गजेन्द्र स्तव- 2
हमारे गुरुवर्गों ने हमें श्रेष्ठ वैष्णवों के संग में प्रतिदिन श्रीमद्भागवत् श्रवण करने का निर्देश दिया है। साधुमुख से शास्त्र श्रवण करने को प्रधानता दी गयी है। विशेष रूप से दामोदर मास में, श्रीमद् भागवतम् के अष्टम स्कन्द से गजेंद्र मोक्ष लीला का पाठ करना अत्यंत मंगलकारी कहा गया है। गजेंद्र मोक्ष लीला हमें भगवान में पूर्ण शरणागति की शिक्षा देती है। शरणागति ही भक्त का जीवन है, प्राण है।
अभी मेरी तबीयत ठीक नहीं है, किन्तु इतनी भी खराब नहीं है कि मैं यहाँ पर सभा में न आ सकूँ। नियम सेवा (दामोदर मास) में, नियमों का पालन करते हुए सेवा में सम्मिलित होना चाहिए। मैं कथा बोल पाऊं या नहीं यह दूसरी बात है, किन्तु नियम सेवा करनी चाहिये। सब को यह भय है कि कथा बोलने से मुझे कुछ हो जाएगा। सब कहते हैं कि अधिक बोलना ठीक नहीं है, थोड़े समय के लिए बोलकर बंद कर देना चाहिए, यह मेरा दुर्भाग्य है। लेकिन सुनने से तो कोई नुकसान नहीं है। यद्यपि मैं तो एक साधारण, नगण्य व्यक्ति हूँ। किन्तु भक्त्त लोग मुझे प्रधान समझते हैं। यदि प्रधान व्यक्ति ही नियम पालन में आलस्य करे, सुस्ती करे, तो उससे दूसरे व्यक्तियों पर बुरा असर पड़ता है। जितना नियम पालन कर पायें उतना ही अच्छा है। कल मैं आपको जिनके बारे में बता रहा था वे हमारे परमगुरूजी भगवान् के नित्य पार्षद हैं, उनका शरीर स्थूल हड्डी-मांस का बना नहीं है। तथापि जब वे अस्वस्थ लीला कर रहे थे, सब उन्हें हरिकथा बोलने से मना कर रहे थे, किन्तु वे सब समय हरिकथा करते थे, उन्होंने किसी की बात सुनी ही नहीं। वे निरंतर हरिकथा बोलते रहे और दूसरों को भी हरिकथा बोलने के लिए प्रोत्साहित किया। हरिकथा ही भक्ति का प्राण है। यदि आप इसे छोड़ देते हैं तो सब कुछ गवाँ देंगे। इसलिये उन्होंने सभी को यह उपदेश दिया कि हरिकथा श्रवण-कीर्तन ही जीवन का सर्वस्व है। ये कभी नहीं छोड़ना। यह बात सदैव याद रखनी चाहिए। सेवक को यह भय रहता है कि अधिक समय तक हरिकथा बोलने से इन्हें कुछ हो जायेगा इसलिए अधिक समय बोलने से मना करते हैं।
प्रायः लोगों की यह धारणा रहती है कि यदि शरीर को आराम दिया जाय तो हम लम्बा जीवन जी सकते हैं। मगर वे यह भूल जाते हैं कि जब शरीर छोड़ने का समय आयेगा तो इस संसार से जाना ही पड़ेगा। जब इस शरीर के निर्धारित कर्म पूर्ण हो जायेंगे तब शरीर छूट जाएगा। इसके लिए कोई भी कारण निमित्त बन सकता है। इस संसार में जिसका भी जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है। इसलिए हमें मनुष्य जीवन के रूप में मिले हुए अमूल्य समय के एक क्षण को भी व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिए। आपको भजन नहीं छोड़ना चाहिए और शास्त्र एवं गुरुवर्गों के दिए गए निर्देशों को जितना संभव हो पालन करना चाहिए।
