कार्तिक व्रत याम कीर्तन Harikatha

प्रथम याम

प्रातः 3:22 से प्रातः 5:46 तक। श्रीकृष्ण-नाम विशेषरूप से जय-युक्त हो। दस प्रकार के नामापराधों से बचते हुए, भक्तों के संग में कृष्ण-नाम का उच्च स्वर से संकीर्तन, सात प्रकार की सिद्धियां प्रदान करता है यथा- 1) चित्त रूपी दर्पण का मार्जन, 2) जन्म, मृत्यु एवं त्रिताप रूपी भयानक दावाग्नि का निर्वापण, 3) कुमुदिनी को विकसित करनेवाली चन्द्र की शीतल किरणों की भांति जीवों को नित्य मंगल रूप शीतलता का वितरण, 4) विद्या रूपी वधू का जीवनस्वरूप अर्थात् वास्तव स्वरूप का ज्ञान, 5) आनंद-समुद्र का वर्धन 6) पद-पद पर पूर्ण अमृत का आस्वादन, एवं 7) देह, मन व आत्मा का पूर्णरूप से आनंद सागर में निम्मजन।

अतएव नामाभासे सर्व-पाप विनाश आर संसार क्षय
(श्री भक्ति-रसामृत-सिंधु, दक्षिण भाग, 1/52)

अतः पवित्र नाम का आभास मात्र मनुष्य के समस्त पापों तथा अनित्य सम्बन्धों के प्रति आसक्ति को ध्वंश कर देता है।

तं निर्व्याजं भज गुणनिधे पावनं पावनानां
श्रद्धा रज्यन्मतिरतितरामुत्तमःश्लोक मौलिम्
प्रोद्यन्नन्तःकरणकुहरे हन्त यन्नामभानो-
राभासोऽपि क्षपयति महापातकध्वान्तराशिम्

जिनकी हरिनाम, कृष्ण-नाम में रुचि है, वह गुण-निधे है। कृष्ण सभी पावन गणों में परम पावन हैं, उत्तमश्लोकमौली अर्थात जिनकी महिमा का उत्तम श्लोकों द्वारा कीर्तन होता है। सभी अवतारों के मूल कारण (अवतारी) है। परन्तु शर्त यह है कि श्रद्धा के साथ, निष्कपट मति होकर, अतिशीघ्र सरल भाव से भजन करना । यह दुर्लभ मनुष्य जन्म हमें मिला है, वह कभी भी चला जायेगा, फिर हमें यह अवसर मिलेगा की नहीं कह नहीं सकते नहीं है। इसलिए हम कल भजन करेंगे ऐसा नहीं इसी क्षण आरंभ कर दो ‘तुर्णं यतेत्’। क्यों? क्योंकि नाम रूपी सूर्य का आभास भी हमारे अंतकरण रुपी गुफा में प्रवेश करके सभी महापाप रूपी अन्धकारराशि को नाश कर देगा।

हमारे गुरुदेव और हमारे परम आराध्यतम परम गुरुदेव को बहुत प्रसन्नता होती थी, जब कोई उच्च स्वर में हरिनाम करता था। यह संभव है कि नामभास हो सकता है, कोई नहीं कह सकता। उनकी सभी समस्याएँ एक क्षण में हल हो जाएंगी, इसलिए यदि कोई उच्च स्वर में हरिनाम करता है तो इसलिए वे बहुत प्रसन्न होते हैं।

परम पावन कृष्ण ताँहार-चरण।
निष्कपट श्रद्धा-सह करह भजन॥
यार नाम सूर्याभास अन्तरे प्रवेशि।
ध्वंस करे महापाप अंधकार राशि॥

हमें शिक्षाष्टक का पाठ बहुत ध्यान पूर्वक करना चाहिए। जैसा कि मैंने अपने गुरुवर्ग से श्रवण किया है कि जब कार्तिक-व्रत की शुरुआत हुई थी, उस समय केवल शिक्षाष्टक का स्मरण करने की ही अनुमति थी, लीलाओं का स्मरण(चिंतन) करने की ही अनुमति नहीं थी, किन्तु बाद में भक्तिविनोद ठाकुर द्वारा रचित ‘भजन रहस्य” ग्रन्थ को माध्यम से उन्होंने राधा-कृष्ण-लीला का स्मरण(चिंतन) करने की अनुमति प्रदान कर दी।

