकार ठाकुर जी के तिरोभाव उत्सव में भक्तों को माला एवं चन्दन प्रदान किया था।
श्री नरहरि चक्रवर्ती रचित ‘भक्ति रत्नाकर’ग्रन्थ में भी श्री लोचन दास ठाकुर जी के नाम का उल्लेख हुआ है।‘श्री यदुनंदन, श्री लोचन दुइजन । लइलेन पुष्प माल्य सुगन्धि चन्दन॥’
एक श्रेणी के अपसंप्रदाय इनके बारे में इस प्रकार भी कहते हैं कि श्री लोचन दास ठाकुर जी के ‘श्री चैतन्यमंगल’ में ‘गौर-नागरी वाद’ की बातें भी हैं किन्तु ये ठीक नहीं है।‘श्री चैतन्य भागवत’ रचयिता श्री वृन्दावन दास ठाकुर जी ने गौर-नागरी वाद की निंदा की है।
‘गौरांग ‘नागर हेन स्तव नाहि वले।’‒चैतन्य भागवत
श्री गौरसुंदर –‘राधाभावद्युतिसुवलित कृष्ण’ हैं । इसलिए उन्होंने श्रीकृष्ण सेवा के लिए आश्रम जातीय श्रीमति राधिकादि गोपियों का जो हृदय का भाव है उसका परित्याग कर कभी भी स्वयं श्री कृष्ण की तरह विषयजातीय चेष्टाएँ करके अर्थात् अपने आपको भोक्ता का अभिमान कर परस्त्री के दर्शनादि द्वारा ‘लम्पटनागर’ की वृत्ति का परिचय नहीं दिया । -श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी
सन् 1589 ई॰ को श्रील लोचन दास ठाकुर जी का तिरोधान हुआ। ठाकुर के श्रीपाट में ईंटों से बनी समाधि है।