पहले दामोदर मास नियम सेवा के अन्तर्गत पूरे महीने अष्टकालीय लीला स्मरण के लिए प्रतिदिन आठ सभायें होती थीं। चूँकि मठ में बहुत प्रकार की सेवाएं होती हैं और आठ सभायें करने से मठ की सेवा में बाधा आती थी इसलिए अब इनकी संख्या को कम कर दिया गया है। वर्तमान समय में तीन या चार सभाओं में ही सभी लीलाओं का स्मरण कर लिया जाता है। पहले केवल शिक्षाष्टक का ही पाठ होता था, लीला-कथा का पाठ नहीं होता था। बद्ध जीव के हृदय में दूसरा भाव आ सकता है, इसलिये कदाचित पहले लीला-कथा का पाठ नहीं करते थे। हमने गुरुवर्ग से सुना है कि बाद में उसमें परिवर्तन किया गया। यद्यपि मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है किन्तु इतना भी ख़राब नहीं है कि यदि मैं समय से थोड़ा पहले सभा में आ जाऊँ या थोड़ा अधिक समय तक हरिकथा बोलूँ तो मेरा शरीर छूट जाएगा। ऐसा कोई डर नहीं होना चाहिए। मेरी स्थिति इतनी भी ख़राब नहीं है। जब समय आयेगा तो ये शरीर छोड़ना ही पड़ेगा। जब अंत समय आएगा तो कोई रोक नहीं पायेगा।
तत्रापि जज्ञे भगवान्हरिण्यां हरिमेधस:।
हरिरित्याहृतो येन गजेन्द्रो मोचितो ग्रहात्॥
(श्रीमद् भागवतम् 8.1.30)
हमने कल श्रवण किया था कि चतुर्दश (14) मन्वन्तर के अंतर्गत चौथा मन्वन्तर अर्थात् तामस मन्वन्तर में हरिमेघस के औरस से उनकी सहधर्मिणी के गर्भ में भगवान् श्रीहरि प्रकट हुए। प्रकट होकर उन्होंने गजेन्द्र को ग्राह से मुक्त किया अर्थात् उसका उद्धार किया। हरि ने प्रकट होकर अपने भक्त का उद्धार किया जिसे एक अभिशाप के कारण हाथी की योनी में जन्म लेना पड़ा था।
जब शुकदेव गोस्वामी ने इस प्रकार से कहा तो परीक्षित महाराज ने उनसे सम्पूर्ण प्रसंग श्रवण कराने की इच्छा प्रकट की।
श्रीराजोवाच
बादरायण एतत् ते श्रोतुमिच्छामहे वयम्।
हरिर्यथा गजपतिं ग्राहग्रस्तममूमुचत्॥
(श्रीमद् भागवतम् 8.1.31)
परीक्षित महाराज ने श्रवण करने की इच्छा से प्रश्न किया। उन्होंने किस प्रकार श्रवण किया? सात दिन सात रात्रि तक न तो कुछ खाया, न कुछ पिया और न ही सोये। क्या हम यह कल्पना भी कर सकते हैं कि आज के समय में कोई ऐसा कर सकता है? परीक्षित महाराज शुकदेव गोस्वामी को संबोधन करके कहते हैं, “हे बादरायण! श्रीहरि ने स्नेहयुक्त होकर ग्राह से गजपति का उद्धार किया, इस प्रसंग को विस्तृत रूप से श्रवण करने की इच्छा है। सम्पूर्ण जीवन में निरंतर श्रवण-कीर्तन करते रहना चाहिए। परीक्षित महाराज ने यही किया। यदि कोई हृदय की गहराई से भगवद अनुभूति करना चाहता है तो श्रवण-कीर्तन में परीक्षित महाराज को जैसी रुचि है वैसी रुची होनी चाहिए। यदि हम बाहरी रूप से श्रवण कर रहे हैं और केवल शरीर के विषय में सोच रहे हैं, तो हम यहीं अर्थात् इसी संसार में रह जायेंगे, भजन नहीं कर पाएँगे। भजन करना इतना सहज नहीं है। जब निरंतर श्रवण-कीर्तन की उस अवस्था में आत्मा भगवान् की ओर दौड़ती है, तो उसे कोई नहीं रोक सकता। कैसी भी स्थिति हो, वह श्रवण-कीर्तन करता रहेगा। इसलिए जिन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित किया है, वे जीवन के अंत तक सेवा के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु के लिए समय का एक क्षण भी व्यर्थ गंवाना नहीं चाहते हैं।
तत्कथासु महत् पुण्यं धन्यं स्वस्त्ययनं शुभम्।
यत्र यत्रोत्तमश्लोको भगवान्गीयते हरि:॥