जब हम शिक्षाष्टक में पूर्णतः प्रतिष्ठित हो जायेंगे, तब सभी लीलाएँ स्वतः ही स्फूर्ति होने लगेंगी। यह बहुत महत्वपूर्ण है।

एई शिक्षाष्टके कहे कृष्णलीला-क्रम।
इहाते भजन क्रमे लीलार उदगम्॥
प्रथमे प्रथम श्लोक भज किछु दिन।
द्वितीय श्लोकेते तबे हओत प्रवीण॥
चारि श्लोके क्रमशः भजन पक्व कर।
पंचम श्लोकेते निजसिद्धदेह वर॥
एई श्लोके सिद्धदेहे राधापदाश्रय।
आरम्भ करिया क्रमे उन्नति उदय॥

इसके लिए योग्यता की आवश्यकता है। जब तक हमे कृष्ण को निरंतर स्मरण (चिंतन) करने की योग्यता प्राप्त नहीं हो जाती, जब तक हमें यह अनुभूति नहीं हो जाती कि हम अपने वास्तविक स्वरूप में कृष्ण के नित्य दास हैं, तब तक दिव्य लीलाएँ प्रकाशित नहीं होंगी।

जब हम कृष्ण के साथ अपने नित्य सम्बन्ध को जान जायेंगे, तब दिव्य लीलाएँ क्रमशः प्रकाशित होंगी।

जब तुम पाँचवें श्लोक का अभ्यास करोगे तो तुम्हें अपने नित्य स्वरूप का अनुभव होगा। उसके पश्चात् तुम्हे निरंतर कृष्ण का स्मरण (चिंतन) करने की योग्यता प्राप्त हो जाएगी। हमारे सभी गुरुवर्गों ने राधारानी आश्रय लेकर या उनके विस्तार स्वरूप के अनुगत में कृष्ण का भजन करते हैं। तो यही हमारे भजन की पद्धति (परिपाटी) है।

छय श्लोक भजिते अनर्थ दूरे गेल।
तबे जान सिद्धदेहे अधिकार हैल ॥

सभी लक्षण स्वतः प्रकट होंगे; सभी अष्ट सात्विक विकार प्रकाशित होंगे। यह सभी लक्षण स्वतः ही प्रकाशित हो जायेंगे, आपको इन्हें दूसरों को दिखाने के लिए कृत्रिम रूप से प्रदर्शित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जब लक्षण स्वतः ही प्रकाशित होंगे तब तुम समझ जाना कि तुम्हें सिद्ध अवस्था की प्राप्ति हो चुकी है।

अधिकार ना लभिया सिद्धदेह भावे।
विपर्यय बुद्धि जन्मे शक्तिर अभावे॥
सावधाने क्रम धर यदि सिद्धि चाओ।
साधुर चरित देखि शुद्धबुद्धि पाओ॥
सिद्धदेह पेये क्रमे भजन करिले।
अष्टकाल सेवासुख अनायासे मिले॥

जब तक हमें अपने वास्तविक स्वरूप के विषय में गलत धारणा रहेगी, जब तक शरीर में मैं बुद्धि रहेगी । तब तक हम राधा-कृष्ण की अप्राकृत लीलाओं का रसास्वादन नहीं कर सकते। इसमें समय लगेगा। जब तक हमें सिद्ध देह की प्राप्ति नहीं हो जाती। तब तक हमें इस बात(अप्राकृत लीलाओं का रसास्वादन) की अनुभूति नहीं हो सकती।

शिक्षाष्टक चिन्त, कर स्मरण कीर्तन।
क्रमे अष्टकाल-सेवा हबे उद्दीपन॥
सकल अनर्थ जाबे पाबे प्रेमधन।
चतुर्वर्ग फल्गुप्राय हबे अदर्शन॥

