भगवान सर्वोत्तम तत्त्व, सभी ईश्वरों के ईश्वर हैं। वे ही सच्चिदानन्द स्वरूप पुरुषोत्तम तत्त्व हैं। व्यक्तित्व, चेतन सत्ता का गुण है, जड़ पदार्थ का नहीं।
जब भी हम — जाते थे, आपके घर पर ठहरते थे। आपका घर हमारे वास के लिए उत्तम व सुविधाजनक है। आपके घर में हमारे वास की सुविधा को ध्यान में रहते हुए आप अपने स्वयं के घर को छोड़कर अपने परिचित अन्य व्यक्ति के घर में रहती थीं। यह आपकी निष्कपट वैष्णव सेवा प्रवृत्ति का परिचायक है।
वास्तव में, मुझे यह ज्ञात नहीं था कि आप अविवाहित हैं और आपने मुझे कभी नहीं बताया कि आप विवाह करने के लिए इच्छुक हैं। स्त्रियों के लिए भारत में साधारणतः ऐसा विधान है कि विवाह से पूर्व कन्या माता-पिता के संरक्षण में, विवाहिता स्त्री अपने पति के आश्रय में व वृद्धावस्था में अपने सुपुत्र के आश्रित होकर रहती है। कन्या के लिए युवावस्था में विवाह करना उत्तम है। भारत की सामाजिक व्यवस्था पश्चिमी देशों की सामाजिक व्यवस्था से भिन्न है। भारत में विवाह पुरोहित, माता-पिता, अभिभावक, परिवारजन व अन्य शुभाकांक्षी मित्रों की उपस्थिति में संपन्न होता है तथा वैवाहिक संबंध जीवन पर्यन्त निभाया जाता है। किन्तु मेरा अनुभव है कि अन्य देशों में वैवाहिक संबंध प्रायः स्थायी नहीं रहते हैं। आपके लिए अपने समाज व देश के नियमों के अनुसार विवाह करना उचित है। यदि आपको एक ऐसे वैष्णव पति मिले जो आजीवन आपको धर्मपत्नी के रूप में स्वीकार करने के लिए प्रतिबद्ध हो तो विवाह में कोई आपत्ति नहीं है।
गीता में, श्रीकृष्ण कहते हैं – जो एकान्त भाव से मेरी आराधना करते हैं, मैं उन्हें सद्-असद् का विवेक प्रदान करता हूँ जिससे वे मेरे सर्वोत्तम चिन्मय परमानन्द धाम को प्राप्त सके। श्रीकृष्ण यह भी कहते हैं, निष्कपट साधक की कभी भी दुर्गति नहीं होती। हमारे लिए क्या करणीय है और क्या अकरणीय, इसको भली भांति समझने के लिए मापदंड स्वयं वेद व्यास मुनि ने पद्म पुराण में दिया है—“हमें सदैव श्रीकृष्ण का स्मरण करना है व उन्हें कभी भूलना नहीं है।” निरन्तर श्रीकृष्ण स्मरण उपयोगी भक्ति अंगों के पालन के विषय में व श्रीकृष्ण विस्मृति कारक कर्मों के निषेध के विषय में शास्त्रों में बताया गया है। इन शास्त्र-विधान के अतिरिक्त यदि कोई क्रिया कृष्ण का स्मरण कराए तो वह स्वीकार्य व श्रीकृष्ण का विस्मरण कराए तो वह परित्यज्य है। शरणागति के बिना भक्ति सम्भव नहीं है। षडंग (छः अंग युक्त) शरणागति के विषय में तो आप अवगत हैं ही। मैं इसका विस्तार नहीं करना चाहता।
सनातन धर्म में मूर्ति-पूजा का विधान है। मूर्ति-पूजा (विग्रह-सेवा) और बुत-पूजा (पुतली-पूजा) में अनेक अन्तर है। हम पुतली-पूजक नहीं हैं। भगवान सर्वोत्तम तत्त्व, सभी ईश्वरों के ईश्वर हैं। वे ही सच्चिदानन्द स्वरूप पुरुषोत्तम तत्त्व हैं। व्यक्तित्व, चेतन सत्ता का गुण है, जड़ पदार्थ का नहीं। पृथ्वी पर कोई भी मृत शरीर को व्यक्ति नहीं मानता। जब तक इच्छा, क्रिया, अनुभूति लक्षणयुक्त चेतन सत्ता शरीर में विद्यमान है तब तक उसे व्यक्ति माना जाता है। यदि भगवान की चेतन शक्ति के एक अणु अंश को व्यक्ति माना जाता है तो यह मानने में क्या कठिनाई है कि, जिनकी सत्ता पूर्ण-सत्, पूर्ण-ज्ञान और पूर्ण-आनंदमय है, वे सर्वोत्तम पुरुष, पुरुषोत्तम हैं। उन्हें सर्वोत्तम पुरुष स्वीकार न करने का कोई कारण नहीं है।
इस संसार में भगवान के प्राकट्य का मूल कारण शुद्ध-भक्त की तीव्र विरह व्याकुलता को दूर करना है। भगवान के अनेक अवतार हैं, किन्तु श्रीकृष्ण स्वयं-भगवान (अवतारी) हैं, जैसा कि आपने लिखा हैं, ‘स्वप्रकाशित स्वयं-भगवान’। अपने एकान्त भक्त की शुद्ध-भक्ति से आकर्षित होकर श्रीकृष्ण स्वयं अपने अलौकिक नित्य स्वरूप में प्रकट होते हैं। हमने हमारे गुरुवर्ग से श्रवण किया है कि कर्मकांड-प्राण-प्रतिष्ठा सर्वथा अनिवार्य नहीं है।
आपके लिए, एक शुद्ध-भक्त द्वारा प्रकाशित श्री गुरुगौरांग राधाकृष्ण-विग्रह के चित्रपट की सेवा करना श्रेयस्कर होगा। उस स्थिति में, यदि आप किसी शारीरिक अथवा अन्य किसी कठिनाई के कारण सेवा करने में असमर्थ हैं, तो भी कोई गुरुतर अपराध नहीं होगा, क्योंकि आप यह स्मरण कर सकतीं हैं कि विग्रहों की सेवा-परिचर्या उस मंदिर में हो रही है जहाँ वे प्रतिष्ठित हैं। यदि विग्रहों की प्रतिष्ठा वैष्णव शास्त्रों के अनुसार की गई है तो, उन विग्रहों की सेवा-परिचर्या वैष्णव श्रुति के विधान के अनुसार प्रतिदिन की जाय, यह अनिवार्य है।
संभवतः भगवान् की इच्छा से, हम सितंबर महीने में रूस में कुछ स्थानों पर जा सकते हैं। उस समय मुझे आपसे व्यक्तिगत रूप से विस्तारपूर्वक बात करने का अवसर मिलेगा।
हम आज एक बड़ी कीर्तन मंडली के साथ उत्तर-भारत के व्यापक प्रचार-भ्रमण के लिए प्रस्थान कर रहे हैं। परम दयामय श्री गुरुगौरांग राधाकृष्ण आप पर कृपा करें।