(श्रीमद् भागवतम् 8.1.32)
जिस कथा में भगवान उत्तमश्लोक की महिमा का वर्णन होता है, वह निश्चित रूप से अतिशय पवित्र, धन्य, शुभ एवं मंगलदायी होती है।
मुक्त पुरुष एवम सिद्ध पुरुष, जिनकी महिमा का गान करते हैं उन उत्तमश्लोक भगवान श्रीहरि की महिमा का श्रवण व कीर्तन हमें पवित्र कर देता हैं, जिससे हमारा नित्य मंगल होता है। भगवान की महिमा श्रवण और कीर्तन करने से हम सभी प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त कर सकते हैं।
यह बात परीक्षित महाराज ने यहाँ पर ही कही ऐसा नहीं है, ये तो अष्टम स्कन्ध की बात है। दशम स्कन्ध में भी यह बात आती है। वहाँ पर शुकदेव गोस्वामी से चन्द्रवंश, सूर्यवंश एवं यदुवंश के विषय में श्रवण करने के बाद परीक्षित महाराज ने उनसे प्रार्थना की कि कृष्ण ने बलदेव के साथ यदुवंश में प्रकट होकर जो लीलायें की हैं, उन सब को श्रवण करने की मेरी इच्छा है।
इसके विपरीत हम संसार में फंसे हैं और हमारा मन संसार की ही चिन्ता करता है। श्रील संत गोस्वामी महाराज भी ये श्लोक सुनाते थे –
नैषातिदु:सहा क्षुन्मां त्यक्तोदमपि बाधते।
पिबन्तं त्वन्मुखाम्भोजच्युतं हरिकथामृतम्॥
(श्रीमद् भागवतम् 10.1.13)
कुछ नहीं खाकर रहना बहुत मुश्किल है। उस समय द्वापर युग में फिर भी सम्भव था। अभी तो अन्नगत प्राण हैं, यदि सही समय पर भोजन नहीं मिला तो शरीर अस्वस्थ हो जायेगा। नियम रक्षा पर ध्यान देना है, उसके अनुरूप होकर भोजन ग्रहण करना है। थोड़ा जलपान कर लो, इतना खाने की क्या जरूरत है? अभी थोड़ा खा लिया फिर दोपहर में भी भोजन मिल जायेगा। थोड़ा सामंजस्य कर लेना चाहिए। किन्तु हम भोजन को अधिक महत्त्व देते हैं। भजन को महत्त्व देंगे तो उसमें थोड़ा ध्यान जाएगा।
नैषातिदु:सहा क्षुन्मां त्यक्तोदमपि बाधते।
पिबन्तं त्वन्मुखाम्भोजच्युतं हरिकथामृतम्॥
(श्रीमद् भागवतम् 10.1.13)
परीक्षित महाराज कहते हैं जलपान करने के लिए अर्थात पिपासा (प्यास) सहन नहीं करने के कारण मुनि के पुत्र से अभिशप्त होकर अभी मैं मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। सात दिन बाद सर्प के डसने से मेरी मृत्यु होगी।
किन्तु अभी उनकी प्यास कहाँ गई? पहले तो प्यास के कारण ऐसा कार्य कर लिया कि अभिशाप मिला। बाद में उनको पश्चाताप हुआ और फिर कहा कि भगवान ने मुझ पर बहुत कृपा की, सात दिन का समय दे दिया। सात दिन से पहले मेरी मृत्यु नहीं होगी। इसलिये सात दिन में मुझे कोई नहीं मार सकता है। ये सात दिन पूरा समय मैं भगवान के लिए दूंगा। शुकदेव गोस्वामी परीक्षित महाराज से कहते हैं, “महाराज! थोड़ा विश्राम कीजिए। शरीर के लिए थोड़ा विश्राम करना आवश्यक होता है। आप थोड़ा पानी पी लीजिये, थोड़ा खाना खा लीजिये।” तो परीक्षित महाराज क्या कहते हैं? वे कहते हैं, “मेरे पास सात दिन का समय है, सात दिन के बाद मैं नहीं रहूँगा। पानी नहीं पीने से मुझे कष्ट नहीं हो रहा है। आप मेरे लिए चिंता मत कीजिये। अन्न ग्रहण नहीं करने से भी मुझे कोई कष्ट नहीं होता है।” कष्ट क्यों नहीं हो रहा है?