एक बार जब हमें अपने वास्तविक स्वरूप का और भगवान के साथ उसके नित्य संबंध का बोध हो जायेगा, तो हमारी सभी दुर्वासनायें स्वतः ही दूर हो जाती हैं।

चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्निनिर्वापणं।
श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्॥
आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं।
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्णसंकीर्तनम्॥

कृष्ण-संकीर्तन करने से आपको सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाएँगी। यहाँ प्रमुख सात सिद्धियों का उल्लेख किया गया है; चित्त रूपी दर्पण का मार्जन, जन्म, मृत्यु एवं त्रिताप रूपी भयानक दावाग्नि का शमन, चन्द्र की शीतल किरणों के समान नित्य सुमंगल, विद्यारूपी वधू का जीवन अर्थात् वास्तव स्वरूप की जागृति, आनन्द-समुद्र वर्धन, पद-पद में पूर्णामृत-आस्वादन करना, देह, मन व आत्मा का पूर्णरूप से आनन्द सागर में निम्मजन। श्री कृष्ण नाम विशेष रूप से जय युक्त हो।

संकीर्तन हैते पाप-संसार-नाशन।
चित्तशुद्धि, सर्वभक्तिसाधन-उद्गम॥
कृष्णप्रेमोद्गम, प्रेमामृत-आस्वादन।
कृष्णप्राप्ति, सेवामृत-समुद्रे मज्जन॥
(चैतन्य चरितामृत अन्त्य 20.13-14)

जब १० नामपराधो ये रहित होकर हरिनाम संकीर्तन करेंगे तब आपको सब कुछ प्राप्त हो जायेगा।

कृष्ण-लीला का चिंतन (कृष्ण की लीलाओं)

निशान्ते कीर्तने कुञ्जभंग करे ध्यान।
क्रमे-क्रमे चित्त लग्ने रसेर विधान।।

चिंतन होता है मन का धर्म। मन ही बंधन का कारण है और मन ही मुक्ति का कारण है। निशांत काल में (रात्रि के अंत ) कुञ्ज भंग लीला का ध्यान करना, राधा-कृष्ण की निकुंज में जागरण लीलाओं ध्यान करना, इससे धीरे धीरे चित्त में अप्राकृत रस का प्रकाश होगा। ये रस प्रकाश की पद्धति है। यदि चिंतन नहीं करेंगे तो उसमें(लीला प्रकाश) विलम्ब होगा। हमारे गुरुवर्गों के निर्देशानुसार कृष्ण लीला चिंतन शुद्ध भक्तों के संग में कीर्तन के माध्यम से करना चाहिए। परन्तु यदि आपका मन कहीं और है और आप केवल पढ़ रहे हैं, तो आपको वास्तविक लाभ नहीं मिलेगा।

रात्र्यन्ते त्रस्तवृन्देरित-बहुविरवैर्बोधितौ कीरशारी- पद्यैहृद्यैरहृद्यैरपि सुखशयनादुत्थितौ तौ सखीभिः
दृष्टौ हृष्टौ तदात्वोदित-रतिललितौ कक्खटीगी: सशंकौ
राधाकृष्णौ सतृष्णावपि निजनिज धाम्न्याप्ततल्पौ स्मरामि
(गोविंदलीलामृत)