पिबन्तं त्वन्मुखाम्भोजच्युतं हरिकथामृतम्।
“आपके मुखपद्म से निसृत हरिकथामृत मैं पान कर रहा हूँ। जिससे निंद्रा, क्षुधा या पिपासा मुझे कोई कष्ट नहीं दे रहे हैं।” श्रवण-भक्ति के द्वारा उन्होंने लक्ष्य प्राप्त कर लिया, इस प्रकार से उन्होंने श्रवण-भक्ति का पालन किया।
श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन इत्यादि जितने भी भक्ति के अंग हैं, उनका पालन केवल भगवान की प्रीति के लिए करना चाहिए। किसी भी अनुष्ठान का आयोजन, लोगों को दिखाने के लिए या केवल औपचारिकता निभाने या शीघ्र समाप्त करने के उद्देश्य से नहीं किया जाना चाहिए। हृदय से और स्वयं को पूर्ण रूप से समर्पित करके भक्ति के अंगो का पालन करना चाहिए। जैसे हमने पहले श्रवण किया, किसी भी भक्ति के अंग का पालन, समस्त उपाधि का अभिमान छोड़कर, भगवान का होकर, उनकी प्रीति के लिए करना चाहिए, न कि किसी सांसारिक कामना के लिए। परीक्षित महाराज ने कहा, “आप जो हरिकथा परिवेशन कर रहे हैं उसे श्रवण करने से मुझे किसी भी प्रकार के शारीरिक कष्ट का अनुभव नहीं हो रहा है।”
जिनकी कोई सांसारिक कामना नहीं है, वही भगवान का माहात्म्य कीर्तन कर सकते हैं।
निवृत्ततर्षैरुपगीयमानाद्भवौषधाच्छ्रोत्रमनोऽभिरामात्।
क उत्तमश्लोकगुणानुवादात्पुमान् विरज्येत विना पशुघ्नात्॥
(श्रीमद् भागवतम् 10.1.4)
यहाँ कहते हैं, जो लोग मुक्त पुरुष हैं, केवल वही भगवान का महात्म्य कीर्तन कर सकते हैं। जो स्वयं को भगवान का मानते हैं, जिनका लक्ष्य भगवान को प्रसन्न करना है, केवल वही उनकी महिमा का गान कर सकते हैं, अन्य कोई भी नहीं। जिनको झूठा अभिमान है, वे लोग भगवान का महात्म्य कीर्तन नहीं कर सकते। हम झूठे अभिमान में हैं इसीलिये संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं। जन्म, मृत्यु और तीन प्रकार के तापों से जल रहे हैं। किन्तु इस भवरोग की औषधि भी भगवान का नाम, गुण, रूप लीला का श्रवण-कीर्तन करना ही है। श्रवण-कीर्तन में रुचि नहीं होने से भी करना चाहिए।
स्यात् कृष्णनामचरितादि सिताप्यविद्या- पित्तोपतप्तरसनस्य न रोचिका नु।
किन्त्वादरादनुदिनं खलु सैव जुष्टा स्वाद्वी क्रमाद्भवति तद्गतमूलहन्त्री।।७।।
(श्रीरूप गोस्वामी उपदेशामृत श्लोक 7)
कृष्ण-कथामृत सर्वोत्तम मिश्री के भांति मधुर है। जो व्यक्ति पित्त के रोग से पीड़ित है, उसे मिश्री भी कड़वी लगती है। मिश्री का स्वाद भले ही बहुत मीठा होता है किन्तु उसे यह कड़वा ही लगता है क्योंकि पित्त के रोग के कारण उसकी जिह्वा कड़वी हो गई है। किन्तु ऐसे रोगी के लिए एक आयुर्वेदिक डॉक्टर क्या सलाह देते हैं? वह रोगी को मिश्री का पानी अधिक पीने की सलाह देते हैं, भले ही उसका स्वाद कड़वा हो। ऐसा इसलिए कि मिश्री का पानी रोगी के शरीर में जितना अधिक प्रवेश करेगा, उतना ही पित्त का रोग ठीक हो जाएगा और जिस मात्रा तक रोग ठीक हो जाता है, रोगी उसी मात्रा तक मिश्री की मिठास का स्वाद आस्वादन कर सकता है। जब रोग पूर्ण रूप से ठीक हो जाएगा, तो वह मिश्री की मिठास को पूर्ण रूप से अनुभव कर पाएगा।
हमारी हरिकथा सुनने में कोई रुचि नहीं है। जैसे कि कल हमने श्रवण किया था, एक लड़का जो कि स्वयं को अकाल की स्थिति से बचाने के लिए मठ में रहने लगा था, कहता है, “जब मठ में उत्सव होता है और प्रसाद बांटा जाता है, तो मुझे बहुत आनन्द होता है। प्रसाद पाना भी भक्ति का अंग है, इसलिए भक्ति का ये अंग मुझे बहुत अच्छा लगता है। किन्तु जब हरिकथा बोलते हैं तब मेरा सिर घूमता है। मैं हरिकथा सुन नहीं सकता।”
वास्तव में यही हमारी बीमारी (रोग) है—शरीर में मैं बुद्धि, शरीर की आवश्यकता को हमारी आवश्यकता समझना। इसलिये भगवान की कथा सुनने में रुचि नहीं होती, सिर घूमता है। भोजन में हमारी रुचि है और उसके लिए हमारे पास समय है। इसलिये कहते हैं:
निवृत्ततर्षैरुपगीयमानाद्भवौषधाच्छ्रोत्रमनोऽभिरामात्।
क उत्तमश्लोकगुणानुवादात्पुमान् विरज्येत विना पशुघ्नात्॥
(श्रीमद् भागवतम् 10.1.4)
‘पशुघ्नात्’ शब्द के दो अर्थ होते हैं। एक अर्थ होता है, पशु का हनन करने वाले। ऐसे हिंसक व्यक्ति हरिकथा सुनने से दूर रहेंगे। शांत स्वभाव वाला कोई अच्छा व्यक्ति भगवान की कथा छोड़कर नहीं रह सकता। ऐसे व्यक्ति भगवान की कथा श्रवण-कीर्तन में ही रहते हैं। नीच और दुष्ट स्वभाव के व्यक्ति हरिकथा को कभी नहीं सुनेंगे। ऐसे व्यक्ति बाघ, शेर जैसे जानवरों से भी प्रकृति में पतित होते हैं। बाघ और शेर जैसे क्रूर जानवरों में भी चेतनता होती है। वे बिना कारण हत्या करना पसंद नहीं करते। वे केवल अपने भोजन के लिए अन्य प्राणियों को मारते हैं। किन्तु मनुष्य इतना क्रूर हो गया है कि वह यह विचार किए बिना कि यह बच्चा है या स्त्री या दुर्बल व्यक्ति, अन्य जीवों को बिना कारण मारता है। ऐसे हिंसक मनुष्य ऐसा केवल इसलिए करते हैं क्योंकि उन्होंने स्वयं को भगवान् के भजन से विमुख कर लिया है। इस भौतिक जगत में ऐसी चीजें होती रहेंगी।
इसलिये कहते हैं, हत्याकारी, हिंसक व्यक्ति को छोड़कर जगत में ऐसा कौन सा व्यक्ति है, जो भगवान की कथा को छोड़कर, उससे विमुख होकर रह सकता है? अच्छा व्यक्ति अच्छी वस्तु का संग करता है। भगवान् सत्-चित्-आनंद स्वरूप हैं, यदि आप उनका भजन करते हैं तो आप सत्-चित्-आनंद के वास्तविक संपर्क में आएंगे, नहीं तो उससे विपरीत वस्तु प्राप्त करेंगे।
‘पशुघ्नात्’ शब्द का दूसरा अर्थ होता है, आत्महत्या करने वाला। ऐसे व्यक्ति जो स्वयं को श्रवण-कीर्तन करने से वंचित करते हैं, वे आत्महत्या करने का ही प्रयास कर रहे हैं। उपरोक्त दो श्रेणी के व्यक्तियों के अतिरिक्त कौन भगवान की महिमा का श्रवण और कीर्तन नहीं करेगा? इसलिये यहाँ पर परीक्षित महाराज श्रवण-कीर्तन करने के लिए इच्छा कर रहे हैं। ऐसे साधु व्यक्तियों को सुनने की इच्छा होगी। भगवान का श्रवण कीर्तन उनको अच्छा लगेगा।
परीक्षित महाराज ने भगवान् की उस लीला को श्रवण करने की इच्छा प्रकट की जिसमें उन्होंने गजेन्द्र नामक हाथी की रक्षा की थी। उनकी भगवान की लीलाओं को श्रवण करने में रुचि थी। साधु का स्वरूप लक्षण क्या है?
मय्यनन्येन भावेन भक्तिं कुर्वन्ति ये दृढाम्।
मत्कृते त्यक्तकर्माणस्त्यक्तस्वजनबान्धवा:॥
मदाश्रया: कथा मृष्टा:शृण्वन्ति कथयन्ति च।
तपन्ति विविधास्तापानैतानमद्गतचेतसः॥
(श्रीमद् भागवतम् 3.25.22-23)
भगवान कहते हैं, “साधु मेरी शुद्ध कथा को आश्रय करके रहते हैं।” यह साधु का स्वरुप लक्षण है। जिस व्यक्ति की हरिकथा सुनने व बोलने में रुचि न हो उसे साधु के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिए। ऐसा व्यक्ति अपनी सारी ऊर्जा व्यर्थ ही नाशवान संसारी चीजों में नष्ट कर देता है। वो अपनी ऊर्जा का उपयोग शाश्वत सत्य वस्तु, श्रीभगवान को जानने के लिए नहीं करता है। यदि आप अपनी ऊर्जा भगवान को जानने व समझने में लगाते हैं तो आप भगवान के पास जायेंगे। यदि आप अपनी ऊर्जा असत, अनित्य व अज्ञान विषयों में लगाते हैं तो आपको भी यही चीजें प्राप्त होंगी। ऐसे व्यक्ति को और क्या प्राप्त हो सकता है?