निशान्त काल में अरुणोदय होता हुआ देख, दिवस आगमन की आशंका से वृन्दादेवी श्रीराधाकृष्ण की निद्रा-भंग करने के उद्देश्य से शुक-सारिका एवं अन्य पक्षियों को कलरव करने के लिए प्रेरण करती हैं। सभी सेवाएं निश्चित समय पर होनी चाहिए। सभी, वृंदा देवी की अधीनता में सेवा करते हैं। शुक- सारिका, राधा-कृष्ण का महात्म्य कीर्तन करते हैं। दोनों के बीच प्रतियोगिता चलती रहती है। शुक और सारिका के बीच राधा और कृष्ण की दिव्य अप्राकृत महिमा का गान करते हैं। यह सब बहुत सुन्दर है। ये लीलाएँ अप्राकृत भूमिका की बात है, इस भौतिक जड़ जगत की बात नहीं है। वहाँ पर भी स्वरूप है। गोपियाँ भी मधुर भाव से महिमा का गायन करती हैं और उन सब कीर्तनों को सुनकर राधारानी के नेत्र खुल जाते हैं। राधारान , कृष्ण का अभिन्न प्रकाश विग्रह है। परन्तु कृष्ण अभी भी अपने नेत्र नहीं खोल रहे हैं। कृष्ण का ध्यान अपने सभी सेवकों पर है, यहाँ तक कि उन छोटे से छोटे सेवकों पर भी जो उनकी सेवा करने की अभिलाषा रखते हैं, उनपर भी कृष्ण कृपा करते है। उन्हें किसी की अवज्ञा करना पसंद नहीं है। यह भगवान रामचंद्र की लीलाओं में भी देखा जाता है। एक छोटी सी गिलहरी है जो हनुमान और अन्य सेवकों के सेतु निर्माण में लगे देखकर वह भी प्रभु की सेवा करना चाहती है। यह सोचकर कि चलो मैं भी सेवा करूँ, उसने अपने शरीर की धूल को सेतु पर छिड़कना आरंभ कर दिया। गिलहरी को ऐसा करते देख हनुमान को थोड़ा अभिमान आ गया और वे उस पर क्रोधित हो गए। उससे कहते हैं, “क्या तुम हमारे साथ मजाक कर रही हो, कहीं तुम हमारे पैरों तले कुचली न जाओ, भाग यहाँ से।” वह एक छोटा सा प्राणी है, उसमें कोई बल नहीं है इसलिए वह चुप हो गई।

फिर रामचंद्र हनुमान और अन्य सेवकों को संबोधित करते हुए कहते हैं, “देखो, उसके द्वारा छिड़की गई रेत तैर रही है जबकि तुम्हारे पत्थर डूब रहे हैं।” भगवान् अपने सेवकों का अभिमान खंडित कर देते हैं। वे छोटे से छोटे जीव पर भी ध्यान देते हैं। इसलिए बद्धजीव को भी दुःख या पीड़ा पहुँचाना अपराध है,यह भी सही नहीं है। ।) यह ठीक नहीं है। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने भजन रहस्य में यह लिखा है।यह वैष्णव अपराध नहीं है,किन्तु किसी को भी दुःख पहुँचाना ठीक नहीं है। इसलिए बहुत सावधान रहना है, चैतन्य महाप्रभु ने हमें ‘तृणादपि सुनीचेन होने के लिए इसलिए कहा है’।

सखियाँ दूर से देख रही हैं, परन्तु जब कृष्ण आंख खोलते नहीं, तो वे मादा वानरी को अनुमति दे देती हैं। तब उसने (वानरी) बहुत ऊँची और कर्कश ध्वनि की। भगवान् ऊँची और कर्कश ध्वनि से जागते है, ऐसा नहीं है, वे अपने भक्तों को संतुष्ट करने के लिए उन्हें सेवा का अवसर प्रदान करने के लिए ऐसी लीला करते हैं। उनकी नींद केवल एक लीला है। तब कृष्ण अपने नेत्र खोलते हैं। राधा और कृष्ण एक-दूसरे को सतृष्ण नेत्रों से देखते हैं। वे यह सोचकर भयभीत हैं कि वे पकडे जायेंगे। उनके घर के द्वार तो बंद हैं, परन्तु वे भौतिक जड़ जगत की वस्तुओं की तरह नहीं हैं, वे भी चेतन हैं। योगमाया के प्रभाव से, राधा और कृष्ण के भवन के द्वार बंद होने पर भी वे अपने भवनों में प्रवेश कर सकते हैं। भौतिक जड़ जगत में हम द्वार बंद होने से प्रवेश नहीं कर सकते, हमें द्वार खटखटाना पड़ता है, खोलो-खोलो कहना पड़ता है, धक्का देना पड़ता है। राधा और कृष्ण दोनों अपने-अपने भवनों में प्रवेश करते हैं और अपनी-अपनी शय्या पर शयन करते हैं। भौतिक जगत और आध्यात्मिक जगत में अंतर है।

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