शुकदेव गोस्वामी ने सात दिन और सात रात लगातार भगवान का कीर्तन किया। इस समय के अंतर्गत उन्होंने न तो कुछ खाया, न पिया और न ही विश्राम किया।
श्रीसूत उवाच
परीक्षितैवं स तु बादरायणि:
प्रायोपविष्टेन कथासु चोदित:।
उवाच विप्रा: प्रतिनन्द्य पार्थिवं
मुदा मुनीनां सदसि स्म श्रणवताम॥
(श्रीमद् भागवतम् 8.1.33)
श्रीसूत गोस्वामी ने कहा, हे ब्राह्मणों! जब परीक्षित महाराज ने, जो कि आसन्न मृत्यु की अपेक्षा कर रहे थे, शुकदेव गोस्वामी से कथा कहने के लिए प्रार्थना की तो वे बड़े आनन्दित हुए और प्रेम से परीक्षित का अभिनंदन करके मुनियों की भरी सभा में कहने लगे।
श्रीमद् भागवतम् ब्रह्म-सूत्र का भाष्य है, वेदान्त का भाष्य है। श्रीमद् भागवतम् के तीन अधिवेशन हुए हैं और तीन अलग-अलग स्थानों पर हुए हैं। पहला अधिवेशन श्रीबद्रीनारायण में, दूसरा शुक्रताल में व तीसरा नैमिषारण्य में हुआ। इस प्रकार परीक्षित महाराज द्वारा भगवान की लीलाओं का श्रवण कराने की प्रार्थना सुनकर श्रीशुकदेव गोस्वामी आनन्दपूर्वक कथा सुनाने लगे। भगवान की कथा सुनाने वाले को भी आनन्द मिलता है और सुनने वाले को भी। वक्ता, प्रश्नकर्ता एवं श्रोता तीनों प्रवित्र हो जाते हैं। जैसे कि गंगा जी, मन्दाकिनी और भागीरथी सबको पवित्र करती हैं इसी प्रकार श्रोता, वक्ता और जो जिज्ञासा करते हैं, प्रश्न करते हैं, तीनों पवित्र हो जाते हैं। जो सवाल करते हैं, उनको भी आनंद मिलता है। सवाल भी करना चाहिए और सवाल कैसे करना है यह भी जानना चाहिए। हर व्यक्ति सवाल नहीं कर सकता है। श्रीसनातन गोस्वामी ने सवाल किए और महाप्रभु ने उत्तर दिए, अर्जुन ने सवाल किए और श्रीकृष्ण ने उत्तर दिए। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के प्रश्नों के उत्तर दिये क्योंकि वे भक्त हैं।
श्रीशुक उवाच
आसीद् गिरिवरो राजंस्त्रिकूट इति विश्रुत:।
क्षीरोदेनावृत: श्रीमान्योजनायुतमुच्छ्रित:॥
(श्रीमद् भागवतम् 8.2.1)
श्रीशुकदेव गोस्वामी कहते हैं, “हे राजन! क्षीर समुद्र में अतिशय सौन्दर्यशाली ‘त्रिकूट’ नामक एक बहुत बड़ा पर्वत था जिसकी ऊँचाई दस हजार योजन थी।“ यहाँ पर हमारे मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि शुकदेव गोस्वामी पर्वत का वर्णन क्यों कर रहे हैं। हम तो हरि के विषय में सुनेंगे। पर्वत के बारे में सुनने से क्या होगा? किन्तु ऐसा नहीं है, जहाँ पर हरि आविर्भूत होते हैं, वह स्थान भी पवित्र हो जाता है। फिर उसके बारे में सुनने से हम भी पवित्र हो जाएँगे। जिस स्थान में भगवान प्रकट हुए वो स्थान परम पवित्र है। सब वैकुण्ठ हो जाता है। इस गजेन्द्र मोक्ष प्रसंग का माहात्म्य बाद में लिखा है। जो लोग एक महीना ठीक प्रकार से इस प्रसंग को सुनेंगे, उसका क्या फल होगा? अभी नहीं बताएँगे, बाद में बताएँगे।
इस पर्वत की ऊँचाई दस हजार योजन है। यह पर्वत आकार में पृथ्वी से भी बड़ा है। इस विशाल पर्वत के सामने पृथ्वी का आकार नगण्य है। पृथ्वी की लम्बाई कितनी है? क्या आप बता सकते हैं? चौंसठ हजार माइल्स। किन्तु इस पर्वत की लम्बाई अस्सी हजार माइल्स है। इस प्रकार हमारी पृथ्वी इस पर्वत के अन्दर समा सकती है। और भी बहुत से ऐसे ग्रह हैं जो पृथ्वी से बहुत बड़े हैं। हम अपनी सांसारिक बुद्धि के द्वारा इसकी कल्पना नहीं कर सकते हैं। अब इस विशाल क्षीर सागर के विषय में सोचिए। ये त्रिकूट पर्वत चारों ओर से इस क्षीर सागर से घिरा हुआ है। इस पृथ्वी पर हम एवरेस्ट पर्वत देखते हैं जो कि हिमालय में है। ये एवरेस्ट पर्वत, त्रिकूट पर्वत के सामने कुछ भी नहीं है। हमारे शास्त्रों में वर्णित इन सब बातों को पश्चिमी देशों में एक मिथक (मिथ्या) माना जाता है और वे सोचते हैं की ये सब काल्पनिक है। किन्तु जब एस्ट्रोनॉमर्स इस बात की पुष्टि करते हैं तो वे मान जाते हैं। यह कुछ भी मिथक या काल्पनिक नहीं है।
तावता विस्तृत: पर्यक्त्रिभि: श्रुङ्गैः पयोनिधिम्।
दिश: खं रोचयन्नास्ते रौप्यायसहिरण्मयै:॥
अन्यैश्च ककुभ: सर्वा रत्नधातुविचित्रितै:।
नानाद्रुमलतागुल्मैर्निर्घोषैर्निर्झराम्भसाम्॥
(श्रीमद् भागवतम् 8.2.2-3)
पहाड़ की लंबाई और चौड़ाई एक ही माप (अस्सी हजार मील) की है। इसकी तीन मुख्य चोटियाँ, जो लोहे, चाँदी और सोने से बनी हैं, सभी दिशाओं और आकाश को सुशोभित करती हैं। पहाड़ की अन्य चोटियाँ भी हैं, जो रत्नों और खनिजों से भरी हैं और सुंदर वृक्षों, लताओं और झाड़ियों से सजी हैं। पहाड़ पर झरनों की आवाज़ एक सुखद कंपन पैदा करती है। इस प्रकार पहाड़ खड़ा है, सभी दिशाओं की सुंदरता बढ़ा रहा है।
त्रिकूट पर्वत का बहुत सुन्दर वर्णन है। यदि आप इस वर्णन को सुनेंगे तो आपको उस स्थान के प्रति भक्ति होगी जहाँ पर भगवान प्रकट हुए हैं। इसी कारण जब हम श्रद्धापूर्वक इन लीलाओं के विषय में सुनेंगे तो हमें भक्ति प्राप्त होगी। इन वर्णनों को सांसारिक वर्णन न समझें। अतः इस पर्वत पर लोहे, सोने और चाँदी से बनी चोटियाँ थीं। यदि किसी को ठोस सोने से बनी चोटियाँ मिल जाएँ तो वह बहुत धनवान हो जाएगा। सारा विश्व ऐसी बहुमूल्य वस्तु को पाने के लिए होड़ करने लगेगा। इस पर्वत पर अनेक प्रकार के वृक्ष, लताएँ और झाड़ियाँ भी थीं। इसमें झरने भी थे। उपर्युक्त तीन चोटियों के अतिरिक्त इस पर्वत पर अन्य चोटियाँ भी थीं। दसों दिशाओं में आपको रत्न और विभिन्न धातुएँ बिखरी हुई मिलेंगी। स्वर्ण और रजत पर्वतों पर सूर्य के प्रतिबिम्ब से यह पूरा स्थान और भी अधिक सुशोभित हो जाता है। आप अपने मन में कल्पना कर सकते हैं कि वहाँ कितना सुन्दर दृश्य था।
स चावनिज्यमानाङ्घ्रि: समन्तात् पयऊर्मिभि:।
करोति श्यामलां भूमिं हरिन्मरकताश्मभि:॥
(श्रीमद् भागवतम् 8.2.4)
जब सब दिशाओं से क्षीरसागर की लहरें आकर उस पर्वत के निचले भाग से टकरातीं तो ऐसा लगता कि मानो वे त्रिकूट पर्वत के पाँव धो रहीं हों। पर्वत की तलहटी पर बहुत प्रकार के मरकत मणि थे। सागर और पर्वत के बीच में जो स्थान था वह अनेक प्रकार के रत्नों व मणिओं से भरा हुआ था। जब सूर्य की किरणें उन पर पड़ती तो उसकी सुन्दरता कई गुना और बढ़ जाती। उनमें हरे रंग के मरकत मणि भी थे। जब सूर्य की किरणें उन पर पड़तीं तो ऐसा लगता मानो हरी घास बिछी हो।
सिद्धचारणगन्धर्वैर्विद्याधरमहोरगै:।
किन्नरैरप्सरोभिश्च क्रीडद्भिर्जुष्टकन्दर:॥
(श्रीमद् भागवतम् 8.2.5)
अन्य उच्च लोकों के निवासी—सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, नाग, किन्नर और अप्सराएँ विहार करने के लिए इस पर्वत की बड़ी-बड़ी गुफाओं में आते थे। इस प्रकार पर्वत की सभी गुफाएँ स्वर्गीय लोकों के इन निवासियों से भरी रहती थीं।
त्रिकूट पर्वत में बहुत बड़ी-बड़ी गुफाएँ थी। इनका आकार इतना विशाल था कि पूरा भारत वर्ष इनके अन्दर समा सकता है। ये गुफाएँ छोटी नहीं थी जैसा कि हम आजकल देखते हैं। आसाम के पर्वतों में भी बहुत सारी गुफाएँ हैं जहाँ अनेक ऋषि-मुनि तपस्या करते थे। इनका आकार बहुत छोटा होता है और केवल एक ऋषि ही उसके अन्दर बैठ सकते हैं। त्रिकूट पर्वत की गुफाएँ किन्तु इतनी छोटी नहीं थीं जितनी की आसाम के पर्वतों में पायी जाती हैं। श्रीबद्रीनाथ धाम में एक गुफा है जहाँ श्रील वेदव्यास मुनि ने बैठकर श्रीमद् भागवतम् की रचना की थी। यद्यपि इसका आकर थोड़ा बड़ा है तथापि उसमें केवल छह-सात लोग ही बैठ सकते हैं। त्रिकूट पर्वत की गुफाएँ इतनी विशाल हैं कि अमेरिका जैसा विशाल देश भी उनके अन्दर समा सकता है।
वहाँ अनेक प्रकार के देवता निवास करते हैं। वे सिद्ध, चारण, गंधर्व, विद्याधर, अजगर जैसे बड़े-बड़े सर्प और किन्नर आदि हैं, जो गायन में बहुत निपुण हैं। इन देवताओं की अलग-अलग योग्यताएँ हैं और इसलिए उनके अलग-अलग नाम हैं। वहाँ अप्सराएँ भी हैं। ये सभी देवता ऊपर बताई गई बड़ी गुफाओं में निवास करते हैं।
यत्र सङ्गीतसन्नादैर्नदद्गुहममर्षया।
अभिगर्जन्ति हरय: श्लाघिन: परशङ्कया॥
(श्रीमद् भागवतम् 8.2.6)
गुफाओं में स्वर्ग के वासियों के गायन की गूँजती ध्वनि के कारण, वहाँ के सिंह अपने बल पर बहुत गर्व करते हुए, असहनीय ईर्ष्या से दहाड़ते हैं, यह सोचकर कि कोई दूसरा सिंह भी उसी प्रकार दहाड़ रहा है।
देवताओं, अप्सराओं और नागों के अतिरिक्त यहाँ शेरों और बाघों से भरी गुफाएँ भी हैं। जब देवता अपनी प्रसन्नता के लिए गाते और नाचते हैं, तो वह ध्वनि उन शेरों के कानों में गूंजती है। वह शेर जो उन ध्वनि को सुनता है, उसे किसी दूसरे शेर की दहाड़ समझ लेता है जो दहाड़ कर अपनी शक्ति का बखान कर रहा है। उस ध्वनि को सुनकर शेर उत्तेजित हो जाता है और उससे भी भारी आवाज में दहाड़ने लगता है।
मैंने भी एक बार ऐसा ही कुछ देखा है। कहाँ देखा? कोलकाता में नहीं। मैं कोलकाता के चिड़ियाघर में कभी नहीं गया। पूरा विश्व ही चिड़ियाघर है, तो फिर चिड़ियाघर जाने की क्या आवश्यकता है। किन्तु एक बार मैं श्रील संत गोस्वामी महाराज के साथ हैदराबाद गया था। उस समय हम एक मंदिर में दर्शन करने गए थे और रास्ते में हम एक चिड़ियाघर भी गए। वहाँ मैंने अनेक प्रकार के पक्षी, हिरण, जानवर आदि देखे। मैंने कबूतर देखे जिनके गले में छोटी-छोटी घंटियाँ बंधी हुई थीं। यह सब देखकर मैं बहुत हैरान हुआ, इतने सारे अलग-अलग पक्षी और जानवर। क्या आप कल्पना कर सकते हैं? वहाँ इतने सारे अलग-अलग प्रकार के साँप थे। मैं बहुत हैरान हुआ। उसके बाद मैंने एक बाघ देखा। जब मैंने देखा तो बाघ एक मरे हुए जानवर की भांति लेटा हुआ था। उसे देखकर मैंने सोचा कि यह कैसा बाघ है! श्रील संत महाराज और मैं उस शेर की दहाड़ सुनने के लिए कुछ समय तक अपेक्षा करते रहे किन्तु वह खड़ा नहीं हुआ। फिर हमने दरियाई घोड़े जैसे दूसरे जानवरों को देखा। वहाँ एक खाली स्थान था जहाँ कुछ बाघों को कैद करके रखा गया था। वहाँ एक गाड़ी थी जो आपको पैसे के बदले में उस खाली स्थान पर ले जाएगी और आपको उन बाघों को देखने का मौका देगी। हम किन्तु उस खाली साथ पर नहीं गए जहाँ बाघ थे। अचानक उस खाली स्थान से एक बाघ दहाड़ने लगा। तुरंत ही वह बाघ जो हमने पहले देखा था, उठ खड़ा हुआ और दहाड़ने लगा। हम थोड़े डर गए और सोचने लगें कि जिस बाघ को हमने कमज़ोर और दुर्बल समझा था वह वैसा नहीं है।